डॉ. महेश परिमल
आज युवाओं की जिंदगी स्पीड से चलती मोटरबाइक जैसी हो गई है। जिसमें केवल गति है। इस गति को बनाए रखने के लिए युवा कुछ भी करने को तैयार हैं। हर काम का शार्ट कट उन्हें पता है। भले ही बाद में उन्हं पछताना पड़े, पर सच तो यह है कि उनके पास अभी तो पछताने का भी वक्त नहीं है। हर काम को तेजी के साथ कर लेने की प्रवृत्ति उन्हें कहाँ ले जा रही है, इसका अंदाजा उन्हें भी नहीं है।
प्रतिस्पर्धा का दौर बचपन से ही शुरू हो जाता है। प्ले ग्रुप में पढ़ते बालक को नए स्कूल में एडमिशन के लिए होने वाले इंटरव्यू की चिंता सताती है। जूनियर के.जी. में आते ही वह होमवर्क की चक्की पीसना शुरू कर देता है। कक्षाएँ बढ़ती जाती हैं और एकाम, कोचिंग, ट्यूशन का तनाव साथ-साथ दोगुनी गति से बढ़ता जाता है। विद्यार्थियों की आँखों में जितने सपने नहीं होते उससे कहीं अधिक तनाव के कभी न सुलझने वाले जाल होते हैं। इन तनावों के जाल में उलझा किशोर मन 12 वर्ष का होते ही कॉलेज और कॅरियर की चिंता करने लगता है। चिंता केवल पढ़ाई से जुड़ी हो, ऐसा भी नहीं है। पढ़ाई के अलावा ‘स्टेटस सि?बॉल’ के रूप में मोबाइल मु?य भूमिका निभाता है। मोबाईल का कौन सा मॉडल खरीदना और उसमें टॉकटाइम भरवाने के लिए पैसों की व्यवस्था किस प्रकार की जाए, ये चिंता भी आज के किशोर की मुख्य चिंताओं में से एक है।
आज युवा मस्तिष्क में हर काम जल्द से जल्द पूरा करने का एक जुनून-सा छाया हुआ है। आज के युवा को डिग्री भी जल्दी चाहिए और आकर्षक वेतन वाली नौकरी भी। यहाँ तक कि वह किसी के प्रेम में भी जल्दी गिरफ्तार होता है और विवाह बंधन में भी जल्दी ही बँधता है। आठवीं में पहुँचते न पहुँचते गर्लफेन्ड की तलाश शुरू हो जाती है। इस दौरान कई फ्रेंड बदलता है। कॉलेजं तक आते ही सीमाओं के पार की दुनिया में कदम रख देता है। कहीं सामाजिक मर्यादा का खयाल आता है, तो विवाह बंधन में बँध जाता है। आश्चर्य तो यह कि विवाह-बंधन से मुक्त भी जल्दी ही हो जाता है। जल्दबाजी का यह सिलसिला यही खत्म नहीं होता, जिंदगी भी जल्दी ही पूर्ण विराम पा जाती है। जल्दबाजी के दौर में युवा हर तरह का खतरा उठाने को तत्पर रहता है। इस खतरे का सीधा असर उससे जुड़े लोगों पर भी होता है, लेकिन उससे उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। वह तो अपनी मर्जी से जिंदगी जीता है और भरपूर जीता है।
हाल ही की एक घटना है- दिल्ली में इंडिया गेट के नजदीक ही एक पेड़ से एक गाड़ी बुरी तरह से टकरा गई। जिसमें दो युवक-युवती की तो घटनास्थल पर ही मौत हो गई और दो युवक-युवती गंभीर रूप से घायल हो गए। गाड़ी की हालत देखकर ही अंदाजा लगाया जा सकता था कि टक्कर कितनी तेज गति से हुई होगी। चालक एवं सवार स?भी 20-25 वर्ष के ही थे। यानी कि ‘फास्ट लाईफ’ जीने के क्रेजी युवाओं का अंत भी ‘फास्ट डेथ’ के रूप में हुआ। देहरादून में इस वर्ष तेजी से बाईक चलाने के कारण 28 युवक-युवती काल के ग्रास बने हैं। केवल दिल्ली या देहरादून की ही यह कहानी नहीं है, भाारत के हर शहर की यही कहानी है। युवाओं को बाईक स्पीड में चलानी है और जिंदगी भी स्पीड में ही जीनी है। परिणाम सामने है, पर सावधान होने के लिए समय कहाँ है?
युवाओं के इस भटकन के लिए क्या वे स्वयं ही जिम्मेदार हैं ? कहीं न कहीं घर का वातावरण, आसपास की दुनिया, सामाजिक परिवेश सभी कुछ तो ऐसा है, जो उसे इस रास्ते पर जाने को बाध्य कर रहा है। यदि आज स्कूल का एक विद्यार्थी कार से स्कूल जाता है, हाथ में सेलफोन रखता है और एकांत मे अल्कोहल का पैग या धुएँ के कश में डूब जाता है, तो उसके लिए क्या केवल वही जिम्मेदार है ? उसकी मित्र-मंडली, घर का वातावरण जिम्मेदार नहीं! किसने थमाई उसके हाथ में कार की चाबी? किसने पकड़ाया उसके हाथ में सेलफोन? अल्कोहल और सिगरेट का नशा क्या यूँ ही उस पर हावी हो गया? कॉलेज में पहुँचते-पहुँचते ये रास्ते गहरी खाई का रूप ले लेते हैं और तब कहीं जाकर माता-पिता को अपनी गलती का अहसास होता है। लेकिन तब काफी देर हो चुकी होती है। वे अपनी संतान को खो बैठते हैं या फिर अपनी आँखों के सामने अपाहिज संतान को घर में बैठा देखते रहते हैं।
आज के युवाओं के लिए मित्रता और मनोरंजन की व्याख्या भी बदल गई है। पहले तो वे पार्टियाँ करते थें, पिकनिक मनाते थे और खेल खेलते थे, लेकिन अब वे साइबर पार्टियाँ करते है, ये पार्टियाँ सोशल नेटवर्किंग की साइट पर आयोजित होती हैं। मित्रों से मिलने के लिए भी वे साइट का ही सहारा लेते हैं। उनकी जिंदगी टीवी, कंप्यूटर और मोबाइल के आसपास ही घूमती रहती है। धूम जैसी फिल्मों और फास्ट मोबाइल का नशा उन पर बुरी तरह से सवार हो गया है। जो युवक कैफे में जाते हैं, उनमें से अधिकांश ‘बर्नआउट’ नामक विडियो गेम खेलते हैं। इस खेल में आप जितने अधिक एक्सीडेंट करेंगेे, उतने अधिक पाइंट मिलेंगे। युवा इसमें अधिक से अधिक एक्सीडेंट कर आनंद प्राप्त करते हैं। इसीलिए वे अपनी रियल लाइफ में भी एक खेल की तरह अधिक से अधिक दुर्घटनाएँ करना चाहते हैँ। मौका मिलने पर वे चूकते भी नहीं।
दूसरी ओर आज युवाओं पर अपेक्षाओं का भारी बोझ है। माता-पिता स्वयं तो उसे समय नहीं दे पाते, लेकिन अपेक्षाएँ बहुत सी रखते हैं। ये अपेक्षाएँ उन्हें तनाव में डाल देती हैं। आजकल बच्चे फर्स्ट क्लास लाते हैं, तो उसकी कोई कीमत नहीं है। 80 प्रतिशत अंक लाने वाला एवरेज विद्यार्थी माना जाता है। यदि 90 प्रतिशत अंक आते हैं, तो पालक खुश होते हैं। सभी पालक यही चाहते हैं कि उनका बच्चा सुपरकिड बन जाए। केवल स्कूल-कॉलेज ही नहीं, बल्कि शिक्षा से अलग जो भी करे, उसमें उनका बच्चा सर्वश्रेष्ठ हो, बस इन्हीं चाहतों के बीच आज का मासूम भी कुचलकर रह गया है। बच्चे को संगीत सिखना चाहिए, ड्राइंग सिखनी चाहिए। उसे कराटे में ब्लेकबेल्ट मिलना ही चाहिए। यदि वह स्केटिंग सीख रहा है, तो उसे स्टेट लेबल पर तो जाना ही चाहिए। यह तो तय है कि सभी बच्चे सुपरकिड नहीं बन सकते। कुछ बच्चे धीमे-धीमे सीखते हैं। ऐसे बच्चे सबसे अधिक अपमानित होते हैं। पालक के सामने भी और समाज के सामने भी। इससे उनका तनाव बढ़ जाता है। इस तनाव को दूर करने के लिए वह तरह-तरह के उपाय करता है। कभी किसी व्यसन का शिकार होता है, तो कभी स्मोकिंग करने लगता है। कई तो ड्रग्स लेना शुरू कर देते हैं। कुछ शराब की शरण में चले जाते हैं। यदि कुछ बच जाते हैं, तो वे गुटखा-तम्बाखू का सहारा लेते हैं। अपने गुस्से को बताने के लिए उनके पास कोई सहारा नहीं होता, तो वे अपने वाहन पर अपनी खीझ निकालते है। फास्ट ड्राइविंग करते हुए वे कॉलेज में मारा-मारी पर उतारू हो जाते हैं।
आज के युवाओं पर सतत सफल होने का दबाव बढ़ गया है। उन्हें संस्कारवान बनना है, यह कोई नहीं सिखाता। यही कारण है कि वे अपने से बड़ों से सीधे मुँह बात तक नहीं करते। बुजुर्गों की सेवा करना तो उन्हें आता ही नहीं। बडे़-बुजर्गों को तो वे बोझ समझने लगे हैं। गलत तरीके से धन नहीं कमाना चाहिए। किसी से धोखेबाजी नहीं करनी चाहिए। ये कोई उन्हें सिखाता ही नहीं है। इस कारण वे मतलबी और स्वार्थी होने लगे हैं। किस्मत अच्छी होती है, तो वे धनपति बन जाते हैं, पर संस्कारी बन नहीं पाते। ऐसे लोगों के जीवन में जब विषमताएँ आती हैं, तो उन्हें डगमगाने में देर नहीं लगती। माता-पिता अपने बच्चों का मोबाइल दे सकते हैं कार दे सकते हैं, पर समय और सहानुभूति नहीं दे सकते। बच्चे स्वयं को अनाथ समझने लगते हैं। वे यह अच्छी तरह से समझते हैं कि उनके माता-पिता भी गलत तरीके से धन कमा रहे हैं, तो उन्हें उनके धन को खर्च करने में कोई शर्म महसूस नहीं होती। परिश्रम से कमाया हुआ धन कैसा होता है, यह वे न तो जानते हैं और न ही समझते हैं।
बच्चों के आदर्श उनके माता-पिता ही होते हैं। कॉलेज में पढ़ने वाले अपने युवा बच्चे से एक पालक ने कह दिया कि वे कॉलेज के किसी भी विद्यार्थी से मारपीट करने की छूट है। मैं सबसे निपट लूँगा, इतना खयाल रखना कि इस मारपीट में किसी की मौत न हो जाए। जो पालक अपने बच्चों को ऐसी शिक्षा देते हो, उन्हें किसी दुश्मन की क्या आवश्यकता? आज बच्चे घर आए मेहमान का अपमान करते हैं, तो पालक उसे डॉटने के बजाए शाबासी देते हैं। जैसे बच्चे ने कोई पराक्रम किया है। ऐसे बच्चे अपने माता-पिता की इात कैसे कर सकते हैं भला? दूसरे ओर आज के युवाओं में बहुत ही जल्द बोर होने की प्रवृत्ति बढ़ने लगी है। मोबाइल फोन के मॉडल से बोर होने के कारण वे हर तीन-चार महीनों में अपना मोबाइल बदलते हैं। 6 महीने में ही अपनी बाइक से बोर होने लगते हैं। हर वर्ष वे अपनी कार बदलने लगे हैं। यही हाल नौकरियों का भी है। उसमें भी वे लगातार जम्प मारते रहते हैं। कूदने की प्रवृत्ति उनके जीवन का हिस्सा बन जाती है। शादी से पहले वे वóों की तरह गर्लफ्रेंड बदलते हैं। शादी के बाद एक ही पत्नी से भी बोर होने लगते हैं। स्थिति विवाहेत्तर संबंधों तक पहुँच जाती है। इसके बाद होता है तलाक। गर्लफ्रेंड के साथ मित्रता कैसे की जाती है, यह तो उन्हें पता ही नहीं होता। इसकी भी ंफुरसत उनके पास नहीं होती। इसलिए वे स्पीड डेटिंग करने लग जाते हैं।
युवा आज जिन कॉलेजों में मैनेजमेंट की शिक्षा ग्रहण कर रहे होते हैं, वहाँ भी उन्हें ईमानदारी का धंधा करने के बजाए कोमोडिटी की बिक्री किस तरह बढ़ाई जाए, ग्राहकों से किस तरह से धोखेबाजी की जाए, यह सिखाया जाता है। कॉलेज से एमबीए की डिग्री लेकर जब वे मार्केटिंग मैनेजर बन जाते हैं, तब वे गलत तरीके से पैसा उगाहने वाली स्कीमें तैयार करते हैं। ग्राहकों की जेब से किस तरह से धन निकाला जाए, इसके कई रास्ते निकालते हैं। आज जिस तरह से मोबाइल कंपनियाँ बाजार में आकर ग्राहकों को ठग रही हैं, यह सब आज के युवाओं के दिमाग की ही उपज है।
आज का युग तेजी से बदल रहा है। देश भी तेजी से आर्थिक प्रगति कर रहा है। लोगों के पास धन भी पर्याप्त आ रहा है। समाज के जीवन मूल्य भी बदल रहे हैं। जो परिवर्तन पहले दस वर्ष में दिखते थे, वे अब दस माह में ही दिखने लगे हैं। शहर की गलियाँ भी तेजी से बदलती जा रही है। लोगों के पास अब वन डे देखने का समय नहीं है, वे अब 20-20 में दिलचस्पी लेने लगे हैं। सामाजिक बदलाव भी तेजी से दिखाई देने लगे हैं। पूरे समाज की ही कायापलट हो गई है, इससे समाज का क्या भला होगा, यह शोध का विषय हो सकता है।
डॉ. महेश परिमल
बुधवार, 21 दिसंबर 2011
उनकी आँखों में सपने से अधिक तनाव तैरते हैं......
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आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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