हमारी आजादी के इतिहास का सबसे उज्जवल प्रकरण मेें 'दांडीयात्राÓ को लिया जा सकता है। पूर्ण स्वराज्य के संकल्प को साकार बनाने गांधीजी ने नमक कानून भंग करने के लिए 241 मील पदयात्रा का विचार किया और इस संबंध में जो भी आयोजन किया गया, वह किसी भी आंदोलन के लिए एक मील का पत्थर है। इसीलिए हर वर्ष इस घटना की याद को ताजा करने के लिए लोग दांडीयात्रा का आयोजन करते हैं।
गुजरात के मंच पर इस ऐतिहासिक घटना ने आकार लिया। जिससे हमारी अनेक पीढिय़ाँ गर्व से इसका स्मरण करेंगी। सरदार वल्लभभाई पटेल जब इस यात्रा की पूर्व तैयारी के साथ भरुच में युद्ध का शंखनाद करते हैं, तो कहते हैं कि ''संसार ने कभी नहीं देखा होगा, ऐसा युद्ध अब होने वाला है.... गुजराती यानी व्यापार कर जीने वाले.... इन्होंने कभी अपने हाथों में हथियार नहीं उठाए, युद्धक्षेत्र देखा नहीं....यदि मृत्यु की चिंता हो, तो उसका जीवन बेकार है। इस शुभ क्षणों में जन्म हुआ है..... अवसर मिला है, तो उसका स्वागत करो, अब तो दीये में जिस तरह पतंगे गिरते हैंं, उसी तरह लड़ाई में कूद जाना है। तभी तो लोग जानेंगे कि महात्मा गांधी ने 15 साल यूँ ही नहीं बिताए हैं..... साबरमती के संत को किसी ने जाना हो, तो यह सभी बातें बिलकुल आसान हैं ... इसे अपना धर्म समझ लेना। देश से लोग जितनी अपेक्षा रखेंगे, उससे कहीं अधिक अपेक्षा लोग गुजरात से रखेंगे।इसके पहले वाइसरॉय लॉर्ड इरविन को गांधीजी ने लिखा ही था कि ''मैं जानता हूँ कि अहिंसा की लड़ाई लडऩे में मैं मूर्खतापूर्ण खतरा उठा रहा हँ! पर गंभीर खतरों के बिना सत्य की विजय संभव ही नहीं है।ÓÓ
1922 में गांधीजी को राजद्रोह के आरोप में 6 वर्ष की सजा हुई तब ब्रिटिश संसद में लॉर्ड बर्कनहेड ने शेखी बघारते हुए कहा था कि ''गांधीजी की गिरफ्तारी से भारत में कहीं भी विरोध का स्वर सुनाई नहीं दिया और हमारा काफिला सुखपूर्वक आगे ही बढ़ रहा है। वल्लभभाई पटेल की इच्छा थी कि 1930 में हुई गांधीजी की गिरफ्तारी के विरोध में जनता उसका मुँहतोड़ जवाब दे। सत्याग्रहियों से जेल भर जाए। टैक्स के भुगतान के बिना शासन की कार्यप्रणाली ठप्प हो जाए। इस संबंध में जब उन्होंने खेड़ा जिले के रास ग्राम में लोगों के आग्रह पर भाषण करना शुरू किया, तो पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। 9 मार्च 1930 को रविवार का अवकाश होने के बाद भी मजिस्ट्रेट ने अदालत खुली रखकर सरदार पटेल को 3 माह की सजा सुनाई। साबरमती जेल जाते हुए गांधीजी के दर्शन कर उनका आशीर्वाद लिया।
9 मार्च 1930 को गांधीजी ने लिखा कि ''इसमें संदेह नहीं कि यदि गुजरात पहल करता है, तो पूरा भारत जाग उठेगा।ÓÓ इसलिए दस मार्च को अहमदाबाद में 75 हजार शहरियों ने मिलकर सरदार पटेल को हुई सजा के विरोध में लडऩे की प्रतिज्ञा की। 11 मार्च को गांधीजी ने अपना वसीयतनामा कर अपनी इच्छा जताई कि आंदोलन लगातार चलता रहे, इसके लिए सत्याग्रह की अखंड धारा बहती रहनी चाहिए, कानून भले ही भंग हो, पर शांति रहे। लोग स्वयं ही नेता की जवाबदारी निभाएँ।
11 मार्च की शाम की प्रार्थना नदी किनारे रेत पर हुई, उस समय गांधीजी के मुख से यह उद्गार निकले ''मेरा जन्म ब्रिटिश साम्राज्य का नाश करने के लिए ही हुआ है। मैं कौवे की मौत मरुँ या कुत्ते की मौत, पर स्वराज्य लिए बिना आश्रम में पैर नहीं रखूँगा।
दांडी यात्रा की तैयारी देखने के लिए देश-विदेश के पत्रकार, फोटोग्राफर अहमदाबाद आए थे। आजादी के आंदोलन की यह महत्वपूर्ण घटना ''वाइज ऑफ अमेरिका के माध्यम से इस तरह प्रस्तुत की गई कि आज भी उस समय के दृश्य, उसकी गंभीरता और जोश का प्रभाव देखा जा सकता है।
अहमदाबाद में एकजुट हुए लोगों में यह भय व्याप्त था कि 11-12 की दरम्यानी रात में गांधीजी को गिरफ्तार कर लिया जाएगा। गांधीजी की जय और वंदे मातरम् के जयघोष के साथ लोगों के बीच गांधीजी ने रात बिताई और सुबह चार बजे उठकर सामान्य दिन की भाँति दिनचर्या पूर्ण कर प्रार्थना के लिए चल पड़े।
भारी भीड़ के बीच पंडित खरे जी ने अपने कोमल कंठ से यह गीत गाया :-
''शूर संग्राम को देख भागे नहीं,
देख भागे सोई शूर नाहीं
प्रार्थना पूरी करने के बाद जब सभी लोग यात्रा की तैयारी कर रहे थे, इस बीच अपने कमरे में जाकर गांधीजी ने थोड़ी देर के लिए एक झपकी भी ले ली। लोगों का सैलाब आश्रम की ओर आ रहा था। तब सभी को शांत और एकचित्त करने के लिए खरे जी ने ''रघुपति राघव राजारामÓÓ की धुन गवाई। साथ ही उन्होंने भक्त कवि प्रीतम का गीत बुलंद आवाज में गाया:-
ईश्वर का मार्ग है वीरों का
नहीं कायर का कोई काम
पहले-पहल मस्तक देकर
लेना उनका नाम
किनारे खड़े होकर तमाशा देखे
उसके हाथ कुछ न आए
महा पद पाया वह जाँबाज
छोड़ा जिसने मन का मैल।
अहमदाबाद के क्षितिज में मंगलप्रभात हुआ, भारत की गुलामी की जंजीरें तोडऩे के लिए भागीरथ प्रयत्न शुरू हुए। 12 मार्च को सुबह 6.20 पर वयोवृद्ध 61 वर्षीय महात्मा गांधी के नेतृत्व में 78 सत्याग्रहियों ने जब यात्रा शुरू की, तब किसी को बुद्ध के वैराग्य की, तो किसी को गोकुल छोड़कर जाते हुए कृष्ण की, तो किसी को मक्का से मदीना जाते हुए पैगम्बर की याद आई। गांधीजी के तेेजस्वी और स्फूतर््िामय व्यक्तित्व के दर्शन मात्र से स्वतंत्रता के स्वर्ग की अनुभूति करते लाखों लोगों की कतारों के बीच दृढ़ और तेज गति से कदम बढ़ाते गांधीजी और 78 सत्याग्रहियों का दल अन्याय, शोषण और कुशासन को दूर करने, मानवजाति को एक नया शस्त्र, एक अलग ही तरह की ऊर्जा और अमिट आशा दे रहा था।
गांधीजी ने यात्रा के लिए और जेल जाने के लिए अलग-अलग दो थैले तैयार किए थे, जो उनकी यात्रा की तस्वीरों में देखे जा सकते हैं, क्योंकि समग्र यात्रा के दौरान कब जेल जाना पड़ जाए, यह तय नहीं था। 16 मार्च को गांधीजी ने नवजीवन में लिखा ''ब्रिटिश शासन ने सयानापन दिखाया, एक भी सिपाही मुझे देखने को नहीं मिला। जहाँ लोग उत्सव मनाने आए हों, वहाँ सिपाही का क्या काम? सिपाही क्या करे? पूर्ण स्वराज्य यदि हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है, तो हमें यह अधिकार प्राप्त करने में कितना समय लगना चाहिए? 30 कोटि मनुष्य जब स्वतंत्रता प्राप्ति का संकल्प करंे, तो वह उसे मिलती ही है। 12 मार्च की सुबह का वह दृश्य उसी संकल्प का एक सुहाना रूप था। नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने कहा कि ''महात्मा जी के त्याग और देशप्रेम को हम सभी जानते ही हैं, पर इस यात्रा के द्वारा हम उन्हें एक योग्य और सफल रणनीतिकार के रूप में पहचानेंगे। गजब का आत्मविश्वास, लोकजागृति, अद्भुत धैर्य, सहनशीलता, शांत प्रतिकार के प्रतीक समान यह दांडी यात्रा 77 वर्ष बाद भी कौतुहल और प्रेरणा का स्रोत बनी हुई है। मानवजाति के इतिहास का यह एक अनोखा स्वर्ण पर्व गुजरात की यश गाथा का मोर पंख है।
(पी के लहरी की किताब स्वराज्य ना गांधी से साभार)
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