डॉ. महेश परिमल
भला कोई सोच सकता है कि बिना धन के जीवन संभव है? ‘फ्री इकानॉमी’ की अवधारणा आज की परिस्थितियों में संभव नहीं है। इस अवधारणा को गलत सिद्ध करने की एक कोशिश हुई है। हम गर्व से कह सकते हैं कि इसके तार भारत से जुड़े हुए हैं। आयरलैंड के मार्क बोयल ने इस तरह का प्रयास कर अब तक 5 हजार लोगों को जोड़ लिया है। बोयल को इसकी प्रेरणा रिचर्ड एटनबरो की फिल्म ‘गांधी’ देखकर मिली। आज हम सब एक ऐसे समाज में जी रहे हैं, जहाँ धन का ही महत्व है। धन से ही रोटी, कपड़ा और मकान की व्यवस्था संभव है। बिना धन के जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती। विश्व में मुद्रा के रूप में सिक्के और नोट का चलन है। यही मुद्रा ही अमीर-गरीब के बीच की खाई को चौड़ा कर रही है। यदि विश्व में धन नहीं होता, तो कोई अमीर नहीं होता और न ही कोई गरीब। पूरे विश्व में इतनी प्राकृतिक संपदा है जिससे हर मानव की आवश्यकताओं की पूर्ति की जा सकती है। इसके बाद भी एक तरफ लोग भूखे मर रहे हैं और दूसरी तरफ ऐसे भी लोग हैं, जो ऐश्वर्यशाली जीवन जी रहे हैं। इसके मूल में है धन आधारित समाज है।
याद करें अपना बचपन, जब माँ को हम देखते कि वह कुछ वस्तुू देकर किसी से अपनी आवश्यकताओं की चीज ले लेती थीं। हमारे देश के गाँवों में आज भी वस्तु विनिमय की प्रथा प्रचलित है। किसान अपनी फसल का एक भाग देकर अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति कर लेता है। गाँव के हर तबके को वह अपनी फसल देता, बदले में वह उनकी सेवाएँ लेता। इसमें धन की कोई भूमिका नहीं है। सब कुछ अपनी योग्यता पर निर्भर है। आप सामने वाले के लिए क्या कर सकते हैं, ताकि वह आपकी सेवा कर सके। सेवा के बदले सेवा। यही मूल मंत्र है फ्री इकॉनामी की अवधारणा का। यूरापे में करीब 5 हजार लोग आज इस तरह का जीवन जी रहे हैं। इनके जीवन में धन का कोई महत्व नहीं है। आयरलैंड में जन्मे मार्क बोयल एक डॉट कॉम कंपनी में काम करता था। वह धन के पीछे पागल था। वह मानता था कि जिसके पास धन है, वह दुनिया की सारी खुशियाँ खरीद सकता है। एक दिन उसने रिचर्ड एटनबरो की फिल्म ‘गांधी’ देखी। इससे उनके विचारों में क्रांतिकारी परिवर्तन देखने को मिला। उन्होंने सोचा कि एक फकीर की तरह जीवन जीने वाले गांधीजी ने किस तरह से अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बोयल ने गांधी जी का आर्थिक दर्शनशास्त्र और खादी को लेकर चलाए गए उनके अभियानों पर उनके कई आलेख पढ़े। इससे उन्होंने ठान लिया कि वे अब बिना धन के जीवन गुजारेंगे।
इस समय ब्रिटेन में ‘फ्री इकॉनामी’ नामक अभियान चल रहा है। इस अभियान में जुड़ने वाले अपने साथ किसी भी प्रकार का धन नहीं रखते। फिर भी वे अपने जीवन की सारी जरुरतों को पूरा कर रहे हैं। इससे जुड़े लोग खुद के पास जो चीजें हैं, उसकी सेवा देकर वे अन्य चीजें प्राप्त करते हैं। ये सब अपनी कला बेचते हैं। इसके बदले में वे जीवन की आवश्यक वस्तुएँ प्राप्त करते हैं। इसके लिए वे किसी भी प्रकार का धन का लेन-देन नहीं करते। जैसे किसी किसान को अपने बच्चे को पढ़ाने के लिए वह शिक्षक को अनाज देता है। शिक्षक अपनी विद्या के बदले में अनाज प्राप्त करता है। इस तरह से वे सब आपसी विनिमय से अपनी सेवाएँ देकर दूसरे साथियों से सेवाएँ प्राप्त करते हैें। लंदन में रहने वाले मार्क बोयल को जीवन में धन के कारण होने वाले अपराधों के कारण धन से घृणा हो गई। इसके बाद वे ‘फ्री इकॉनामी’ में शामिल हो गए। इसके बाद उसने संकल्प किया कि वे ब्रिस्टल से पोरबंदर तक 9000 मील का सफर बिना धन खर्च किए करेंगे। 2008 में उसने अपने इस संकल्प को अमलीजामा भी पहना दिया। अपने सिद्धांत के अनुसार उसने अपनी जेब में एक पैसा भी नहीं रखा और निकल पड़े अपने सफर पर। उनके पास केवल कुछ कपड़े, बेंड एड, एक चाकू ही था। उनके पास कोई क्रेडिट कार्ड और न ही कोई पोस्ट ट्रावेल चेक था। 30 जनवरी 2008 को उसने अपनी यात्रा शुरू की। रास्ते में जो भी मिलता, तो उसका कोई न कोई काम कर देते। कभी किसी के खेत में, कभी बागीचे में वे लोगों के साथ काम करते, इससे उन्हें भोजन मिल जाता। जहाँ जगह मिली, वहीं रात गुजार ली। इस तरह से वे इंगलैंड से फ्रांस तक पहुँच गए। यह सब दौलतमंदों को नहीं भाया। वे उन्हें तंग करने लगे। उन्होंने कुछ ऐसी व्यवस्था की कि मार्क को कई दिनों तक खाना-पीना नहीं मिला। उन्हें फुटपाथ पर रात गुजारने के लिए विवश होना पड़ा। हारकर वे इंगलैंड वापस आ गए और वहीं रहने लगे। उनका संकल्प कायम है।
मार्क का जन्म यदि भारत में हुआ होता, तो वह किसी गाँव में पूरा जीवन बिना धन के गुजार सकते थे। हमारे देश में आज भी न जाने कितने गाँव ऐसे हैं, जहाँ रहने के लिए धन की आवश्यकता कतई नहीं है। आपमें हुनर है, तो आप पूरी शिद्दत के साथ वहाँ रह सकते हैं। गाँव में आज भी एक ब्राह्मण चार घरों से आटा माँगकर रोटी बना लेता है। यजमानी करते हुए उसे दो जोड़ी कपड़े भी मिल जाते हैं, जो साल भर चलते हैं। जिस मकान में वह रहता है, वह भले ही किराए से हो, पर उसका किराया नहीं लिया जाता। यही नहीं जब कभी मकान की मरम्मत करनी हो, तो आस-पड़ोस के लोग उसकी सहायता के लिए आ जाते हैं। बढ़ई यदि किसी किसान का काम करता है, तो उसे अनाज मिल जाता है। इस तरह के गाँव आज भी हमारे देश में देखने को मिल ही जाएँगे। ‘फ्री इकानामी’ अभियान की शुरुआत अमेरिका में हुई थी। इस अभियान से जुड़ने वाले यह मानते हैं कि दुनिया में गरीबी, बेकारी, कुपोषण, भुखमरी, शोषण आदि जितनी भी समस्याएँ हैं, उसके मूल में केश, क्रेडिट और प्रोफिट है। इस अभियान से जुड़े लोग यह संकल्प करते हैं कि वे कभी भी अपने पास किसी तरह का धन नहीं रखेंगे। वे अपनी कला, जमीन, अथवा श्रम के बदले में विनिमय प्रणाली से जीवन की आवश्यक वस्तुएं प्राप्त करेंगे। धन के बिना समाज का सबसे बड़ा लाभ यह है कि जिस व्यक्ति को जितनी आवश्यकता होती है, वह उतना ही प्राप्त करता है। बैंक में धन संग्रह की कोई सीमा नहीं होती, पर घर में अनाज और वस्त्र रखने की एक सीमा होती है। इसलिए चीजों का सही आवंटन होता है और लोगों को अपनी आवश्यकताओं की चीज मिलती रहती है। ‘फ्री इकानामी’ से जुड़े लोग अपनी वेबसाइट भी चलाते हैं। इस वेबसाइट में अभी कुल 5085 सदस्य हैं। इनके पास 1035 कलाएँ हैं। साथ ही 22289 उपकरण हैं। इसकी सेवा देने के लिए वे सभी तत्पर हैं। इनका एक नियम है कि किसी भी काम को करने पर धन की माँग न करना। पर काम के बदले काम या माल की अदला-बदली कर देना, यही उनका मुख्य उद्देश्य है। अपनी वेबसाइट पर वे किसी प्रकार की तस्वीर नहीं डालते। उनका मानना है कि इंसान की सही पहचान उसके दिखावे से नहीं, बल्कि उसकी कला से होती है। इस वेबसाइट पर कोई भी व्यक्ति एक व्यक्ति को तीन बार से अधिक ई मेल नहीं कर सकता। मेल के बाद सभी सदस्य जीवन में परस्पर मिलते हैं और अपने संबंध मजबूत करते हैं। इसके संचालक मानते हैं कि इसीलिए हमने वेबसाइट पर चेट रूम की सुविधा नहीं देते। लोग इंटरनेट पर नहीं, बल्कि बगीचे में काम करते हुए एक-दूसरे के साथ मिलते-जुलते हैं। इससे उनके संबंध मजबूत और धनिष्ठ होते हैं।
अमेरिका और इंगलैंड में एक डॉलर भी खर्च किए बिना जीवन व्यतीत करना आसान नहीं है। ‘फ्री इकानामी’ के सदस्य जब किसी आवश्यक वस्तु को प्राप्त करने के लिए अपनी सेवा देने को तैयार होते हैं, तो कई बार उन्हें भिखारी भी मान लिया जाता है। जो समाज केवल धन पर ही आधारित है, उस समाज में बिना धन के जीवन बिताने वालों पर कोई आसानी से विश्वास भी नहीं करता। कोई सदस्य अपने पड़ोसी की छत पर बगीचा बनाने का प्रस्ताव देता है, तो पड़ोसी को विश्वास नहीं होता, उसे डर लगता है। कहीं यह मेरी छत पर अपना कब्जा तो नहीं कर लेगा? आज हम धन देकर अपना काम करवाने के इतने अभ्यस्त हो गए हैं कि कोई बिना धन के उनका काम कर देगा, तो उस पर विश्वास नहीं करते। बदले में वह धन तो लेगा नहीं, तो हमसे क्या अपेक्षा रखेगा? यही डर उन्हें खा जाता है। हमारे देश में हजारों वर्षो से साधू-संन्यासी की परंपरा चली आ रही है। ये संन्यासी देश के किसी भी भाग में जाते रहते हैं। न तो इन्हें अपने भोजन की ¨चता होती है और न ही आवास की। हम रास्ते में कई बार जैन साधू-साध्वियों को देखते हैं। वे भी अपने पास किसी तरह का धन नहीं रखते। फिर भी वे अपने समाज में सम्मान प्राप्त करते हैं। उन्हें भोजन भी मिल जाता है और आवास की सुविधा भी प्राप्त हो जाती है। उनकी सेवा करके लोग स्वयं को धन्य मानते हैं। यह भी एक प्रकार का विनिमय ही है। साधू-संतों से समाज में सदाचार और सद्विचार का प्रसार होता है। यह भी समाज की एक बड़ी सेवा ही है। दस सेवा के बदले समाज उनके जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। मार्क को जो समस्याएं फ्रांस में आई, वह निश्चित रूप से भारत में नहीं आती। हमारे देश अतिथियों के स्वागत के लिए हमेशा आतुर रहता है। ‘फ्री इकानामी’ का अर्थ यही है कि बिना किसी परिग्रह का समाज। जिस दिन हमारे देश के अमीर अपना परिग्रह छोड़ देंगे, उस दिन से पूरी दुनिया में कोई गरीब नहीं रहेगा।
डॉ. महेश परिमल