डॉ. महेश परिमल
आज राजधानी का इंडिया गेट एक महासंग्राम का रण बन गया है। लोग अपने आक्रोश को शब्द देने के लिए वहां पहुंच रहे हैं। लोग चाहते हैं कि अब बलात्कारियों को कड़ी से कड़ी सजा देने का समय आ गया है। यह सजा फांसी से कम न हो, इसके भी लाखों समर्थक हैं। लाचार सरकार हमेशा की तरह लाचार ही है। एक डरी-सहमी सरकार से अपेक्षा करना बेकार है। एक ऐसी सरकार जो किसी मामले को पूरी शिद्दत के साथ लटकाती है, फिर जब उसका लाभ लेना होता है, तो जल्दबाजी में सब कुछ कर बैठती है। गुजरात चुनाव को देखते हुए कसाब को फांसी दे दी गई। पर अफजल का मामला अभी तक लटक रहा है। सरकार ही इन्हीं कारगुजारियों और नाकारापन के कारण लोग अब सड़कों पर उतर रहे हैं। लोगों का आक्रोश अब पहले से अधिक मुखर होने लगा है। इसके लिए लोग अब कानून हाथ में लेने से नहीं हिचक रहे हैं। सरकार पूरी तरह से नाकाम। वह तो आंदोलनकारियों को असामाजिक तत्व बताने से नहीं चूक रही है। हमारी न्याय प्रणाली को सशक्त बनाने के लिए जितने प्रयास हुए, वे नाकाफी थे, यह इंडिया गेट पर हुए प्रदर्शन से स्पष्ट हो जाता है।
एक डरी-सहमी सरकार कुछ नहीं कर सकती। करना चाहे भी तो नहीं कर सकती। वह अफजल के मामले को वोट के खातिर लटकाए रख सकती है। दूसरी ओर उसी वोट के खातिर कसाब को जल्दबाजी में फांसी दे सकती है। अपने हीं मंत्रियों को भ्रष्ट कहने में हिचकती है। पहले उन्हें लूट के लिए खुली छूट देती है, फिर जब वह कानून के शिंकजे में आ जाए, तो अपना पल्ला झाड़ लेती है। अपनी ही विश्वसनीय संस्था के आंकड़ों को गलत बताती है। जो सरकार के फैसलों का समर्थन करें, उन्हें उबार लेती है, जो उसका विरोध करे, उसे बड़े प्यार से निपटा भी देती है। अपनी हार को ही अपनी जीत मानती है। बार-बार हार से सबक भी नहीं सीखना चाहती। एक आभामंडल अपने आसपास बना लिया है इस सरकार ने, जो इस कैद से निकलना ही नहंीं चाहती। भ्रष्ट लोग सरकार चला रहे हैं। बलात्कारियों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए कड़े कानून का सहारा लेने की बात तो करती है, पर फांसी का नाम तक नहीं लेती। उस संसद से क्या अपेक्षा की जाए, जिसमें 6 बलात्कारी सांसद हों। लोगों का आक्रोश ऐसे ही नहीं उमड़ पड़ा है। इसके लिए एक अंतहीन पीड़ा से गुजरती रही है, यह युवा पीढ़ी। कई मामले ऐसे हुए हैं, जिसमें बलात्कारी लम्बे चले मामले के कारण बेदाग बरी हो गए हैं। इस दौरान पीडि़ता को कितने कष्ट झेलने पड़े हैं, यह बलात्कारियों को संरक्षण देने वाली सरकार समझना नहीं चाहती।
बात आती है कि किस तरह से आखिर नारी अपनी रक्षा करे। सरकार से आशा बेकार है, इसलिए अब समय आ गया है कि हम ही कुछ करें। समय की मांग है कि हमें अपना व्यवहार बदलना होगा। दिल्ली की घटना को देखते हुए देश भर में एक तरह से आक्रोश का ज्वालामुखी फूट पड़ा है। ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए तरह-तरह के उपायों की जानकारी दी जा रही है। कही केंडल मार्च निकल रहा है, तो कहीं राष्ट्रपति भवन घेरा जा रहा है। कोई फास्ट ट्रेक कोर्ट की मांग कर रहा है, तो कोई दुष्कर्म करने वालों को फांसी की सजा देने की मांग कर रहा है। इन सारी मांगों को यदि मान भी लिया जाए, तो भी इसके अमल में एक लम्बा समय लगेगा। इसके बजाए यदि इस दिशा में सामाजिक स्तर पर ही कुछ किया जाए, तो वह बहुत ही जल्द अच्छे परिणाम सामने लाएगा। नीचे कुछ उपायों का जिक्र किया जा रहा है। इससे कुछ तो परिवर्तन आएगा, ऐसी आशा की जा सकती है।
हमें ही कुछ करना होगा
नारी की सुरक्षा करने की जवाबदारी मुख्य रूप से समाज की है। पुलिस तंत्र से देश की तमाम नारियों की सुरक्षा नहीं हो सकती। यह सच है। बाल अवस्था में एक बालिका की रक्षा करने की जिम्मेदारी उसके पिता की है। युवावस्था में महिला की रक्षा उसके पति को करनी चाहिए और वृद्धावस्था में नारी की रक्षा उनके पुत्रों को करनी चाहिए। यह तय हो जाना चाहिए कि घर की कोई भी महिला अपने स्वजनों के साथ ही निकले। किसी भी रूप में अकेले घर से निकले ही नहीं। नारी सम्मान क्या होता है, इसकी शिक्षा पुरुषों को दी जाए। उनके सामने माता और बहन का उदाहरण देकर यह बताया जाए कि इनकी रक्षा करना हमारा कर्तव्य है, तो समाज की अन्य नारियों की रक्षा करना हमारा कर्तव्य होना चाहिए। यदि बालपन से ही नारी की रक्षा की शिक्षा मिलेगी, तो नारियों को एक भोग्या के रूप में देखने के नजरिए में बदलाव आएगा। आज जो कुछ हो रहा है, वह नारियों के प्रति आदर भाव न होने के कारण हो रहा है। नारी किसी भी रूप मे भोग्या नहीं है। आज इसी मानसिकता की जंजीरों को तोडऩा है। जब तक समाज में नारी के प्रति सम्मान का भाव नहीं जागेगा, तब तक नारी हर जगह असुरक्षित है। आज मीडिया में नारी को इस तरह से प्रदर्शित किया जाता है, जिससे पुरुष वर्ग उसे केवल भोग्या के रूप में ही देखता है। एक तरह से नारी कैमरे के सामने पुरुष को उत्तेजित करने के लिए ही आती है। भले ही वह अभिनय कर रही हो, या फिर किसी उत्पाद का विज्ञापन कर रही हो। इन प्रचार माध्यमों ने नारी की छवि ही ऐसी बना दी है कि पुरुष उसे भोग्या के सिवाय कुछ मानना ही नहीं चाहता। तो ऐसे प्रचार माध्यमों पर अंकुश लगाने की दिशा में प्रयास होने चाहिए। मॉडलिंग जैसे व्यवसाय पर तो तुरंत ही प्रतिबंध लगना चाहिए।
मानव शरीर शाकाहारी है। लेकिन आजकल शराब, मांसाहार जैसी तामसी प्रवृत्तियों को जन्म देने वाले पदार्थों का प्रचलन बढ़ा है। इससे पुरुषों की वासना बेकाबू होने लगी है। फास्ट फूड और जंक फूड ने इसमें अपनी विशेष भूमिका निभाई है। विद्याथियों को बचपन से ही शाकाहार की ओर रुझान बढ़ाने की दिशा में काम होना चाहिए। आचार-विहार में संयम का पाठ शामिल होने से नारी के प्रति हमारे दृष्टिकोण में परिवर्तन आएगा। योग, ध्यान शिविर आदि से भी मन की भावनाओं को काबू में किया जा सकता है। इस दिशा में नारी को सबसे पहले सजग होना होगा कि वह किसी भी पुरुष से एकांत मे ंन मिले। फिर चाहे वह अपने पुरुष मित्र के साथ कहंी भी हो, ऑफिस में बाँस के साथ हो, एकांत विजातियों को अक्सर गलत काम के लिए प्रेरित करता है, यह बात हर नारी को समझ लेनी चाहिए। एकांत और अंधेरा ऐसे कारक हैं, जहां पुरुष अपने को काबू में नहीं रख सकता। दिल्ली की घटना रात में हुई है। इस तरह से नारी को यह समझ लेना चाहिए कि जो काम पुरुष दिन के उजाले में करने से घबराता है, उसी काम को वह रात के अंधेरे में कर गुजरता है। रात में पुरुष तो बाहर निकल सकते हैं, पर नारी का निकलना मुश्किल है, क्योंकि वह कई मामलों में पुरुषों से संघर्ष नहीं कर सकती। यदि किसी नारी के साथ रात में कुछ होता है, तो वह उसका विरोध करती है, पर उसके समर्थन में महिलाएं नहीं आती, वहां पुरुषों का ही जमावड़ा होता है। मानो रात का अंधेरा पुरुषों के लिए ही हो। पुरुषों की काम वासना को उभारने में नारी के वस्त्र महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। प्रचार माध्यमों में इसका वीभत्स रूप आज भी देखा जा सकता है। कम वस्त्रों में नारी को देखकर पुरुष की सुसुप्त वासनाएं जाग उठती हैं। उस समय यदि महिला अकेली है, तो फिर उसके साथ छेड़छाड़ होना आम बात है। यदि इससे आगे बढ़कर उसके साथ कुछ और हो जाए, तो उसके लिए उसके झीने, तंग कपड़े ही दोषी माने जाएंगे। फैशन के चक्कर में आजकल महिलाएं पुरुषों को उत्तेजित करने वाले कपड़े पहनने में संकोच नहीं करतीं।
सरकार को यह करना होगा
उक्त उपाय समाज को करने चाहिए, पर सरकार को क्या करना चाहिए, यह बात भी हमें ही समझनी होगी। आज अत्याचारियों को कानून का भय नहीं है। कानून इतने कड़े होने चाहिए कि अपराध करने के पहले अपराधी कुछ सोचे। इस समय बलात्कारियों के लिए उम्रकैद का प्रावधान है, किंतु हमारी सड़ी-गली न्याय व्यवस्था के कारण अपराधियों को ेजल्द सजा नहीं मिल पाती। इसलिए उसकी हिम्मत बढ़ जाती है। सरकार को अब यह समझ लेना चाहिए कि हत्या और बलात्कार के मामले में खाप पंचायतें जो फैसले करती हैं, वह गलत नहीं है। एक बलात्कारी को यदि सरे आम कोई सजा दी जाती है, तो दूसरे बलात्कारी को इससे सबक मिलना चाहिए, सजा ऐसी होनी चाहिए। इसमें इस बात का विशेष खयाल रखना चाहिए कि आपसी सहमति से बनने वाले संबंधों को इससे परे रखा जाए। पुलिस के एफआईआर में जो रिपोर्ट लिखी जाती है, उसमें यही दर्शाया जाता है कि मामला आपसी सहमति का ही है, पर देख लिए जाने के कारण मामला अनाचार का हो गया है। जब एक नाबालिग अपने प्रेमी के साथ भाग जाती है, तो युवती के पिता द्वारा इसी तरह की रिपोर्ट लिखाई जाती है कि उसकी बेटी के साथ दुष्कर्म हुआ है। इस प्रकार की झूठी रिपोर्ट लिखाने वालो ंपर भी कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए। कई बार यह ब्लैकमेलिंग के कारण भी होता है।
अंत में यही कि प्रसार माध्यमों में इस तरह के मामलों की रिपोर्टिंग में संयम बरतना आवश्यक होता है। टीवी-अखबारों में बलात्कार की खबर को ऐसे परोसा जाता है मानो इसमें महिला का ही योगदान हो। यदि टीवी एवं अखबारों पर बलात्कार की घटनाओं पर प्रतिबंध लगा दिया जाए, तो इस तरह की घटनाओं मे कमी आ सकती है। समाज में बदलाव लाने का काम हमें ही करना है। आज इंडिया गेट पर जो प्रदर्शन कर रहे हैं, क्या उनमें से किसी ने यह नहीं सोचा कि यह जब एक प्रत्याशी पर बलात्कार का आरोप है, तो वह संसद तक कैसे पहुंचा? इसी तरह हत्या के आरोपी भी हमारी संसद की शोभा बढ़ा रहे हैं। जहां ऐसे प्रत्याशी हो, वहां मतदान का विरोध होना चाहिए। व्यवस्था पर दोष देने के पहले यह अवश्य सोचा जाए कि कहीं इसके लिए हम ही तो दोषी नहीं?
डॉ. महेश परिमल
आज राजधानी का इंडिया गेट एक महासंग्राम का रण बन गया है। लोग अपने आक्रोश को शब्द देने के लिए वहां पहुंच रहे हैं। लोग चाहते हैं कि अब बलात्कारियों को कड़ी से कड़ी सजा देने का समय आ गया है। यह सजा फांसी से कम न हो, इसके भी लाखों समर्थक हैं। लाचार सरकार हमेशा की तरह लाचार ही है। एक डरी-सहमी सरकार से अपेक्षा करना बेकार है। एक ऐसी सरकार जो किसी मामले को पूरी शिद्दत के साथ लटकाती है, फिर जब उसका लाभ लेना होता है, तो जल्दबाजी में सब कुछ कर बैठती है। गुजरात चुनाव को देखते हुए कसाब को फांसी दे दी गई। पर अफजल का मामला अभी तक लटक रहा है। सरकार ही इन्हीं कारगुजारियों और नाकारापन के कारण लोग अब सड़कों पर उतर रहे हैं। लोगों का आक्रोश अब पहले से अधिक मुखर होने लगा है। इसके लिए लोग अब कानून हाथ में लेने से नहीं हिचक रहे हैं। सरकार पूरी तरह से नाकाम। वह तो आंदोलनकारियों को असामाजिक तत्व बताने से नहीं चूक रही है। हमारी न्याय प्रणाली को सशक्त बनाने के लिए जितने प्रयास हुए, वे नाकाफी थे, यह इंडिया गेट पर हुए प्रदर्शन से स्पष्ट हो जाता है।
एक डरी-सहमी सरकार कुछ नहीं कर सकती। करना चाहे भी तो नहीं कर सकती। वह अफजल के मामले को वोट के खातिर लटकाए रख सकती है। दूसरी ओर उसी वोट के खातिर कसाब को जल्दबाजी में फांसी दे सकती है। अपने हीं मंत्रियों को भ्रष्ट कहने में हिचकती है। पहले उन्हें लूट के लिए खुली छूट देती है, फिर जब वह कानून के शिंकजे में आ जाए, तो अपना पल्ला झाड़ लेती है। अपनी ही विश्वसनीय संस्था के आंकड़ों को गलत बताती है। जो सरकार के फैसलों का समर्थन करें, उन्हें उबार लेती है, जो उसका विरोध करे, उसे बड़े प्यार से निपटा भी देती है। अपनी हार को ही अपनी जीत मानती है। बार-बार हार से सबक भी नहीं सीखना चाहती। एक आभामंडल अपने आसपास बना लिया है इस सरकार ने, जो इस कैद से निकलना ही नहंीं चाहती। भ्रष्ट लोग सरकार चला रहे हैं। बलात्कारियों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए कड़े कानून का सहारा लेने की बात तो करती है, पर फांसी का नाम तक नहीं लेती। उस संसद से क्या अपेक्षा की जाए, जिसमें 6 बलात्कारी सांसद हों। लोगों का आक्रोश ऐसे ही नहीं उमड़ पड़ा है। इसके लिए एक अंतहीन पीड़ा से गुजरती रही है, यह युवा पीढ़ी। कई मामले ऐसे हुए हैं, जिसमें बलात्कारी लम्बे चले मामले के कारण बेदाग बरी हो गए हैं। इस दौरान पीडि़ता को कितने कष्ट झेलने पड़े हैं, यह बलात्कारियों को संरक्षण देने वाली सरकार समझना नहीं चाहती।
बात आती है कि किस तरह से आखिर नारी अपनी रक्षा करे। सरकार से आशा बेकार है, इसलिए अब समय आ गया है कि हम ही कुछ करें। समय की मांग है कि हमें अपना व्यवहार बदलना होगा। दिल्ली की घटना को देखते हुए देश भर में एक तरह से आक्रोश का ज्वालामुखी फूट पड़ा है। ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए तरह-तरह के उपायों की जानकारी दी जा रही है। कही केंडल मार्च निकल रहा है, तो कहीं राष्ट्रपति भवन घेरा जा रहा है। कोई फास्ट ट्रेक कोर्ट की मांग कर रहा है, तो कोई दुष्कर्म करने वालों को फांसी की सजा देने की मांग कर रहा है। इन सारी मांगों को यदि मान भी लिया जाए, तो भी इसके अमल में एक लम्बा समय लगेगा। इसके बजाए यदि इस दिशा में सामाजिक स्तर पर ही कुछ किया जाए, तो वह बहुत ही जल्द अच्छे परिणाम सामने लाएगा। नीचे कुछ उपायों का जिक्र किया जा रहा है। इससे कुछ तो परिवर्तन आएगा, ऐसी आशा की जा सकती है।
हमें ही कुछ करना होगा
नारी की सुरक्षा करने की जवाबदारी मुख्य रूप से समाज की है। पुलिस तंत्र से देश की तमाम नारियों की सुरक्षा नहीं हो सकती। यह सच है। बाल अवस्था में एक बालिका की रक्षा करने की जिम्मेदारी उसके पिता की है। युवावस्था में महिला की रक्षा उसके पति को करनी चाहिए और वृद्धावस्था में नारी की रक्षा उनके पुत्रों को करनी चाहिए। यह तय हो जाना चाहिए कि घर की कोई भी महिला अपने स्वजनों के साथ ही निकले। किसी भी रूप में अकेले घर से निकले ही नहीं। नारी सम्मान क्या होता है, इसकी शिक्षा पुरुषों को दी जाए। उनके सामने माता और बहन का उदाहरण देकर यह बताया जाए कि इनकी रक्षा करना हमारा कर्तव्य है, तो समाज की अन्य नारियों की रक्षा करना हमारा कर्तव्य होना चाहिए। यदि बालपन से ही नारी की रक्षा की शिक्षा मिलेगी, तो नारियों को एक भोग्या के रूप में देखने के नजरिए में बदलाव आएगा। आज जो कुछ हो रहा है, वह नारियों के प्रति आदर भाव न होने के कारण हो रहा है। नारी किसी भी रूप मे भोग्या नहीं है। आज इसी मानसिकता की जंजीरों को तोडऩा है। जब तक समाज में नारी के प्रति सम्मान का भाव नहीं जागेगा, तब तक नारी हर जगह असुरक्षित है। आज मीडिया में नारी को इस तरह से प्रदर्शित किया जाता है, जिससे पुरुष वर्ग उसे केवल भोग्या के रूप में ही देखता है। एक तरह से नारी कैमरे के सामने पुरुष को उत्तेजित करने के लिए ही आती है। भले ही वह अभिनय कर रही हो, या फिर किसी उत्पाद का विज्ञापन कर रही हो। इन प्रचार माध्यमों ने नारी की छवि ही ऐसी बना दी है कि पुरुष उसे भोग्या के सिवाय कुछ मानना ही नहीं चाहता। तो ऐसे प्रचार माध्यमों पर अंकुश लगाने की दिशा में प्रयास होने चाहिए। मॉडलिंग जैसे व्यवसाय पर तो तुरंत ही प्रतिबंध लगना चाहिए।
मानव शरीर शाकाहारी है। लेकिन आजकल शराब, मांसाहार जैसी तामसी प्रवृत्तियों को जन्म देने वाले पदार्थों का प्रचलन बढ़ा है। इससे पुरुषों की वासना बेकाबू होने लगी है। फास्ट फूड और जंक फूड ने इसमें अपनी विशेष भूमिका निभाई है। विद्याथियों को बचपन से ही शाकाहार की ओर रुझान बढ़ाने की दिशा में काम होना चाहिए। आचार-विहार में संयम का पाठ शामिल होने से नारी के प्रति हमारे दृष्टिकोण में परिवर्तन आएगा। योग, ध्यान शिविर आदि से भी मन की भावनाओं को काबू में किया जा सकता है। इस दिशा में नारी को सबसे पहले सजग होना होगा कि वह किसी भी पुरुष से एकांत मे ंन मिले। फिर चाहे वह अपने पुरुष मित्र के साथ कहंी भी हो, ऑफिस में बाँस के साथ हो, एकांत विजातियों को अक्सर गलत काम के लिए प्रेरित करता है, यह बात हर नारी को समझ लेनी चाहिए। एकांत और अंधेरा ऐसे कारक हैं, जहां पुरुष अपने को काबू में नहीं रख सकता। दिल्ली की घटना रात में हुई है। इस तरह से नारी को यह समझ लेना चाहिए कि जो काम पुरुष दिन के उजाले में करने से घबराता है, उसी काम को वह रात के अंधेरे में कर गुजरता है। रात में पुरुष तो बाहर निकल सकते हैं, पर नारी का निकलना मुश्किल है, क्योंकि वह कई मामलों में पुरुषों से संघर्ष नहीं कर सकती। यदि किसी नारी के साथ रात में कुछ होता है, तो वह उसका विरोध करती है, पर उसके समर्थन में महिलाएं नहीं आती, वहां पुरुषों का ही जमावड़ा होता है। मानो रात का अंधेरा पुरुषों के लिए ही हो। पुरुषों की काम वासना को उभारने में नारी के वस्त्र महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। प्रचार माध्यमों में इसका वीभत्स रूप आज भी देखा जा सकता है। कम वस्त्रों में नारी को देखकर पुरुष की सुसुप्त वासनाएं जाग उठती हैं। उस समय यदि महिला अकेली है, तो फिर उसके साथ छेड़छाड़ होना आम बात है। यदि इससे आगे बढ़कर उसके साथ कुछ और हो जाए, तो उसके लिए उसके झीने, तंग कपड़े ही दोषी माने जाएंगे। फैशन के चक्कर में आजकल महिलाएं पुरुषों को उत्तेजित करने वाले कपड़े पहनने में संकोच नहीं करतीं।
सरकार को यह करना होगा
उक्त उपाय समाज को करने चाहिए, पर सरकार को क्या करना चाहिए, यह बात भी हमें ही समझनी होगी। आज अत्याचारियों को कानून का भय नहीं है। कानून इतने कड़े होने चाहिए कि अपराध करने के पहले अपराधी कुछ सोचे। इस समय बलात्कारियों के लिए उम्रकैद का प्रावधान है, किंतु हमारी सड़ी-गली न्याय व्यवस्था के कारण अपराधियों को ेजल्द सजा नहीं मिल पाती। इसलिए उसकी हिम्मत बढ़ जाती है। सरकार को अब यह समझ लेना चाहिए कि हत्या और बलात्कार के मामले में खाप पंचायतें जो फैसले करती हैं, वह गलत नहीं है। एक बलात्कारी को यदि सरे आम कोई सजा दी जाती है, तो दूसरे बलात्कारी को इससे सबक मिलना चाहिए, सजा ऐसी होनी चाहिए। इसमें इस बात का विशेष खयाल रखना चाहिए कि आपसी सहमति से बनने वाले संबंधों को इससे परे रखा जाए। पुलिस के एफआईआर में जो रिपोर्ट लिखी जाती है, उसमें यही दर्शाया जाता है कि मामला आपसी सहमति का ही है, पर देख लिए जाने के कारण मामला अनाचार का हो गया है। जब एक नाबालिग अपने प्रेमी के साथ भाग जाती है, तो युवती के पिता द्वारा इसी तरह की रिपोर्ट लिखाई जाती है कि उसकी बेटी के साथ दुष्कर्म हुआ है। इस प्रकार की झूठी रिपोर्ट लिखाने वालो ंपर भी कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए। कई बार यह ब्लैकमेलिंग के कारण भी होता है।
अंत में यही कि प्रसार माध्यमों में इस तरह के मामलों की रिपोर्टिंग में संयम बरतना आवश्यक होता है। टीवी-अखबारों में बलात्कार की खबर को ऐसे परोसा जाता है मानो इसमें महिला का ही योगदान हो। यदि टीवी एवं अखबारों पर बलात्कार की घटनाओं पर प्रतिबंध लगा दिया जाए, तो इस तरह की घटनाओं मे कमी आ सकती है। समाज में बदलाव लाने का काम हमें ही करना है। आज इंडिया गेट पर जो प्रदर्शन कर रहे हैं, क्या उनमें से किसी ने यह नहीं सोचा कि यह जब एक प्रत्याशी पर बलात्कार का आरोप है, तो वह संसद तक कैसे पहुंचा? इसी तरह हत्या के आरोपी भी हमारी संसद की शोभा बढ़ा रहे हैं। जहां ऐसे प्रत्याशी हो, वहां मतदान का विरोध होना चाहिए। व्यवस्था पर दोष देने के पहले यह अवश्य सोचा जाए कि कहीं इसके लिए हम ही तो दोषी नहीं?
डॉ. महेश परिमल