शनिवार, 9 फ़रवरी 2008

घर-ऑफिस का पर्यावरण अधिक खतरनाक


 डॉ. महेश परिमल
आजकल लोग पर्यावरण की बात कर रहे हैं, वैज्ञानिक हमेशा मानव जाति को इस बात के लिए आगाह कर रहे हैं कि पर्यावरण को यदि षुध्द नहीं रखा गया, तो संपूर्ण मानव जाति खतरे में पड़ जाएगी। पर्यावरण की रक्षा के लिए सरकार भी करोड़ों रुपए खर्च कर रही है। जागरूक पालक बच्चों को षुरू से ही पर्यावरण की रक्षा का पाठ पढ़ा रहे हैं। अखबारों और टीवी पर भी इस आषय की ज्ञान की बातें हमेषा प्रकाषित-प्रसारित होती रहती हैं। हर कोई आज बाहर के बिगड़ते पर्यावरण के लिए चिंतित है, पर घर और ऑफिस में पसरने वाले पर्यावरण की चिंता किसी को नहीं है। आपका सोचना सही हो सकता है कि घर के अंदर किस तरह से पर्यावरण बिगड़ रहा है? तो आइए, जानें कि आज घर का ही पर्यावरण ही खतरे में है:-
घर में तीन साल का मासूम अक्सर बीमार रहता था, काफी दवाएँ कराई, पर कोई फायदा नहीं हो रहा था। हारकर एक दिन बच्चे के दादा अपने एक मित्र और अनुभवी चिकित्सक के पास बच्चे को ले गए। डॉक्टर ने बच्चे की जाँच की और छोटी से छोटी जानकारी ली। डॉक्टर के कई प्रष्न ऐसे थे, जिससे बूढ़ा व्यक्ति परेषान हो गया। पूरी तरह से संतुष्ट होकर उसने अपने मित्र से कहा कि बच्चे की बीमारी के लिए कोई और नहीं, बल्कि तुम ही दोष्ाी हो। बुजुर्ग अवाक् रह गया। डॉक्टर ने बच्चे की जाँच में पाया कि उसके फेफड़े में काफी धुऑं भर गया था। अब वह मासूम तो धूम्रपान करने से रहा। फिर उसके फेफड़े में धुऑं आया कहाँ से? अब जो मैं कह रहा हूँ, उसे ध्यान से सुनें। होता यह था कि माता-पिता कामकाजी होने के कारण वे सुबह ही ऑफिस चले जाते थे, बच्चे को उसके दादा-दादी के हवाले कर जाते। अब दादा दिन भर बीड़ी या सिगरेट फूँकते रहते, इसकी गंध को दूर करने के लिए दादी दिन भर घर में सुगंधित अगरबत्ती जलाती रहती। उसी तरह रात को मच्छर भगाने के लिए क्वायल का इस्तेमाल किया जाता। इस तरह से बच्चे के आसपास 24 घंटे ही धुएँ वाला वातावरण रहता। यह एक दूसरे ही प्रकार का प्रदूष्ाण था, जिसमें बच्चा साँस ले रहा था। इससे बच्चे के फेफड़े में धुऑं भर गया। माता-पिता को इसकी जानकारी थी, पर दादा की पेंषन घर में आती थी, इसलिए वे कुछ कह नहीं पाते थे, और कभी-कभी तो इस बात को समझते हुए भी अनजान बन जाते या अनदेखा कर जाते।

एक और किस्सा :- एक साहब को अपना ऑफिस बिलकुल साफ-सुथरा रखने की आदत थी। यह एक अच्छी आदत है, ऐसा तो होना ही चाहिए। पर उनकी यह आदत ऑफिस के लोगों के लिए परेषानी का कारण बन गई। होता यह था कि साहब ने ऑफिस में बाहर से आने वाली हवा के सारे रास्ते बंद कर दिए। पूरे ऑफिस को ठंडा रखने के लिए एसी और रुम फ्रेषनर की व्यवस्था कर दी। इससे ऑफिस ठंडा और सुगंधित हो तो गया, पर एक महीने में ही सारे कर्मचारियों के चेहरे फिक्के पड़ गए। जो लोग पहले हर काम फुर्ती से करते थे, वही कर्मचारी अब और आलसी हो गए। काम प्रभावित होने लगा। ऑफिस के बॉस परेषान। क्या हो रहा है, कर्मचारियों को डाँटने-डपटने का भी कोई असर नहीं हो रहा था। हारकर बॉस ने अपने एक डॉक्टर मित्र से इसकी चर्चा की। डॉक्टर ने कार्यालय का निरीक्षण कर बॉस को सलाह दी थी, सबसे पहले तो इस रुम-फ्रेषनर को अलविदा कह दो और कार्यालय मे बाहर से हवा आने का प्रबंध करो। डॉक्टर ने अपने मित्र से कहा कि प्रकृति से दूर होकर हम कभी भी सुखी नहीं रह सकते। मानसिक रूप से यदि सुखी रहना है, तो प्रकृति से जुड़ना सीखो। बॉस ने मित्र की सलाह मानी और कुछ ही दिनों बाद इसके सकारात्मक परिणाम सामने आए।
ऐसे ही न जाने कितनी समस्याए¡ सामने आती हैं, जिसका हम समझदारी के साथ मुकाबला कर सकते हैं। अब जैसे कि आपको अपने घर में पुताई करवानी है, स्वजन कहते हैं कि पुराना रंग निकाल कर ही दूसरा रंग करवाओ। कारीगर इस काम में लग जाता है, उस वक्त सारा परिवार अस्त-व्यस्त हो जाता है। इस दौरान पुराना रंग दीवार से निकाला जाने लगता है। पुराना रंग निकलते हुए एक विषेष प्रकार रसायन लेड छोड़ता है। जो आपकी साँसों के माध्यम से षरीर के भीतर पहुँचकर नुकसान पहुँचाता है और हमें बीमार बनाता है। कई लोग अपने घर में तापमान नापने के लिए थर्मामीटर रखते हैं, यह भी एक आवष्यक वस्तु है। इसे रखना बुरा नहीं है, पर यदि यह आवष्यक वस्तु कहीं ऐसे स्थान पर रख दी गई हो, जहाँ बच्चों का हाथ आसानी से पहुँच जाता हो, तो वह खतरनाक साबित हो सकता है। यदि धोखे से बच्चे के हाथ से थर्मामीटर जमीन पर गिर गया, तो उसमें भरा हुआ पारा प्राणलेवा साबित हो सकता है। ऐसे ही कई लोग अपने घर को पूरी तरह से बंद रखते हैं। कई लोग तो इस तरह के घर बनाने भी लगे हैं, पर इस तरह के घर मानव को प्रकृति से पूरी तरह से दूर कर देते हैं। बाहर की प्रदूषित हवा से बचने के लिए जो लोग अपने घर बंद रखकर अन्य संसाधनों से हवा लेते हैं, वे यह भूल जाते हैं कि वे बाहर की हवा के रास्तों को रोककर सबसे बड़ी भूल कर रहे हैं। इस तरह से एयरटाइट मकानों में रहना थोड़ी देर के लिए भले ही अच्छा लगता हो, पर सच तो यही है कि इस तरह की अप्राकृतिक हवा हमारे ही षरीर को नुकसान पहुँचा रही है।
अल्कोहल पर आधारित विदेषी परफ्यूम, एयर फ्रेषनर, मसाले से भरी अगरबत्ती, मच्छरमार अगरबत्ती, जीव-जंतुओं को मारने वाली तमाम दवाएँ, हेयर स्पे फर्नीचर पर लगाए जाने वाला पॉलिष और पुताई के दौरान इस्तेमाल किया जाने वाला टर्पेटाइन, ये सब अब कृत्रिम रसायनों से बनने लगे हैं। इससे षरीर को काफी नुकसान हो रहा है, पर इसे हम अभी समझने के लिए तैयार नहीं हैं। भविष्य में निष्चित रूप से ये हमें अपना असर दिखाएँगे, यह तय है।
कभी गाँव जाने पर वहाँ हम देखते हैं कि मच्छरों को भगाने के लिए नीम के सूखे पत्तों को जलाया जाता है, इसी तरह पूजा करने के लिए गुगल और लोभान का धुऑं किया जाता है, ये चीजें जलने के बाद भी षरीर को नुकसान नहीं पहुँचाती, बल्कि पर्यावरण को भी स्वच्छ करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसी तरह घर में तुलसी का पौधा भी पर्यावरण को साफ रखने में सहायक होते हैं। अब तो बढ़ते कांक्रीट के जंगलों के बीच न तो नीम का पेड़ कहीं दिखाई देता है और न ही लोभान और गुगल वाली अगरबत्ती। बेचारा तुलसी का पवित्र पौधा भी ऑंगन में या घर की गैलेरी में एक गमले में पड़ा अपने आपको बचाने की कोषिष में लगा रहता है।
आपको यदि धूम्रपान का षौक है, तो आप अनजाने में घर के सदस्यों के स्वास्थ्य के लिए खतरा पैदा कर रहे हैं। आपको घर में कार्पेट रखने का षौक है, तो एक निष्चित समय बाद उसे ड्राइक्लिनिंग के लिए तो देते ही होंगे, साफ-सुथरा होने के बाद घर में आने वाले कार्पेट को देखकर आप रोमांचित भी होते होंगे, पर आप षायद यह भूल जाते हैं कि कार्पेट के ड्रायक्लिनिंग में जिस पर-क्लोरोथायलीन नामक रसायन का इस्तेमाल हुआ है, वह षरीर के लिए कितना हानिकारक है। आपके ये षौक केवल आपके लिए ही नहीं, घर के अन्य सदस्यों के स्वास्थ्य पर भी नुकसानदायक प्रभाव छोड़ते हैं।
इसके अलावा घर में ही होने वाले ध्वनि प्रदूषण की तरफ हमारा ध्यान नहीं जा रहा है। कभी हमारा ही टीवी इतना तेज होता है कि घर के सदस्य ही नहीं, बल्कि पास-पड़ोस के लोग भी परेषान हो जाते हैं। ये हल्का ध्वनि-प्रदूषण है, जो अभी तो नहीं, पर भविष्य में निष्चित ही हमारी संतानों को प्रभावित करेगा। षोर की यही स्थिति रही, तो आज हम भले ही अपनी संतानों की आवाज सुन रहे हों, पर यह तय है कि हमारी संतान अपनी संतानों की आवाज नहीं सुन पाएगी। केवल टीवी ही नहीें आजकल तो डीजे जैसे कानफाड़ षोर करने वाले संसाधन आ गए हैं, जिस पर आज के युवा थिरक रहे हैं। अधिक षोर इन्हें इतना भा गया है कि आज ये धीरे से कहे जाने वाले वाक्यों को अच्छी तरह से नहीं सुन पाते। इनके सामने जोर से ही कहना पड़ता है, याने ये पीढ़ी ऊँचा सुन रही है।
कई लोग प्रवास के दौरान सुगंधित टिष्यू पेपर का इस्तेमाल करते हैं, तो वे जान लें कि उसमें खुष्बू के लिए सिंथेटिक रसायन का उपयोग किया जाता है। ये रसायन भी षरीर के लिए हानिकारक है। हमारे बीच कई लोग ऐसे भी हैं, जिन्हें कुछ खुष्बुओं से एलर्जी होती है। इसका कारण यही है कि उन्हें ष्वसनतंत्र या फिर फेफड़ों में तकलीफ है। कृत्रिम सुगंध ही षरीर पर दूरगामी असर डालती है। प्रकृति प्रदत्त सुगंध कुछ और ही होती है। विदेषी परफ्यूम जहाँ अल्कोहल के साथ कृत्रिम रसायनों से बनते हैं, वहीं भारतीय इत्र चंदन के तेल और विविध प्रकार के फूलों के अर्क से बनते हैं। इसकी सुगंध का तो जवाब ही नहीं है। इस सुगंध से किसी को भी एलर्जी नहीं हो सकती। ऐसा मानना है द एनर्जी रिसर्च इंस्टीटयूट (ज्म्त्प्) के वैज्ञानिकों का। ये वैज्ञानिक यह भी कहते हैं कि आज हमारे देष में पर्यावरण को लेकर काफी जागरूकता आ गई है और इस दिषा में काफी काम भी हो रहा है। लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि हमें इनडोर पॉलुषन पर भी ध्यान देना होगा। अभी इसे बहुत ही कम लोग समझ पा रहे हैं। अभी इस दिषा में बहुत कुछ करना है। तभी लोग समझ पाएँगे, घर में होने वाले प्रदूषण् को। बाहर के पर्यावरण को सुधारने के लिए पेड़-पौधे हैं, पर घर के पर्यावरण को सुधारने के लिए केवल मानव ही है, जो इस काम को कर सकता है।
 डॉ. महेश परिमल

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