शुक्रवार, 17 जनवरी 2014

समय के साथ हुआ चुनाव प्रचार भी हाइटेक

डॉ. महेश परिमल
पहले चुनाव आते ही शहर की गलियों में लिखा हुआ मिल जाता था कि आपके क्षेत्र से अमुक व्यक्ति अमुक पार्टी से प्रत्याशी हैं, आप उन्हें वोट दें। उसी के बाजू में उससे भी बड़े अक्षरों में प्रतिद्वंद्वी पार्टी के प्रत्याशी के बारे में लिखा हुआ था। यह प्रचार य़द्ध गलियों से शुरू होकर आम सभाओं के आयोजन से होते हुए कानफाड़ शोर पर खत्म होता था। मतदान के एक दिन पहले लोग राहत की सांस लेते थे। लेकिन इस बार पूरी फजां ही बदली हुई थी। न तो गलियां रंगी गई,  न आम सभा और न ही कानफाड़ शोर से लोगों को जूझना पड़ा। समय अपनी गति पर चलता रहा। इस बीच चुनाव में नए-नए हथकंडे अपनाए जाने लगे। लोगों को घर-बैठे ही जानकारी मिल जाती थी कि किस क्षेत्र से किस दल का प्रत्याशी अपना भाग्य आजमा रहा है। अब तो लोग प्रत्याशी का पूरा जीवन वृत्त घर बैठे निकाल लेते हैं। इसलिए यह कहा जा सकता है कि अब चुनाव भी हाइटेक होने लगे हैं। यह सब इसलिए हो रहा है कि अब समय बदल रहा है। इसलिए चुनाव प्रचार के तरीके भी बदल रहे हैं। वैसे भी लोग परंपरागत दलों से बोर हो गए थे। इन सारे दलों की एक्सपायरी डेट निकल चुकी है। फिर भी जमे हुए हैं, इसलिए जनता ने बदलाव को ध्यान में रखकर इस बार दिल्ली में एक महान परिवर्तन किया है। उसे अब नहीं चाहिए ऐशो आराम में पलने वाले नेता। उसे तो चाहिए अपने ही बीच को कोई आदमी, जो हमारी समस्याओं को समझे और उसे दूर करे। बस जनता यही तो चाहती है, जो अब तक अंगद के पांव की तरह जमे दल नहीं कर पा रहे हैं, उसे नए-नए आए लोग दूर करने में लगे हैं। फिर भी लोग उन्हें काम करने नहीं दे रहे हैं। अब यही कहा जा सकता है कि नए परिंदों को उड़ने में वक्त तो लगता है।
राजनीति में बदलाव के दावे के साथ दिल्ली जैसी प्रतिष्ठित राज्य की सत्ता पर ‘आप’ काबिज हो गई। यह पार्टी आखिर कब तक राजनीति में बदलाव कर पाएगी, यह तो समय बताएगा। परन्तु अभी तो यह स्वीकारना ही होगा कि यह पार्टी शिक्षित और गेरअनुभवी लोगों की पार्टी है। इसके कार्यकर्ता पार्टी के प्रति इतने अधिक समर्पित हैं कि इन्होंने दिल्ली में अन्य दलों के पेशेवर राजनीतिज्ञों पर भी भारी पड़े। सोशल मीडिया, मोबाइल एप्लीकेशन, चेट साइट्स  का इस चुनाव में व्यापक इस्तेमाल किया गया। इसका उपयोग असरकारक सिद्ध हुआ। इसके बाद अब लोकसभा चुनाव में ‘आप’ अपने इसी अनुभव का भरपूर उपयोग करेगी। इसके उपयोग से कम से कम समय में प्रजा को अपनी सही स्थिति बता दी जाती है। यही नहीं, इसके द्वारा प्रजा के विचारों को भी जानने का मौका मिल जाता है। ‘आप’ को सत्ता में पहुंचाने में सबसे बड़ी मददगार उनकी सादगी ही रही है। पर इसी सादगी का भूत धीरे-धीरे उतर रहा है। ऐसा माना जा रहा है। आए दिनों ‘आप’ में जो कुछ भी हो रहा है, उससे यही साबित होता है कि इसे भी अन्य पार्टियों का रंग चढ़ जाएगा। फिर भी इस पर अन्य दलों की अपेक्षा अधिक विश्वास किया जा सकता है। आज अरविंद केजरीवाल के पास अपना एक साधारण चेहरा है। इके अलावा स्ट्रेटेजी मेकिंग थिंक टैंक भी है। इसी थिंक टैंक द्वारा बताए गए रास्ते पर चलकर ‘आप’ अपना तंत्र स्थापित कर रही है।
अरविंद केजरीवाल मूल रूप से नए-नए आइडिया वाले व्यक्ति हैं। उनके पास कई आइडिए हैं। जनलोकपाल आंदोलन से ही केजरीवाल अपने मुद्दों को जनता के सामने ले जाने में कम्युनिकेशन के माहिर खिलाड़ी साबित हुए हैं। केजरीवाल को इस तरह के मुद्दे बताने वाले उनके अभिन्न सहयोगी योगेंद्र यादव हैं। जो इन मुद्दों का पूरी तरह से अध्ययन कर उनका डाटा तैयार करते हैं। नब्बे के दशक में भारत में पहली बार चुनाव शास्त्र के लिए सेफोलॉजी शब्द का इस्तेमाल हुआ। इस शब्द के प्रणोता हैं योगेंद्र यादव। जानकारी और उसके विश्लेषण में माहिर यादव के डेटा लोगों पर सीधी असर करते हैं। इन मुद्दाओं पर विविध राजनैतिक दल क्या सोचते हैं, इस पर उनके क्या विचार हैं, इसकी पूरी जानकारी जुटाते हैं, इस पर क्या-क्या कानूनी पेचीदगियां आ सकती हैं, उसके बारे में प्रशांत भूषण अपनी तैयारी करते हैं। इसके बाद सब मिलकर सामूहिक रूप से रणनीति तय करते हैं। इसके बाद एक तयशुदा लोकमत को जगाने के लिए आम आदमी पार्टी का प्रचार तंत्र काम पर लग जाता है। आधुनिक संसाधनों के माध्यम से प्रचार तंत्र का काम संभालते हैं अंकित लाल। आईटी इंजीनियर अंकित 27 साल के हैं। पिछले चार वर्षो से केजरीवाल के साथ काम करते हुए अब वे राजनीति में इतने पारंगत हो चुके हैं कि राजनीति के किसी भी दिग्गज के साथ राष्ट्रीय समस्या पर विचार-विमर्श कर सकते हैं। दिल्ली विधानसभा के चुनाव में प्रचारतंत्र की सफलता के बाद आगामी लोकसभा चुनाव के लिए प्रचार की जवाबदारी अंकित लाल को ही सौंपी गई है। दिल्ली स्थित आम आदमी पार्टी की आफिस में एक छोटा सा कमरा है, जो अंकित का कंट्रोल रूम है। इस कथित कंट्रोल रूम में चारों तरफ तारों का संजाल बिखरा पड़ा है। एक बेंच पर 15 लेपटॉप, 6-7 टेबलेट और इतने ही मोबाइल का जमावड़ा है। हर कोना केबल के वायरों से सराबोर है। यूएसबी पोर्ट जहां-तहां बिखरे पड़े हैं। 22 से 25 वर्ष के युवा इन यंत्रों में दिन-रात काम करते रहते हैं। या कहें सारी स्थितियों से अपडेट होते रहते हैं। यदि आम आदमी पार्टी को पूरे देश में पहचान मिली है,तो इसी कंट्रोल रूम में काम करने वाले युवाओं की बदौलत। केवल दिल्ली ही नहीं, बल्कि देश के कोने-कोने  पर इसी माध्यम से पार्टी का हाइटेक प्रचार किया जा रहा है। आज आम आदमी सुदूर गांवों तक अपनी पहुंच बनाने का श्रेय इन्हीं युवाओं को दिया जा सकता है। आज यही युवा अब बड़े कैनवास के साथ लोकसभा चुनाव की तैयारी में है, ताकि गांव-गांव के मतदाताओं को अपनी सादगी से रिझाया जा सके।
लोकसभा चुनाव सुदूर गांव तक लड़े जाते हैं, यह सच है, पर इंटरनेट का व्यापक इस्तेमाल लगातार बढ़ रहा है, इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता। इस समय करीब 7 करोड़ भारतीय इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहे हैं। इसमें हर माह पौने दो प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हो रही है। इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाले भारतीयों में से 77 प्रतिशत मेट्रो, मेगा सिटी और बी क्लास टाउन हैं। 14 प्रतिशत लोग सी क्लास विलिजेस और 9 प्रतिशत उपयोगकर्ता सुदूर गांवा के लोग हैं। इंटरनेट का उपयोग करने वालों में से से 25 प्रतिशत फेसबुक जैसे सोशल मीडिया के साथ और 21 प्रतिशत वाट्सअप, बीबीएम जैसी चेट एप्लीकेशन्स के साथ जुड़े हैं। चेट एप्लीकेशन्स इतनी तेजी से पसर रहा है कि आगामी कुछ ही महीनों में यह फेसबुक दूसरे नम्बर पर आ जाएगा। चुनाव प्रचार का सीधा सा अर्थ यही है कि लोगों से संवाद। आम आदमी पार्टी इस मामले में अन्य दलों की अपेक्षा अधिक आक्रामक है। भाजपा ने भी इस दिशा में कुछ कदम उठाए हैं। नरेंद्र मोदी के प्रचार के लिए एक साथ कई शहरों में आम सभाओं को संबोधित करने की दिशा में काम हुआ है। कांग्रेस इस दिशा में बिलकुल ही फिसड्डी है। इसलिए उसका परिणाम भुगत रही है। वह आज तक जमीन से जुड़ नहीं पाई है। लोकसभा की कुल 542 सीटें हैं। इनमें से महानगर, शहर और अर्ध शहरी क्षेत्रों में 250-260 ही सीटें हैं। मुम्बई, दिल्ली, चेन्नई और कोलकाता इन चार महानगरों की सीटें केवल 23 हैं। इसके अलावा अहमदाबाद, हैदराबाद, बेंगलोर, चंडीगढ़, पुणो, भुवनेश्वर, पटना, जयपुर जैसे शहरों की सीटों की संख्या 41 है। सूरत, राजकोट, नासिक, नागपुर, इंदौर, अमृतसर जैसे शहरों के बाहरी क्षेत्रों की सीटों की संख्या 58 है। यदि पूरे शहरी क्षेत्रों को इसमें समा लिया जाए, तो सीटों की संख्या 100 का आंकड़ा पार करती है।
शहरी मतदाता का रुझान विकास की तरफ ही होता है। शहरी मतदाता जाति-पांति के कारकों से दूर रहते हैं। इंटरनेट और सोशल मीडिया की व्यापकता के कारण अब मतदान के प्रति लोगों का रुझान बढ़ता दिखाई दे रहा है। अभी तक का सिनेरियो यह था कि शहरी मध्यम वर्ग, शिक्षित युवाओं और महिलाओं का अधिकांश भाग का झुकाव भाजपा की ओर था। पर आम आदमी पार्टी के उदय उसकी कार्यशैली से लोगों का रुझान इस पार्टी की ओर बढ़ा है। अभी एक सर्वेक्षण में भी कहा गया है कि इस बार लोकसभा चुनाव में कांग्रेस बुरी तरह से हारेगी। ‘आप’ सभी दलों पर हावी रहेगी। वह अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाएगी। अब तक यह माना जा रहा था कि उत्तर प्रदेश, ओडिशा,बिहार जैसे राज्य ही प्रधानमंत्री तय करते हैं। अब यह स्थिति भी बदल रही है। दिल्ली जैसे महत्वपूर्ण राज्य पर काबिज होकर ‘आप’ ने यह बता दिया है कि लोग अब उसे नजरअंदाज नहीं कर पाएंगे। इसलिए वह भी कमर कसकर लोकसभा चुनाव में अपने तेवर दिखाएगी।
कांग्रेस 17 जनवरी की बैठक में  राहुल गांधी को देश के भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश कर सकती है। भाजपा ने पहले ही अपना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को घोषित कर ही दिया है। देश का प्रधानमंत्री कौन होगा, इस पर कांग्रेस में ही थोड़ा सा विवाद है। कई लोग पहले से नाम घोषित नहीं करने के पक्ष में हैं। कई लोग चाहते हैं कि यदि प्रधानमंत्री घोषित कर दिया जाए, तो वोैट मांगने में दिक्कत नहीं आती। पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा ने राजस्थान और मध्यप्रदेश में मोबाइल, इंटरनेट, एप्लीकेशंस जैसे हाइटेक संसाधनों का भरपूर उपयोग किया था। मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह ने थ्री डी के माध्यम से जनसभाओं को संबोधित किया था। इन दोनों राज्यों में मतदाता गुजरात की अपेक्षा कम शिक्षित होने के बाद भी भाजपा का प्रचार यहां शहरी मतदाताओं पर असरकारक साबित हुआ। इस देखते हुए भाजपा लोकसभा चुनाव में भी शहरी युवा मतदाताओं को रिझाने के लिए प्रचार की इन तरकीबों का इस्तेमाल करेगी, यह तय है। अभी तक चुनावी वादे और नारे शहरों की गलियों में लिखे जाते थे। चौक में सभाएं होती थीं। लाल, पीले, गुलाबी कागजों पर नेताओं के भाषण छपे होते थे, जिन्हें बच्चे वितरित करते। पोस्टरों पर हाथ जोड़े नेता अपनी मुस्कराहट के साथ दिखते थे। दिन भर विभिन्न वाहनों पर लाउडस्पीकर से अपने-अपने प्रत्याशियों का प्रचार किया जाता था। लेकिन अब समय बदल गया है। वक्त का तकाजा है कि इसमें भी बदलाव लाया जाए। इसलिए चुनाव प्रचार का तरीका भी हाइटेक होने लगा है। ऐसा समझा जा सकता है कि राजनैतिक दलों की नीयत भी बदल जाएगी। वे भी अब आम आदमी की समस्याओं को समझेंगे और उसके निराकरण की कोशिश करेंगे। ऐसा नहीं कर पाए, तो कई दिग्गत एक बार में ही चुनावी मैदान से उखड़ जाएंगे, यह तय है।
डॉ. महेश परिमल

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