बुधवार, 13 फ़रवरी 2008

एक चिंता बाघ की


- डॉ. महेश परिमल
देश में बाघों की घटती संख्या पर एक बार फिर चिंता की जाने लगी है। बाघ कम हो रहे हैं, यह सच है, पर बाघ कम क्यों हो रहे हैं, इस सच को कोई जानना नहीं चाहता। हमारे देश में बाघ के लिए चिंता होती है, बाघ की चिंता कोई नहीं करता। देश के अभयारण्यों के आसपास आबादी कितनी बढ़ रही है, अभयारण्य सिमटते जा रहे हैं, बाघ को जंगल का वातावरण नहीं मिल रहा है, उनकी प्रजनन शक्ति लगातार क्षीण हो रही है। ये सारी बातें भी तो उनकी संख्या में कमी का कारण है, तो फिर क्यों इस दिशा में गंभीर कदम नहीं उठाए जा रहे हैं।यह अभी की बात नहीं है इसके पहले भी इस तरह की चिंताएं य की जा चुकी है कुछ वष पहले भी बाघॊं की घटती संखया पर अंतरराषटीय सममेलन हॊ चुका हैइसमें विश्व भर के पशुविद् एवं पर्यावरणविद् शामिल हुए. सभी ने एक स्वर में विश्व में बाघ की घटती संख्या पर चिंता व्यक्त की और विश्व की इस धरोहर की रक्षा के लिए जी-जान से जुट जाने का संकल्प लिया, पर इस तरह के संकल्पों से किसी क्रांति की अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए. बाघों की तेजी से कम होती संख्या अन्य देशों को कुछ करने के लिए अवश्य प्रेरित कर सकती है, पर हमारे देश में चिंता के नाम पर एक हल्की-सी जुंबिश भी हो जाए तो बहुत है.
बाघों के महत्व पर प्रसिध्द पर्यावरणविद् जुगनू शारदेय का कहना था कि बाघ हमारी समूची जीवन प्रणाली का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. आज हम सांस ले रहे हैं तो बाघ के कारण, बाघ न होते तो हम अच्छे एवं सुखद जीवन की कल्पना नहीं कर सकते. पूरे विश्व के 60 प्रतिशत बाघ हमारे ही देश में हैं. इस पर भी इनकी संख्या में तेजी से कमी आ रही है. हमारे देश में बाघ कम हो रहे हैं, उसकी चिंता विदेशी कर रहे हैं, पर हमें फुरसत नहीं है कि इस दिशा में थोड़ी-सी भी चिंता करें.
कंक्रीट के जंगल ने वैसे भी जंगलों को हमसे बहुत दूर कर दिया है. जंगल तो अब स्वप्न हो गया है. आज के बच्चों से पूछा जाए तो वे जंगल का अर्थ नहीं समझेंगे. उन्हें जंगल केवल किताबों में या फिर माता-पिता द्वारा सुनाई जाने वाली कहानियों में ही मिलेंगे. जंगल वाली भूमि में रहकर आज हम भले ही शहरी कहलाने में गर्व करते हों, पर देखा जाऐ तो कुछ जंगलीपन हममें आ गया है. शिकार और शिकारी ये दो पहलू हैं जीवन के. इंसान की दृष्टि से देखा जाए तो शिकार पहले शौक था, अब विशुध्द व्यवसाय बन गया है. पहले शिकारी का निशाना छोटे-छोटे जंगली जानवर हुआ करते थे, पर अब बड़े जानवर ही उनकी आधुनिक बंदूकों को निशाना बनने लगे हैं, ताकि उनका मांस अपनों के बीच परोसा जाऐ और हड्डियाँ विदेश निर्यात की जा सकें. चीन जैसे देशों में हिंस्र पशुओं की हड्डियों से पौरुष बढ़ाने वाली दवाएँ बनाई जाती हैं. वहाँ इस पर कोई प्रतिबंध नहीं है. इसलिए हमारे देश के हिंस्र पशुओं का मांस परोस कर हम अपनों को उपकृत करते हैं और नाखून-हड्डियाँ विदेश भेजकर अच्छी खासी रकम कमाते हैं. बाघों के शिकार के लिए अपने यहाँ भरपूर माहौल है. मात्र कुछ धन देकर जंगलों में सशस्त्र होकर प्रवेश पा जाते हैं और जी भरकर शिकार करते हैं. किसी ने प्रतिवाद किया तो उसे भी निशाना बनाने से नहीं चूकते. बरसों से सक्रिय जंगल माफिया ने इस देश में अपनी जड़ें फैलाई हैं और अरबों रुपए बटोरे हैं.
शिकार पर हमारे देश में भी प्रतिबंध है, पर आज तक किसी शिकार को कठोर सजा मिली हो, ऐसा सुनने में नहीं आया. मात्र कुछ हजार रुपए और कुछ माह की सजा. जिसे भी धन देकर कम किया जा सकता है. इस दृष्टि से जंगली जानवर इन शिकारियों से कहीं बेहतर हैं, वे भूख लगने पर ही शिकार करते हैं. ऐसा करना उनकी विवशता नहीं अधिकार है. प्रकृति अपना संतुलन ऐसे ही रखती है, पर इंसान ऐसा केवल अपनी व्यावसायिकता के लिए करता है.
हमारे देश से बाध लुप्त हो जाऐं या इंसान, किसी को कोई फर्क पड़े या न पड़े पर सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ता. राजनीति की बिसात में रोज ही हाथी, ऊंट के साथ-साथ राजा, वजीर और पैदल मारे जाते हैं. राजनीति की इन चालों के पीछे शह और मात ही नहीं होती. स्वार्थ में लिपटी वे धारणाएँ होती हैं. जिसमें आम आदमी की हैसियत किसी जानवर से कम नहीं होती.
हम बाघों पर गंभीर मंत्रणा करते हैं. इस मंत्रणा में लाखों खर्च भी हो जाते हैं. फिर भी वन्यप्राणी संरक्षण के लिऐ धन की कमी बनी ही रहती है. तभी तो मेनका गाँधी को धन की व्यवस्था करने विदेश जाना पड़ रहा है. पर जरा प. बंगाल के उस गाँव की तरफ भी देखें, जिसे विधवा गाँव के नाम से जाना जाता है. गाँव से लगे अभयारण्य में बाघ इतनी अधिक संख्या में हो गऐ हैं कि अभयारण्य उन्हें छोटा पड़ने लगा है. वे गाँव पर हमला बोलने लगे हैं. एक-एक करके बाघ ने वहाँ के पुरुषों को अपना शिकार बना लिया है. गाँव की औरतें विधवा होते जा रही हैं. सरकारी अमला विवश है. बाघों को मारना कानूनन जुर्म है, इसे तो वह अच्छी तरह से समझता है. पर गाँव वालों की जिंदगी बचाना उसकार्र् कत्तव्य है, इसे शायद भूल गया है. उस गाँव में अभी जो सधवा हैं वे इसी आशंका में जी रही हैं कि न जाने कब कहाँ बाघ का एक पंजा ही उनके माथे का सिंदूर पोंछ दे और वे एक अभिशापित जीवन जीने के लिऐ विवश हो जाएँ.
बाघ पर ये हुए दो नजरिये. दोनों में एक बात सामान्य है, वह है सरकारी मशीनरी की नाकामयाबी. बहुत से कानून हैं, शायद कड़े भी हैं, पर वे इतने लचीले हैं कि क्षण भर में आरोपी कानून के लंबे हाथों से बहुत दूर चला जाता है, क्योंकि इस देश में अब औरत से लेकर बच्चों तक की तस्करी होने लगी है, जब इसे लेकर कड़े कानून नहीं बन पाए, आज तक किसी तस्कर को सजा हुई हो, ऐसा सुनने में नहीं आया, फिर भला जानवरों को मारकर उसकी खाल एवं हड्डियों की तस्करी करने वालों का भला कोई कानून क्या बिगाड़ लेगा?
दूसरी ओर सरकार पर दोष मढ़कर अपना पल्लू झाड़ना सभी को अच्छा लगता है, पर कभी हम अपने गरेबां में झांककर देखें तो पाएँंगे कि हमने केवल बातें बनाने का ही काम किया है. एक छोटा-सा प्रयास भी नहीं किया, न पेड़-पौधे लगाने की दिशा में, न ही जानवरों के अवैध शिकार की दिशा में. हम ही अपनेर् कत्तव्यों के प्रति जागरूक नहीं हैं, तो फिर दूसरे कैसे हो सकते हैं? एक पौधा रोपकर उसकी देखभाल कर यदि आप उसे पेड़ बनाते हैं तो सरकार का आप 15 लाख रुपए बचाते हैं. इसे क्यों भूलते हैं आप. हमारे पूर्वजों ने न जाने कितने पौधे रोपे उसे बड़ा किया और करोड़ों की अघोषित संपत्ति इस देश को दे गऐ, क्या हम पूर्वजों के उस पराक्रम को सहेज कर नहीं रख सकते? पूर्वजों के कर्मों से हमने सुख भोगा, लहलहाती खुशियाँ बटोरीं तो क्या हम एक पौधा भी न लगाकर क्या बच्चों को देना चाहेंगे सपाट रेतीला रेगिस्तानी जीवन? बोलो...
- डॉ. महेश परिमल

4 टिप्‍पणियां:

  1. डॉक्टर साहब, हम आपके ब्लॉग पर पहुंच ही गए!!
    पहले नही पहुंचे सके थे उसके लिए मुआफी, कल मिलकर अच्छा लगा आपसे!!

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  2. DR. SAHAB THODI SI CHINTA CEREBRAL PALSI JESE JAELAZ ROGO SE JOOJH RAHE BACHCHO KI BHI KARNE KI KRIPA KARE HAMARA MARGDARSHAN KARE KI CEREBRAL PALSI KE BACHCHE ELAZ KE LIYE KAHA JAYE KASE

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