बुधवार, 16 अप्रैल 2008
हवाओं को भी गुस्सा आता है...
डा. महेश परिमल
घाघ और भड्डरी की कहावतों में से एक है 'वायु चलेगी उ?ारा, मांड पीयेंगे कु?ारा'. मतलब यही कि फसल की बोवाई के दौरान यदि वायु उ?ार दिशा की ओर से आती हो, तो फसल इतनी अच्छी होगी कि कु?ाों को भी भात का पानी पीने को मिलेगा. यह उ?ारा वायु की विशेषता है. दूसरी ओर पुरवैया, पछुआ और मलयानिल भी तो हैं. इनकी भी अपनी विशेषताएँ हैं. पुरवैया या पुरवा जहाँ परदेस गए अपने स्नेहीजनों की याद दिलाती हैें, तो पछुआ हवाओं को पाश्चात्य संस्कृति का प्रतीक माना जाता है. कुछ भी हो पर हवाएँ तो हमें सदैव ही राहत देती रहती हैं. वैज्ञानिक भले ही इसे ऑक्सीजन कहें, पर यह समस्त प्राणियों के लिए प्राणवायु है. यही प्राणवायु अब हमें न जाने क्यों विचलित कर रही हैं. इनका रौद्र रूप अब छोटे-छोटे ही सही, पर तबाही के मंजर दिखा रहा है.
कभी-कभी हवाएँ जब नाराज हो जाती हैं, तो कदम-कदम दिखाई देता है, तबाही का मंजर. पेड़ गिरते हैं, कई वाहन क्षतिग्रस्त होते हैं, कई दीवारें गिरती हैं, झोपड़ियाँ नष्ट होती हें, बिजली बंद हो जाती है, कई लोग घायल होते हैं, परिंदों के आशियाने उजड़ जाते हैं, यानि केवल हम ही नाराज नहीं होते. हमें जीवित रखने वाली ये प्राणवायु भी नाराज होती है. धरती जब नाराज होती है, तब क्या होता है, यह तो गुजरात से पूछो, और जब समुद्र नाराज होता है, तो सुनामी का कहर बरपाता है. मतलब यही कि नाराज होना केवल इंसानों को ही नहीं, बल्कि पशु-पक्षी और प्रकृति को भी आता है.
जानते हैं इस बार हवाओं को गुस्सा क्यों आया? धरती और समुद्र का गुस्सा होना तो हम जान गए, पर हवाओं का गुस्सा होना हमें ऐसा लगा कि जैसे कोई अपना ही हमसे अचानक ही नाराज हो गया. अपना इसलिए क्योंकि हवाओं का स्पर्श ही दिल को सुकून देता है और सांसों में उसका बसना जीवन देता है. अपनेपन का यह स्रोत, जीवन देने वाली यह प्राणवायु ही हम से नारांज हो गई. देखा जाए तो हवाएँ कभी नाराज ही नहीं होती. पर लोग उससे भी छेड़छाड़ करने लगे, वह भी बरसों से लगातार, तो ऐसे में उसका भी नाराज होना स्वाभाविक है. अगर हम इसकी तह पर जाना चाहें, तो हम पाएँगे कि गलती हमारी ही है. वैसे भी यही इंसान अपने स्वार्थ के कारण धीरे-धीरे प्रकृति का ही सबसे बड़ा दुश्मन बनने लगा है. प्रकृति से उसकी छेड़छाड़ लगातार बढ़ रही है. निश्चित ही सहन करने की भी एक सीमा होती है. अब प्रकृति की सहनशक्ति समाप्त होने लगी है. इसीलिए हमें प्रकृति का कोप दिखाई देने लगा है.
हवाओं का नाम लेते ही पेड़ो की याद आती है. तरु महिमा क्या होती है, यह हम नहीं जानते, पर इतना तो जानते हैं कि आज भी कहीं-कहीं पेड़ों की पूजा होती है. अगर यह कहा जाए कि यही हैं हवाओं के जन्मदाता, तो गलत न होगा. पेड़ के लिए श?दकोश एक और नाम देता है तरु. संस्कृत में तरु का अर्थ पेड़ के अलावा आपदाओं से रक्षा करने वाला भी है. भला किसे अच्छा नहीं लगता, घना और हरियाला छायादार पेड़. चिलचिलाती धूप में पसीने से तरबतर, थके हारे किसी राहगीर को इस तरह का पेड़ दिखाई दे जाए, तो निश्चित ही वह उस पेड़ की ठंडी छाँव में थोड़ी देर के लिए आराम करना चाहेगा. पेड़ का हरियालापन ही लोगों को आकर्षित करता है. अब हम अपने चारों ओर नजर घुमा लें, तो क्या आप पाएँगे, कोई छायादार हरियाला पेड़. जब आपदाओं से रक्षा करने वाले को ही काट कर ड्राइंग रुम की शोभा बना ली है, तो वह कैसे हमारी रक्षा कर पाएगा? सोचा कभी आपने?
पेड़ का मानव से बरसों पुराना नाता है. मानव भी इनके महत्व को समझता है. पर आज वह अपने स्वार्थों में इतना लिपट गया है कि वह अपनी रक्षा करने वाले को ही काटने लगा है. जिस पेड़ की जड़ जितनी ही गहरी होंगी, वह उतना ही विश्वसनीय होगा. इसी तरह जिस व्यक्ति के सद्विचारों की जड़ें जितनी गहरी होंगी, वह उतना ही परोपकारी होगा. इंसान ने पेड़ से यही सीखा. लेकिन आज परिस्थितियाँ बदल गई हैं. अब न तो व्यक्ति के विचारों की जड़ें इतनी गहरी हैं कि वह कुछ अच्छा सोचे. इसके साथ ही वह अपने इस तरह के विचारों को आरोपित करते हुए गहरी जड़ों वाले पेड़ों का अस्तित्व ही समाप्त करने में लग गया है. मानव की यह प्रवृ?ाि उसे कहाँ ले जाएगी, यह तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन यह सच है कि प्रकृति को अब गुस्सा आने लगा है. यही कारण है कि अब हमें प्रकृति के रौद्र रूप के दर्शन कुछ अधिक ही होने लगे हैं.
मानव जब क्रोधित होता है, तब वह अपनी ही हानि करता है. लेकिन प्रकृति की नाराजगी में भी कुछ अच्छा ही छिपा होता है. जहाँ भूकम्प ने पानी के कई स्रोतों को नया जीवन दिया, वहीं सुनामी ने जो कुछ मानव को दिया, वह अभी भी रहस्य के घेरे में है. लेकिन इंसान ही है, जो क्रोधित होकर अपना ही नुकसान करता है, क्योंकि क्रोध बुद्धि को नष्ट कर देता है. यही वजह है कि प्रकृति से साथ-साथ रहने वाला यही मानव अब उससे लगातार दूर होता जा रहा है. वह जितना दूर जाएगा, उतना ही अकेला होता जाएगा. तब उसके पास नहीं होगी, किसी पेड़ की ठंडी छाँव, किसी कुएँ का शीतल जल और न ही होगी गहरी नींद. इसलिए अभी भी समय है, इस नटखट मानव को आना ही होगा प्रकृति की गोद में. प्रकृति बहुत ही उदार है, वह मानव के सारे पापों को क्षमा कर देगी, उसकी नादानियों को भूल जाएगी और फिर देगी अपना दुलार, प्यार और ढ़ेर सारा प्यार....
डा. महेश परिमल
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ललित निबंध
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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काश! मनुष्य यह बात सचमुच समझ पाता.
जवाब देंहटाएंसुनामी ने मानव को आज से प्रेम करना तो सिखा ही दिया-क्या पता फिर कल हो न हो.
जवाब देंहटाएंविचारोत्तेजक आलेख.