सोमवार, 21 अप्रैल 2008

रक्तदान महाकल्याण, तो अंगदान ?


डा. महेश परिमल
आखिर एस.व्यंकटेश की मौत हो गई. इच्छा मृत्यु की उसकी ख्वाहिश अधूरी रह गई. कोर्ट का फैसला यदि जल्द आ गया होता, तो संभव था, उसकी अंतिम इच्छा पूरी हो जाती. पर कोर्ट ने अपना निर्णय लेने में यहाँ भी देर कर दी. उसे तो मरना ही है, यह सभी जानते थे, पर व्यंकटेश अपनी मौत को ऐतिहासिक बनाना चाहता था. अपने शरीर के अंगों को दान में देकर, ताकि उसकी मौत से कुछ लोगों को ंजिंदगी मिल जाए. मौत से हमेशा मौत ही मिलती है, इसे व्यंकटेश ने नहीं समझा. वह अपनी मौत चाहकर दूसरों को जिंदगी देना चाहता था. आखिर मौत उसे ले गई और उसका जीवन उसके साथ ही खत्म हो गया. आखिर बच भी कहाँ पाते हैं 'मस्क्यूलर डीस्ट्राफी' के मरीज.
हम अपनी इच्छा से किसी को अपना खून देते हैं, मरीज की जान बच जाती है. खून देना हमारी इच्छा पर निर्भर करता है, इस पर किसी की जोर-जबर्दस्ती नहीं होती. इस स्थिति में यदि कोई व्यक्ति यह चाहे कि उसकी मृत्यु के बाद उसके शरीर का कोई अंग दान में दे दिया जाए, तो लोग इस निर्णय की सराहना करते हैं. पर कोई लाइलाज बीमारी से ग्रस्त व्यक्ति यदि पूरे होशो-हवास में यह निर्णय ले कि मेरा जीना अब बेकार है, अब मुझे नहीं जीना चाहिए, मेरे शरीर के अंग दान में दे दिए जाएँ, तो क्या यह गलत है?
अपनी खुद की चींज किसी को देना वाकई जिगर की बात है. इस जिगर को हर र्कोई प्राप्त नहीं कर सकता. काफी मुश्किलों से मिलता है, इस तरह का जिगर. 'राइट टू डाई' 'मर्सीकिलिंग' ये सब विवादों के बीच उलझी हुई मानव जाति आज भी रक्तदान के लिए अभियान चलाती है. पूरे विश्व में रक्तदान का अभियान जोर-शोर से चल रहा है. युध्द, ऑपरेशन के दौरान खून की आवश्यकता पड़ती है, इसे सभी स्वीकारते हैं, इसीलिए इस अभियान को बिना किसी विवाद के स्वीकार कर लिया गया है. 'ब्रेन डेड' होने के बाद मानव शरीर के अंगों को अन्य किसी कामों में उपयोग के लिए लिया जा सकता है. व्यंकटेश दिमागी रूप से खत्म हो चुका था, डाक्टरों ने भी जवाब दे दिया था, इसे स्वयं व्यंकटेश भी जानता था, इसीलिए उसने अपनी अंतिम इच्छा यह जताई थी कि उसके शरीर के अंग उन मरीजों को दे दिए जाएँ, जिन्हें उसकी जरूरत है. इसे समझा उसकी माँ ने, और इसे आगे बढ़ाया. किंतु यहाँ नियम और कानून इतने उलझे हुए हैं कि व्यंकटेश ने तब तक विदाई ले ली. उसके साथ ही उसके वे उपयोगी अंग भी चले गए, जो किसी जरूरतमंद के काम आ सकते थे.

आज भी हायर सेकेण्डरी स्कूलों में बायोलॉजी के विद्यार्थी मेंढक की चीरफाड़ इसलिए करते हैं कि उससे मनुष्य के अंगों के बारे में जाना जा सके. हमारे वैज्ञानिक अपने प्रयोग को सफल बनाने के लिए मूक प्राणियों का इस्तेमाल करते हैं. किंतु आज मानव इतना स्वार्थी हो गया है कि मौत के करीब पहुँचने के बाद भी वह अपना उपयोग किसी अच्छे काम में नहीं कर सकता. बिल्ली मूक प्राणी है, वह बोलकर अपनी इच्छा जाहिर नहीं कर सकती. इसलिए स्वार्थी मनुष्य उसकी ऑंतों से 'केट गैट स्टीच' बनाता है, जिसका उपयोग ऑपरेशन के दौरान किया जाता है. इसी तरह कई वस्तुएँ हैं, जो जानवरों के शरीर से इंसानों को प्राप्त होती हैं.
आज भी किडनी दान संभव है. लोग स्वेच्छा या धन लेकर अपनी किडनी दान में दे रहे हैं. चूँकि एक किडनी से भी इंसान जी सकता है, इसलिए इसके दान करने में वह पीछे नहीं हटता. अब तो नारियाँ भी अपना गर्भाशय किराए पर देकर 'सरोगेट मदर' की उपाधि स्वीकारने में संकोच नहीं करतीं. ऐसे में 'मर्सीकिलिंग' की घटना भविष्य में साधारण घटना बन जाए, तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए.
अब समय आ गया है कि इच्छा मृत्यु के संदर्भ में कानून बनाया जाए. यह काम न्यायाधीशों का है, जिसे आज नहीं तो कल उन्हें करना ही पड़ेगा. इसे वे आज ही समझ लें, तो बेहतर है. इस संदर्भ में कोई सीमा तय होनी चाहिए, जैसे कि 'मस्क्यूलर डीस्ट्राफी' से ग्रस्त, गंभीर दुर्घटना, जानलेवा बीमारी आदि से पीड़ित व्यक्ति स्वेच्छा से अंगदान करना चाहता हो या अपनी मौत चाहता हो, तो इसके लिए नियम बनने चाहिए.
मानव एक ऐसा सामाजिक प्राणी है, जो अपने स्वार्थ के लिए अपने ही बनाए गए तमाम कायदे-कानून को तोड़ने में पीछे नहीं रहता. समय के साथ-साथ मानव को ही मानव अंगों की आवश्यकता होगी, इससे कोई इंकार नहीं कर सकता. दूसरी ओर मृत्यु के बाद क्या होता है, का प्रश्न अभी भी सुलझा नहीं है. ऐसे में मानव अंगों की माँग बढ़ेगी और उसकी पूर्ति की बात भी बार-बार उठेगी. तब इच्छा-मृत्यु को स्वाभाविक रूप से स्वीकार कर लिया जाएगा. इस देश में रोज ही कई तरह के कांड सामने आ रहे हैं, उसमें कुछ वर्षों पहले सुना गया था कि किसी साधारण से ऑपरेशन के दौरान मरीज की किडनी निकाल ली गई. तो इस तरह से बिना उसकी जानकारी और अनुमति से जब अंग निकाल लिए जाएँ, तो स्वेच्छा से अंग दान को क्यों स्वीकार न किया जाए?
अब इस विषय को पौराणिक काल में जाकर देखें, तो स्पष्ट होगा कि भगवान शंकर द्वारा अपने पुत्र की हत्या के बाद उसके सर के स्थान पर हाथी का सर लगाने की घटना सामने आती है. उनका वही पुत्र देवताओं में सबसे पहले पूज्य माना जाता है. शंकर द्वारा मिले इस वरदान की बात जब हाथी को पता चली, तो उसने सहर्ष अपना सर दान में दे दिया था. वृत्तासुर राक्षस को मारने के लिए महर्षि दधीचि की अस्थियों से विश्वकर्मा ने इंद्र के लिए वज्र बनाया था. दधीचि द्वारा किया गया स्वेच्छा से यह अंग दान देवताओं के वरदान साबित हुआ. भीष्म पितामह की इच्छा मृत्यु से हम सब वाकिफ ही हैं. उन्होंने श्री कृष्ण के दर्शन के बाद ही अपने प्राण त्यागे. ये उदाहरण बताते हैं कि पौराणिक काल में भी मानव ने अपने अंगों का दान कर पुण्य कमाया और अपनी उदारता बताई. फिर आज मानव इतना स्वार्थी कैसे हो गया? यदि ऐसे में कोई मानव अंग दान की बात करता है, तो उसे क्यों अस्वीकार किया जाता है? यह प्रश्न आज नहीं तो कल निश्चय ही मानव जाति को झकझोरेगा, इसमें कोई दो मत नहीं.
डा. महेश परिमल

1 टिप्पणी:

  1. अंग दान देना बहुत अच्छा हे,लेकिन स्वेच्छा से,लेकिन जब लालच मे या सिर्फ़ पेसे के लिये ही यह कार्य किया जाये तो एक आत्म हत्या के बरावर हे,पुन्य का काम पुन्य की तरह से हो ,हा अंग लेने वाला कोइ गरीब होगा तो वो कितनी दुया देगा,जिस का जीवन बच गया दुसरे की वजह से,

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