बुधवार, 10 अगस्त 2011

निर्णय करने वालों का निर्णय कौन करे?

डॉ. महेश परिमल
बहुत समय बाद सरकार ने अपनी सक्रियता का परिचय देते हुए यह निर्णय लिया कि अब मुकदमो के लंबित रहने का औसत समय तीन वर्ष होगा। अब तक यह समय 12 से 15 वर्ष था। सरकार का यह निर्णय तो सराहनीय है, पर निर्णय लेने वालों के स्थानों पर एक नजर डाल देती, तो समझ में आ जाता कि आखिर मामले इतने लंबित क्यों होते हैं। सरकार ही जजों के स्थानों की पूर्ति करने में देर करती है। पूरे देश में अभी भी न्यायाधीशों के सैकड़ों स्थान खाली हैं, ये स्थिति न जाने कब से है, पर सरकार ने इस ओर ध्यान दिया ही नहीं। जल्द न्याय प्रदान करने के लिए सरकार ने न्याय प्रदान एवं कानून सुधार राष्ट्रीय मिशन लागू करने को मंजूरी दे दी है। पर इससे होगा क्या? इस पर अमल कब होगा, यह भी अभी विचारणीय है। जब जज ही नहीं होंगे, तो मामले कैसे निबटाए जाएँगे, यह तो सरकार ने सोचा ही नहीं। लंबित मुकदमों को कम करने की दिशा में उठाया गया यह कदम निश्चित रूप से सराहनीय है। पर यह निर्णय लेने के पहले सरकार ने दूरदर्शिता का परिचय नहीं दिया। अभी हालत यह है कि देश के कई उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की बेहद कमी है। उनके स्थानों की पूर्ति न होने के कारण ही मुकदमे लंबित हो रहे हैं। इसकी वजह यही है कि कोई हाईकोर्ट जज बनना ही नहीं चाहता। क्योंकि एक न्यायाधीश के रूप में काम का बोझ, निश्चित वेतन और बहुत सारा सरकारी दबाव। एक जज की यही मानसिकता होती है कि इससे तो बेहतर है कि प्रेक्टिस की जाए, जिसमें कमाई ही कमाई है।
अब इलाहाबाद हाईकोर्ट की ही बात करें, यहाँ 150 जज होने चाहिए, क्योंकि केंद्र शासन के विधि विभाग ने इतने ही जजों के लिए स्थान तय किए हैं, पर यहाँ 45 प्रतिशत स्थान रिक्त हैं। इसका आशय यही हुआ कि जहाँ 150 जज होने चाहिए, वहाँ केवल 66 जज ही कार्यरत हैं। बाकी 94 अदालतें खाली हैं। आबादी की दृष्टि से सबसे बड़े राज्य की जब यह स्थिति है, तो फिर बाकी राज्यों का क्या हाल होगा, इसे बताने की आवश्यकता नहीं है। देश की कुल 21 हाईकोर्ट ऐसी हैं, जहाँ आमतौर पर 33 से45 प्रतिशत तक जज के स्थान खाली हैं। न्यायाधीश बन सकें, ऐसे विद्वान वकील अब देश में बहुत ही कम रह गए हैं। दूसरी तरफ सरकार की इस दिशा में नीयत ही साफ नहीं है। वह जी-हुजूरी करने वाले जज चाहती है, पर ऐसे जज मिल नहीं रहे हैं। यदि देश की तमाम हाईकोर्ट को एक साथ करें, तो कुल 895 जजों के लिए स्थान तय किए गए हैंे। इसके बाद भी कई हाईकोर्ट ऐसी हैं, जहाँ काफी लंबे समय से कोटे के अनुसार जजों की नियुक्ति नहीं की गई है। एक तरफ रोज ही सैंकड़ों के हिसाब से मामले बढ़ रहे हैं, दूसरी तरफ जजों के स्थान खाली हैं। ऐसे में तुरंत न्याय की उम्मीद कैसे की जा सकती है?
वैसे हमारे देश की तुलना अन्य देशों से की जाए, तो आबादी के अनुसार वहाँ जजों की संख्या कम ही है। अमेरिका-इंग्लैंड जैसे देशों में दर एक लाख नागरिकों के लिए एक जज है। यही नहीं कई देशों में तो दस लाख लोगों के लिए एकमात्र जज है। अदालतों में जजों की कमी कोई आज की बात नहीं है। वास्तव में देखा जाए, तो यह एक सोची-समझी साजिश ही है, जिसमें यह शामिल है कि हाईकोर्ट में सभी जजों के स्थानों की पूर्ति कभी न की जाए। इसके पीछे यही कारण है कि हाईकोर्ट ने कई बार लोकहित में ऐसे निर्णय सुनाए हैं, जिससे देश के नेताओं की फजीहत हुई है। इसलिए नेतोओं ने ही मिलकर यह साजिश रची की, रिटायर हुए जजों के स्थान पर नए जजों की नियुक्ति ही न की जाए, या फिर इस काम में घनघोर विलंब किया जाए। जज के पास अधिक मामले होंगे, तो वह उसी में व्यस्त हो जाएँगे। लोकहित में निर्णय देने में उनकी रुचि ही नहीं होगी। आज कुल 21 हाईकोर्ट में 291 जजों के स्थान रिक्त हैं। इलाहाबाद हाईकोर्ट के बाद राजस्थान, गुजरात और पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट में कई स्थान रिक्त हैं।
पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट में 35 प्रतिशत, पटना हाईकोर्ट में 27 प्रतिशत, आंध्र प्रदेश में 26 प्रतिशत, मुम्बई हाईकोर्ट में 25 प्रतिशत और कर्नाटक में 20 प्रतिशत जजों के स्थान रिक्त हैं। इसी तरह मध्यप्रदेश और मद्रास में 9-9 जज कम हैं। झारखंड और नई दिल्ली में 8-8 जज कम हैं। केरल में 7 और छत्तीसगढ़ में 6 जज कम हैं। आश्चर्यजनक रूप से जजों की इतनी सीटें खाली हैं, पर विद्वान वकील इस पद के लिए स्वयं को सुशोभित नहीं करना चाहते। उन्हें यह अच्छी तरह से मालूम है कि जज बनने के बाद एक निश्चित रकम वेतन के रूप में मिलेगी, इसके अलावा काम का अत्यधिक बोझ, सही नहीं, सरकारी दबाव के बीच लगातार काम करते रहना भी एक बहुत बड़ी समस्या है। इससे तो अच्छा है कि अपनी प्रेक्टिस की जाए। सबसे निचली कोर्ट की बात की जाए, तो सबसे खराब स्थिति बिहार और गुजरात की है। जहाँ क्रमश: 389 और 361 स्थान लंबे समय से खाली पड़े हैं। उत्तर प्रदेश में 294, राजस्थान में 223 स्थान रिक्त हैं। इसके बाद जब हम अखबारों में यह पढ़ते हैं कि लाखों केस लंबित पड़े हैं, तो इसके लिए हमें सरकार को कोसना चाहिए। आखिर इन स्थानों की पूर्ति तो सरकार को ही तो करनी है। फिर सरकार अपना काम ईमानदारी से क्यों नहीं करती?
सरकार की नीयत यदि साफ होती, तो यह स्थिति ही नही आती। करीब ढाई करोड़ मामले हैं, जो न्याय की गुहार कर रहे हैं। अभी तो इतने ही मामले को सुलझाने में एक लंबा वक्त गुजर जाएगा, फिर रोज सैकड़ों नए मामले भी तो आ रहे हैं, उन्हें कौन सुलझाएगा? कुछ मामले तो ऐसे होते हैं, जिनका तुरंत निबटारा आवश्यक है। यदि जज इसी में उलझ जाएँगे, तो छोटी-छोटी बात पर होने वाले मामले भी तो बढ़ते जाएँगे। बात दरअसल यह है कि सरकार अदालतों की तीखी टिप्पणियों से बचना चाहती है, इसलिए वह हमेशा ऐसे जजों की नियुक्ति करती है, जो चाटुकारिता में विश्वास रखते हों। ऐसे जज मुश्किल से मिलते हैं, इसलिए इनकी नियुक्ति में इतना अधिक विलंब होता है।
डॉ. महेश परिमल

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