गुरुवार, 1 सितंबर 2011

कौन हरेगा विघ्नहर्ता का विघ्न?




डॉ. महेश परिमल
विघ्नहर्ता गणोश जी पधार रहे हैं। बस थोड़ा सा इंतजार। वे आएँगे, हमें कष्टों से मुक्ति दिलाएँगे। हम भी उन्हें मनाने के लिए अपने घर पर उनकी मूर्ति की स्थापना करेंगे। सुबह-शाम आरती होगी। लगातार 11 दिनों तक उत्सव का माहौल होगा। बाजारों में भीड़ बढ़ जाएगी। लोग गणोश जी को मनाने के लिए तरह-तरह के भोग लगाएँगे। बच्चों की तो पूछो ही नहीं, उनके लिए तो यह उत्सव वास्तव में उत्सव ही होगा। क्योंकि इस समय स्कूल जाने के साथ-साथ गणोश जी के कामों की भी जिम्मेदारी निभानी होती है। मोहल्ले में भी कहीं-कहीं गणोश जी की मूर्ति की स्थापना होती है। वहाँ का काम भी करना होता है। कुल मिलाकर समाज के सभी वर्गो को गणोश जी व्यस्त कर देंगे।
हम सभी गणोश जी से यह प्रार्थना करते हैं कि वे हमारे दु:खों को हर लें। हम सभी भगवानों से यही प्रार्थना करते हैं। हमारे पास दु:खों का भंडार जो है। बेशुमार दौलत के ढेर पर बैठकर भी हम दु:खी हैं। एक जून रोटी खाकर भी हम दु:खी हैं। अपने अधिकारों का उपयोग करते हुए भी हम दु:खी हैं। यदि सभी दु:खी हैं, तो फिर सुखी कौन है? वास्तव में हम दु:खी इसलिए हैं, क्योंकि हम मानते हैं कि सामने वाला सुखी है। हमारे आधे दु:ख का यही कारण है। हम जिसे सुखी मानते हैं, वह भी वास्तव में सुखी कदापि नहीं है। वह भी सामने वाले की खुशी से दु:खी है। इस तरह से देखा जाए, तो सुखी कोई भी नहीं है। सुखी वह है, जो सबसे निर्लिप्त है। जिसकी आवश्यकताएँ सीमित हैं। जो देने में विश्वास करता है। जिसके भीतर न तो कटुता है और न ही कलुषता। हम कितनी भी प्रार्थनाएँ कर लें, कितनी भी आरती कर लें, जब तक हम अपने से ही संतुष्ट नहीं हो जाते, तब तक दु:खी ही रहेंगे।

आखिर दु:ख हरने वाले को भी दु:ख होता तो होगा ही। तो भला गणोश जी को भी क्यों न हो? मेरा विश्वास है कि अगर आप विसर्जन के बाद गणोश जी की स्थिति देख लें, तो आप भी उनके दु:ख से दु:खी हो जाएँगे। कभी देखा है, विसर्जन के बाद उनकी प्रतिमाओं को? टूटी-फूटी मूतियांँ, कटे हुए हाथ-पाँव, कहीं धड़, कहीं शरीर का एक टुकड़ा, कहीं दूसरा टुकड़ा बिखरा पड़ा होता है। बड़ी कोफ्त होती है गणोश जी को इस स्थिति में देखकर। ये तो हमारे आराध्य हैं, इनकी ऐसी हालत भला क्यों हुई? कभी जानने की एक छोटी-सी कोशिश की आपने? शायद इससे लोगों को बुरा लगा होगा। हमारा काम तो प्रतिमा की पूजा करना और फिर उसका विसर्जन करना है। बस यहाँ आकर हमारी जिम्मेदारी खत्म हो जाती है। वास्तव में हमारी सही जिम्मेदारी तो यहीं से शुरू होती है। अपने आराध्य का क्षत-विक्षत रूप देखकर हमें दु:ख नहीं होता, तो फिर आपको गणोश जी की ही नहीं, बल्कि किसी भी देवता की पूजा नहीं करनी चाहिए। देवता भी ऐसे भक्तों की परवाह नहीं करते, जो बाहर से कुछ और भीतर से कुछ और होते हैं। आखिर क्यों होता है ऐसा?
क्या जगह-जगह गणोश जी की मूर्तियों की स्थापना करना आवश्यक है? एक मोहल्ले में एक ही प्रतिमा की स्थापना हो, तो क्या बुरा है? फिर घर पर तो हम मूर्ति की स्थापना करते ही हैं। हमारे भीतर भी तो सभी आराध्यों की मूर्तियाँ स्थापित हैं। तो फिर बाहर का दिखावा क्यों? सच्च भक्त अपने देवता की बुरी हालत को कभी स्वीकार नहीं कर सकता। यह स्थिति देखकर तो वह संकल्प ही ले लेगा कि अब वह कभी भी अधिक से अधिक प्रतिमाओं की स्थापना की धारणा को तोड़ने का काम करेगा। वह क्यों चंदा दे, गली-गली में स्थापित होने वाले गणोश जी के कार्यक्रमों के लिए? इसके अलावा गणोश जी माटी के बनें हो तो कितना अच्छा होगा। पानी में घुलकर माटी फिर से तलहटी पर चली जाएगी। पर प्रतिमा पर लगा रंग तो पानी को प्रदूषित ही करेगा। लोग प्लास्टर ऑफ पेरिस की प्रतिमाएँ खरीदते हैं, जो पानी में नहीं घुलती। इससे पानी तो प्रदूषित होगा ही। गहरे केमिकल भी पानी को स्वच्छ नहीं रहने देंगे। क्या इस तरह से हम कोई अपराध तो नहीं कर रहे हैं। पुलिस कार्रवाई तो बाद में होगी, पर हमारे आराध्य हमसे नाराज ही हो जाएँगे, तब हम क्या करेंगे? हम उन्हें नाराज करने का ही काम कर रहे हैं।
हर साल गणोश जी की प्रतिमाएँ बड़ी से बड़ी होती जा रहीं हैं। भला उस मोहल्ले की प्रतिमा हमारे मोहल्ले की प्रतिमा से छोटी क्यों रहे। पिछले साल हमने 12 फीट ऊँची प्रतिमा बनवाई थी, इस बार 15 फीट प्रतिमा का ऑर्डर दिया है। चंदा भी खूब हुआ है। प्रतिमा तो बड़ी होगी ही। यह बात अलग है कि चंदा लेने में न जाने कितने भले लोगों को धमकी भी दी है। धमकी सहने वाले सभी इज्जतदार लोग हैं, उनकी भी माँ-बेटियाँ हैं। उन्हें भी समाज में रहना है। चंदा लेने वाले देने वाले की पीड़ा तो समझना ही नहीं चाहते। उन्हें तो गणोश जी प्यारे और चंदा प्यारा! बाद में चंदे के धन का किस तरह से दुरुपयोग होता है, यह सभी जानते हैं। हर साल से यही परंपरा चल रही है। हम चंदा देकर इस गलत परंपरा को केवल निभा रहे हैं।
उस दिन एक गरीब आदमी प्रतिमा स्थल के पास हमारे आराध्य की टूटी-फूटी मूर्तियाँ इकट्ठा कर रहा था। साथ-साथ रोता भी जा रहा था। वहीं से गुजरते हुए मैंने जब उससे पूछा कि आखिर तुम रो क्यों रहे हो? उसका कहना था कि अपने आराध्य की यह स्थिति देखकर कौन नहीं रोएगा? सचमुच उसके द्वारा जमा की गई चीजों में आराध्य के कई अंग बिखरे पड़े थे। अरे! हम तो इंसानों के ऐसे अंगों को देखकर दहल जाते हैं, फिर ये तो हमारे आराध्य हैं। हम इनकी पूजा करते हैं। उनकी यह हालत! आखिर ये हमारी मूर्खताओं का ही परिणाम है। क्यों करते हैं हम ऐसा? इसी कारण हम पर जब दु:खों का पहाड़ टूटता है, तो हम ईश्वर को कोसते हैं। आखिर हम पर ही क्यों विपदा आई? कभी सोचा है जब हम अपने आराध्य को इस हालत में पहुँचाएँगे, तो क्या वे हमें माफ कर देंगे? नहीं ना। तो फिर ऐसा काम ही क्यों किया जाए, जिससे आराध्य हमसे रुठ जाएँ।
साथियो! आज ही यह संकल्प लें कि अब हम कभी कोई काम ऐसा नहीं करेंगे, जिससे हमारे देवता हमसे नाराज हो जाएँ। हम गली-गली स्थापित होने वाले मूर्ति स्थापना का विरोध करेंगे। मोहल्ले की एक ही कमेटी को चंदा देंगे। जो जबर्दस्ती करेगा, उसका विरोध करेंगे। माटी की प्रतिमाएँ खरीदने का आग्रह करेंगे। प्लास्टर ऑफ पेरिस की मूर्तियाँ तो खरीदेंगे ही नहीं, जो खरीदना चाहेगा, उसे इसके नुकसान बताएँगे। हम एक ऐसा वातावरण बनाने का प्रयास करेंगे, जिससे समाज जाग्रत हो, एकजुटता की भावना को बल मिले। भाई-चारा बढ़े। यदि हम ऐसा करेंगे, तो निश्चित जानें गणोश भी हमारी सहायता करेंगे। क्यों नहीं करेंगे, आखिर हम उनके भक्त हैं।
डॉ. महेश परिमल

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