डॉ. महेश परिमल
आज मीडिया किस तरह से रसातल में जा रहा है, इसका सच्च उदाहरण पूनम पांडे है। इसके बयान को लगातार मीडिया में महत्वपूर्ण स्थान मिलता रहा है। लोग उसे चटखारे लेकर पढ़ने भी लगे हैं। सोचो, एक युवती लगातार स्वयं के निर्वस्त्र होने की घोषणा करती रहे, लोग उसे सुनते रहे। आखिर उसने अपनी इच्छा की पूर्ति कर ली। इस बयान के साथ की ये तो केवल शुरुआत है। आगे तो अभी बहुत कुछ देखना बाकी है। देश में जहाँ आम भारतीय छात्र-छात्राएँ दिन-रात परिश्रम कर अच्छे से अच्छे अंक ला रहे हैं, उनकी मेहनत अखबारों में चमक रही है। दूसरी ओर उसी पेज पर पूनम पांडे की वह अश्लील तस्वीर भी दिखाई दे रही है, जिसका उसने वादा किया था। उसने वादा निभाया। मीडिया ने भी उसका भरपूर साथ दिया।
कोई बता सकता है कि आखिर मिस पांडे का उद्देश्य क्या है? उसका उद्देश्य ऐसा तो कतई नहीं है, जिससे समाज का भला होता हो, समाज को एक नई दिशा मिलने वाली हो। वह निर्वस्त्र होकर आखिर अपनी किस खुशी का प्रदर्शन करना चाहती है? खैर जो भी हो, पर मीडिया का क्या यह कर्तव्य नहीं बनता कि ऐसे बयान देने वाली या फिर स्वयं को सार्वजनिक रूप से निर्वस्त्र करने वाली को ज्यादा तरजीह न दी जाए। मिस पांडे न केवल निर्वस्त्र हुई, बल्कि अपनी तस्वीर को सोशल साइट्स में भी डालने की जुर्रत की। उस पर यह भी कह रही हैं कि 18 वर्ष से कम के लोग इसे न देखें। इसका आशय यही हुआ कि वह जानती है कि वह एक अपराध कर रही है। इंटरनेट पर ऐसी कोई बंदिश तो नहीं है कि अश्लील तस्वीरों पर प्रतिबंध लग सके। इस अनुरोध के पीछे उसकी यही भावना थी कि उनकी अश्लील तस्वीर को केवल 18 वर्ष के युवा होते किशोर ही देखें। उसकी तस्वीर को देखा भी गया। आखिर वह अपने घ्यानाकर्षक के उद्देश्य में सफल हो गई। उसे सफल बनाया मीडिया ने। मीडिया के पास ऐसी कानून की कोई किताब नहीं है, जिस पर यह लिखा हो कि पूनम पांडे जैसी युवतियों की हरकतों को स्थान न दिया जाए। बस मीडिया के पास यही आधार है, उसे हाइलाइट करने के लिए।
सवाल यह उठता है कि क्या अपनी खुशी को अभिव्यक्त करने के लिए कोई युवती स्वयं को सरेआम निर्वस्त्र कर सकती है? तो फिर समाज का क्या कर्तव्य है? उसे निर्वस्त्र होता देखता रहे। अरे! यह तो वही भारत की पावन भूमि है, जहाँ एक नारी कभी भी किसी भी रूप में खुले आम निर्वस्त्र नहीं देख सकता। कई बार ऐसे भी दृश्य इसी देश में देखने को मिले हैं, जब प्रसव पीड़ा से कराहती कोई नारी यदि सड़क पर ही बैठ जाए और उसकी प्रसूति वहीं हो जाए, तो कई महिलाएँ अपनी साड़ी की आड़ कर देती हैं, ताकि एक नारी की इज्जत सुरक्षित रहे। इस तरह की खबरें मीडिया के लिए भले ही महत्वपूर्ण न हो, पर समाज के लिए महत्वपूर्ण होती है। जो महिलाएं इस प्रसूति यज्ञ में शामिल होती हैं, वे समाज में एक महत्वपूर्ण स्थान बनाती हैं। इस तरह की खबर से कभी कहीं यौन इच्छाओं का विस्फोट होता नहीं देखा गया। तो फिर पूनम पांडे के मामले में मीडिया इतना अधिक संवेदनशील कैसे हो गया? आज पूनम पांडे ऐसा कर रही है, तो वह खबर बन रही है। पर जब यही पूनम पांडे किसी मीडिया शहंशाह की बेटी होती, या फिर किसी सभ्रांत घर की बहू होती, तो क्या उस समय भी मीडिया इतना अधिक संवेदनशील होता?
पूनम ने रातों-रात प्रसिद्ध होने के नुस्खे की बदौलत ऐसा किया। ऐसा करने के पहले वह बार-बार इसकी घोषणा भी करती रही। उसने कोई अप्रत्याशित कार्य नहीं किया, उसने जो कहा, उसे किया। पर उसकी घोषणा और उस पर अमल के पीछे कोई सामाजिक उद्देश्य कतई नहीं था। न तो वह किसी के अत्याचार के विरोध में ऐसा कर रही थी, न ही वह बेटी बचाओ आंदोलन का हिस्सा बन रही थी, न ही वन्य प्राणी संरक्षण का कोई अभियान चला रही थी, न ही पर्यावरण बचाव को लेकर वह किसी मुहिम का हिस्सा थी, तो फिर उसे इतनी प्राथमिकता क्यों दी गई? उसे तो निर्वस्त्र होना ही था, फिर चाहे कलकत्ता राइड्स जीतती या फिर चेन्नई सुपरकिंग। उसे चाहिए थी पब्लिसिटी, जो उसे मिल गई। वास्तव में पूनम पांडे के नाम पर मीडिया निर्वस्त्र हुआ है। ऐसी कई पूनम पांडे मैदान में आकर मीडिया को निर्वस्त्र करती रहेंगी, जब तक लोगों में रातों-रात प्रसिद्ध होने का खयाल आता रहेगा, तब तक मीडिया उसे अपना खुला समर्थन देकर ऐसे लोगों को हाइलाइट करता रहेगा।
देश में जब राम मंदिर पर फैसला आना था, तब जिस तरह से मीडिया ने पूरी सजगता रखी कि कहीं भी किसी भी प्रकार से आपसी कटुता न बढ़े, भाई-चारा बरकरार रहे, मीडिया के इस कार्य का असर भी हुआ। सब कुछ शांति के साथ निपट गया। मीडिया की प्रशंसा हुई। बिना किसी आचारसंहिता के मीडिया इतना अच्छा कार्य कर सकता है, तो फिर यही मीडिया अपनी अच्छी सोच को पूनम पांडे के मामले में इस्तेमाल क्यों नहीं कर पाया?
यह सच है कि मीडिया में वह ताकत है कि वह किसी को भी अर्श से फर्श पर ला सकता है, इसका यह मतलब तो नहीं कि वह अपनी इस ताकत का इस्तेमाल अश्लीलता को बढ़ावा देकर करे। ताकत यदि सकारात्मक दिशा में लगाई जाए, तो वह सार्थक होती है। नारी के कपड़े उतारने वालों का साथ देकर भी ताकत बताई जा सकती है और कपड़े उतारने वालों की पिटाई करके भी ताकत दिखाई जा सकती है। हथौड़े की एक चोट से मशीन बिगड़ भी सकती है और उसी चोट से सुधर भी सकती है। महत्वपूर्ण यह है कि वार कहाँ किया जा रहा है? उस दिन यदि पूनम पांडे की अश्लील तस्वीर और खबर के बजाए उन परिश्रमी विद्यार्थियों की उपलब्धियों को और अधिक जगह मिलती, तो समाज में एक अच्छा संदेश ही जाता। पर मीडिया ने ऐसा नहीं किया। मीडिया कह सकता है कि पूनम पांडे की खबर उसके टीआरपी को बढ़ाती है, परिश्रमी विद्यार्थियों के साक्षात्कार टीआरपी नहीं बढ़ाते। ठीक है, पर टीआरपी बढ़ाने के लिए फूहड़ कार्यक्रमों को बताना किसने शुरू किया? अभिनेत्री हेमामालिनी की माँ जया चक्रवर्ती की एक कविता याद आ रही है:- वे कुत्ते आज मुझे ऐसे देखते हैं, जैसे वे मेरे शरीर का मांस नोंच-नोंचकर खा लेंगे, गलती मेरी ही है, मैंने ही उन्हें सिखाया है इंसानों का मांस खाना? मीडिया का दायित्व बनता है कि वह तय करे कि खबर की विषय-वस्तु नकारात्मक होनी चाहिए या समाज को दशा-दिशा देने वाली सकारात्मकता।
डॉ. महेश परिमल
आज मीडिया किस तरह से रसातल में जा रहा है, इसका सच्च उदाहरण पूनम पांडे है। इसके बयान को लगातार मीडिया में महत्वपूर्ण स्थान मिलता रहा है। लोग उसे चटखारे लेकर पढ़ने भी लगे हैं। सोचो, एक युवती लगातार स्वयं के निर्वस्त्र होने की घोषणा करती रहे, लोग उसे सुनते रहे। आखिर उसने अपनी इच्छा की पूर्ति कर ली। इस बयान के साथ की ये तो केवल शुरुआत है। आगे तो अभी बहुत कुछ देखना बाकी है। देश में जहाँ आम भारतीय छात्र-छात्राएँ दिन-रात परिश्रम कर अच्छे से अच्छे अंक ला रहे हैं, उनकी मेहनत अखबारों में चमक रही है। दूसरी ओर उसी पेज पर पूनम पांडे की वह अश्लील तस्वीर भी दिखाई दे रही है, जिसका उसने वादा किया था। उसने वादा निभाया। मीडिया ने भी उसका भरपूर साथ दिया।
कोई बता सकता है कि आखिर मिस पांडे का उद्देश्य क्या है? उसका उद्देश्य ऐसा तो कतई नहीं है, जिससे समाज का भला होता हो, समाज को एक नई दिशा मिलने वाली हो। वह निर्वस्त्र होकर आखिर अपनी किस खुशी का प्रदर्शन करना चाहती है? खैर जो भी हो, पर मीडिया का क्या यह कर्तव्य नहीं बनता कि ऐसे बयान देने वाली या फिर स्वयं को सार्वजनिक रूप से निर्वस्त्र करने वाली को ज्यादा तरजीह न दी जाए। मिस पांडे न केवल निर्वस्त्र हुई, बल्कि अपनी तस्वीर को सोशल साइट्स में भी डालने की जुर्रत की। उस पर यह भी कह रही हैं कि 18 वर्ष से कम के लोग इसे न देखें। इसका आशय यही हुआ कि वह जानती है कि वह एक अपराध कर रही है। इंटरनेट पर ऐसी कोई बंदिश तो नहीं है कि अश्लील तस्वीरों पर प्रतिबंध लग सके। इस अनुरोध के पीछे उसकी यही भावना थी कि उनकी अश्लील तस्वीर को केवल 18 वर्ष के युवा होते किशोर ही देखें। उसकी तस्वीर को देखा भी गया। आखिर वह अपने घ्यानाकर्षक के उद्देश्य में सफल हो गई। उसे सफल बनाया मीडिया ने। मीडिया के पास ऐसी कानून की कोई किताब नहीं है, जिस पर यह लिखा हो कि पूनम पांडे जैसी युवतियों की हरकतों को स्थान न दिया जाए। बस मीडिया के पास यही आधार है, उसे हाइलाइट करने के लिए।
सवाल यह उठता है कि क्या अपनी खुशी को अभिव्यक्त करने के लिए कोई युवती स्वयं को सरेआम निर्वस्त्र कर सकती है? तो फिर समाज का क्या कर्तव्य है? उसे निर्वस्त्र होता देखता रहे। अरे! यह तो वही भारत की पावन भूमि है, जहाँ एक नारी कभी भी किसी भी रूप में खुले आम निर्वस्त्र नहीं देख सकता। कई बार ऐसे भी दृश्य इसी देश में देखने को मिले हैं, जब प्रसव पीड़ा से कराहती कोई नारी यदि सड़क पर ही बैठ जाए और उसकी प्रसूति वहीं हो जाए, तो कई महिलाएँ अपनी साड़ी की आड़ कर देती हैं, ताकि एक नारी की इज्जत सुरक्षित रहे। इस तरह की खबरें मीडिया के लिए भले ही महत्वपूर्ण न हो, पर समाज के लिए महत्वपूर्ण होती है। जो महिलाएं इस प्रसूति यज्ञ में शामिल होती हैं, वे समाज में एक महत्वपूर्ण स्थान बनाती हैं। इस तरह की खबर से कभी कहीं यौन इच्छाओं का विस्फोट होता नहीं देखा गया। तो फिर पूनम पांडे के मामले में मीडिया इतना अधिक संवेदनशील कैसे हो गया? आज पूनम पांडे ऐसा कर रही है, तो वह खबर बन रही है। पर जब यही पूनम पांडे किसी मीडिया शहंशाह की बेटी होती, या फिर किसी सभ्रांत घर की बहू होती, तो क्या उस समय भी मीडिया इतना अधिक संवेदनशील होता?
पूनम ने रातों-रात प्रसिद्ध होने के नुस्खे की बदौलत ऐसा किया। ऐसा करने के पहले वह बार-बार इसकी घोषणा भी करती रही। उसने कोई अप्रत्याशित कार्य नहीं किया, उसने जो कहा, उसे किया। पर उसकी घोषणा और उस पर अमल के पीछे कोई सामाजिक उद्देश्य कतई नहीं था। न तो वह किसी के अत्याचार के विरोध में ऐसा कर रही थी, न ही वह बेटी बचाओ आंदोलन का हिस्सा बन रही थी, न ही वन्य प्राणी संरक्षण का कोई अभियान चला रही थी, न ही पर्यावरण बचाव को लेकर वह किसी मुहिम का हिस्सा थी, तो फिर उसे इतनी प्राथमिकता क्यों दी गई? उसे तो निर्वस्त्र होना ही था, फिर चाहे कलकत्ता राइड्स जीतती या फिर चेन्नई सुपरकिंग। उसे चाहिए थी पब्लिसिटी, जो उसे मिल गई। वास्तव में पूनम पांडे के नाम पर मीडिया निर्वस्त्र हुआ है। ऐसी कई पूनम पांडे मैदान में आकर मीडिया को निर्वस्त्र करती रहेंगी, जब तक लोगों में रातों-रात प्रसिद्ध होने का खयाल आता रहेगा, तब तक मीडिया उसे अपना खुला समर्थन देकर ऐसे लोगों को हाइलाइट करता रहेगा।
देश में जब राम मंदिर पर फैसला आना था, तब जिस तरह से मीडिया ने पूरी सजगता रखी कि कहीं भी किसी भी प्रकार से आपसी कटुता न बढ़े, भाई-चारा बरकरार रहे, मीडिया के इस कार्य का असर भी हुआ। सब कुछ शांति के साथ निपट गया। मीडिया की प्रशंसा हुई। बिना किसी आचारसंहिता के मीडिया इतना अच्छा कार्य कर सकता है, तो फिर यही मीडिया अपनी अच्छी सोच को पूनम पांडे के मामले में इस्तेमाल क्यों नहीं कर पाया?
यह सच है कि मीडिया में वह ताकत है कि वह किसी को भी अर्श से फर्श पर ला सकता है, इसका यह मतलब तो नहीं कि वह अपनी इस ताकत का इस्तेमाल अश्लीलता को बढ़ावा देकर करे। ताकत यदि सकारात्मक दिशा में लगाई जाए, तो वह सार्थक होती है। नारी के कपड़े उतारने वालों का साथ देकर भी ताकत बताई जा सकती है और कपड़े उतारने वालों की पिटाई करके भी ताकत दिखाई जा सकती है। हथौड़े की एक चोट से मशीन बिगड़ भी सकती है और उसी चोट से सुधर भी सकती है। महत्वपूर्ण यह है कि वार कहाँ किया जा रहा है? उस दिन यदि पूनम पांडे की अश्लील तस्वीर और खबर के बजाए उन परिश्रमी विद्यार्थियों की उपलब्धियों को और अधिक जगह मिलती, तो समाज में एक अच्छा संदेश ही जाता। पर मीडिया ने ऐसा नहीं किया। मीडिया कह सकता है कि पूनम पांडे की खबर उसके टीआरपी को बढ़ाती है, परिश्रमी विद्यार्थियों के साक्षात्कार टीआरपी नहीं बढ़ाते। ठीक है, पर टीआरपी बढ़ाने के लिए फूहड़ कार्यक्रमों को बताना किसने शुरू किया? अभिनेत्री हेमामालिनी की माँ जया चक्रवर्ती की एक कविता याद आ रही है:- वे कुत्ते आज मुझे ऐसे देखते हैं, जैसे वे मेरे शरीर का मांस नोंच-नोंचकर खा लेंगे, गलती मेरी ही है, मैंने ही उन्हें सिखाया है इंसानों का मांस खाना? मीडिया का दायित्व बनता है कि वह तय करे कि खबर की विषय-वस्तु नकारात्मक होनी चाहिए या समाज को दशा-दिशा देने वाली सकारात्मकता।
डॉ. महेश परिमल