शनिवार, 16 जून 2012

मुगल गार्डन की रौनक पर बढ़ता खतरा?

डॉ. महेश परिमल
भारत देश का राष्ट्रपति चुनाव का परिदृश्‍य अब साफ होता दिखाई दे रहा है। मुलायम के यू टर्न लेते ही कांग्रेस खुश हो गई। पर ममत का कहना है कि खेल अभी बाकी है। वह कुछ भी कर सकती हैं। इसके पहले भी उसने सरकार की नकेल कई बार खींची है। इसलिए अभी तक तो कुछ नहीं कहा जा सकता कि ऊँट किस करवट बैठेगा। पर इतना तो तय है कि अब सत्तारुढ दल को क्षेत्रीय दलों की उपेक्षा का खामियाजा भुगतना पड़ेगा। मुलायम यादव से कई बार केंद्र सरकार ने सहायता ली, पर उनके अनुसार इसका रिस्पांस नहीं मिला। कई बार वे केंद्र के व्यवहार से आहत हुए। मुलायम के रुख में हुए परिवर्तन की वजह यही है।
पूरा देश इन दिनों कौन बनेगा राष्ट्रपति नामक धारावाहिक देख रहा है। इस गरिमामय पद के लिए पहली बार इतना घमासान देखने को मिल रहा है। हालांकि अभी नामांकन के लिए 15 दिनों का समय है, पर इन 15 दिनों में बहुत कुछ ऐसा होने वाला है, जिससे राजनीति के दांव-पेज देखने को मिलेंगे। अब तक ममता बनर्जी ने केंद्र की नकेल अपने हाथों पर रखी थी। कई बार उसने अपनी बात मनवाई भी है। पश्चिम बंगाल को विशेष पैकेज देने की मांग वह काफी समय से करती आ रही है, इसमें अब अखिलेश यादव भी शामिल हो जाएंगे। वे भी अब उत्तर प्रदेश के लिए विशेष पैकेज की माँग करेंगे, यह तय है। राष्ट्रपति चुनाव ने जिस तरह से मुलायम और ममता को करीब ला दिया है, उससे तीसरे मोर्चे की सुगबुगाहट से इंकार नहीं किया जा सकता। सपा और तृणमूल काफी समय से केंद्र के साथ जुड़े हुए हैं। समय-समय पर इन दलों ने केंद्र सरकार को गिरने से बचाया भी है। इसके बाद भी केंद्र सरकार ने इन दलों का उपयोग यूज एंड थ्रो की तरह किया। ममता ने तो कई बार अपने तेवर दिखाए भी, पर मुलायम सिंह यादव को अब मौका मिला है कि वे यह बता सकें कि राष्ट्रपति चुनाव में क्षेत्रीय दलों की महत्वपूर्ण सहभागिता को अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए।  मुलायम सिंह यादव ने ममता बनर्जी के साथ राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के तौर पर तीन नाम सुझाए हैं।  मनमोहन सिंह  इससे उन्हें लगता है कि प्रणब मुखर्जी के पीएम बनने की राह खुल जाएगी।  एपीजे अब्दुल कलाम  इसके माध्यम से मुलायम की मंशा अल्पसंख्यक कार्ड का इस्तेमाल करने की है।  ताकि जरूरत पड़ने पर वे अपने पीछे वाममोर्चे को लामबंद कर सकें।
तीसरे मोर्चे की अगुवाई की मंशा
देश में आज जो राजनीतिक हालात हैं, उसमें तीसरे मोर्चे की अगुवाई करने में मुलायम सिंह यादव का नाम सबसे आगे माना जा रहा है। मुलायम सिंह यादव के लिए अच्छी बात यह है कि तीसरे मोर्चे के दो कर्णधार नवीन पटनायक और जे. जयललिता केंद्र की राजनीति करने की इच्छुक नहीं हैं। ऐसे में अगर तीसरा मोर्चा बनता है तो वे उसके स्वाभाविक अगुवा होंगे। उत्तरप्रदेश में जब से समाजवादी पार्टी भारी बहुमत से सत्ता में आई है, तभी से राजनीतिक गलियारों में उसके सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव की अहमियत बढ़ गई है। मुलायम कितने अहम हो गए हैं, इसका अंदाजा तो उसी दिन हो गया था, जिस दिन यूपीए सरकार के तीन साल पूरे होने के अवसर पर आयोजित रात्रिभोज में वे शामिल हुए थे। अब राष्ट्रपति पद के लिए यूपीए का उम्मीदवार चुनने को लेकर उन्होंने जो दांव चला है, उससे उन्होंने एक तीर से कई निशाने साधने की कोशिश की है।
मुलायम सिंह यादव की इस रणनीति से इस बात की भी तस्दीक हो जाती है कि केंद्र की राजनीति करने को लेकर किस तरह से उनकी महत्वाकांक्षा कुलांचे भर रही है। राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार के चयन को लेकर मुलायम जिस तरह से अपनी मनवाने पर जोर दे रहे हैं, उससे उनकी मंशा साफ है। वे चाहते हैं कि रायसीना हिल्स में ऐसा व्यक्ति राष्ट्रपति के रूप में विराजमान हो, जिसे इस बात का अहसास हो कि वह मुलायम के कारण राष्ट्रपति भवन पहुंचे हैं। इसे लेकर उनका अपना गणित है। अगले लोकसभा चुनाव में त्रिशंकु सदन बनने की संभावना है, लेकिन मुलायम को उम्मीद है कि सपा के पास सांसदों की अच्छी खासी संख्या रहेगी। ऐसे में वे प्रधानमंत्री के कम्प्रोमाइज्ड उम्मीदवार के रूप में प्रबल दावेदार हो सकते हैं। मुलायम जानते हैं कि इतिहास में पहले भी ऐसा हो चुका है। देवेगौड़ा और इंद्रकुमार गुजराल इसी तरह से पीएम की कुर्सी पर पहुंचे थे। यह अलग बात है कि उनका कार्यकाल कोई उल्लेखनीय नहीं रहा।
पद की गरिमा को बचाना दुष्कर
समय ऐसा आ गया है कि राष्ट्रपति पद की गरिमा को बचाए रखना लगातार दुष्कर होता जा रहा है। पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद की जब नियुक्ति हुई, तब सभी ने उनकी विद्वता की सराहना की थी। उन्हें देश के सर्वोच्च पद के लिए स्वीकार भी किया था। लेकिन इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व के दौरान यह पद गौण हो गया। इसके बाद इसकी गरिमा पर भी आँच आने लगी। फखरुद्दीन अली अहमद तो इतने लाचार थे कि उन्हें आधी रात को जगाकर आपातकाल लगाने के लिए हस्ताक्षर लिए गए। जैलसिंह ने इंदिरा जी की स्तुति में जो बयान दिया था ,उस पर काफी विवाद हुआ था। इस तरह से वे भी राष्ट्रपति पद पर एक रबर स्टेम्प की तरह रहे। डॉ. शंकर दयाल शर्मा और डॉ अब्दुल कलाम ने अपनी विद्वता से इस पद की गरिमा को संजोने का प्रयास किया। पिछले पखवाड़े एक हिंदी पत्रिका में एक मजेदार काटरून प्रकाशित किया गया। काटरून में राष्ट्रपति भवन के एक विशाल खंभे पर एक पोस्टर लटका हुआ है, जिस पर लिखा है राष्ट्रपति की आवश्यकता है? आयु सीमा, 35 वर्ष (75 से अधिक उम्र के वृद्धों को वरीयता), काम का प्रकार- फांसी की सजा प्राप्त अपराधियों की माफी अर्जियों, इसके अलावा सरकार जिस कागज पर कहे,उस पर हस्ताक्षर करना, नक्शे में जो खोजने पर भी न मिले, उन देशों की सपरिवार यात्रा करना, वेतन अन्य सुविधाओं समेत डेढ़ लाख रुपए। काटरून भले ही व्यंग्य में बनाया गया हो, पर यह व्यंग्य नहीं, वास्तविकता है। यह हमारे देश के प्रजातंत्र की बलिहारी है कि ऐसे काटरून सामने आए, जिसे लोगों ने देखा और सराहा। देश के सर्वोच्च पद की गरिमा आजादी के पहले दो दशकों तक बनी रही। पहले राष्ट्रपति के रूप में डॉ. राजेंद्र प्रसाद की नियुक्ति की गई, तब उन्होंने अपने पद को सर्वोच्चता प्रदान की। इसके बाद डॉ. राधाकृष्णन जैसे अंतरराष्ट्रीय प्रतिभा वाले व्यक्ति ने इस पद को सुशोभित किया। डॉ. जाकिर हुसैन ने भी इस पद की गरिमा को बनाए रखने में अभूतपूर्व योगदान दिया। इसके बाद जब इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री पद संभाला, तब से राष्ट्रपति का पद रबर स्टेम्प की तरह हो गया। उनके कार्यकाल में राष्ट्रपति का पद भी राजनीति का अखाड़ा बन गया। अपनी ही पसंद के प्रत्याशी नीलम संजीव रेड्डी के बदले इंदिरा जी ने विपक्ष के प्रत्याशी वी.वी. गिरी को अपना समर्थन दिया, विपक्ष को मात देने के लिए अपने ही प्रत्याशी को हराने का उदाहरण पहले कभी नहीं देखा गया। इसके बाद जो भ राष्ट्रपति बना, उसने रबर स्टेम्प की ही तरह अपनी पहचान बनाई। फखरुद्दीन अली अहमद को आधी रात में जगाकर उनसे आपातकाल के दस्तावेज पर हस्ताक्षर करवाए गए। इसके बाद के.आर. नारायण तक राष्ट्रपति की पहचान रबर स्टेम्प की तरह ही रही। इसके बाद डॉ. शंकर दयाल शर्मा और एपीजे अब्दुल कलाम जैसे दो राष्ट्र्रपति देश को मिले, जिन्होंने पद की गरिमा को निस्पृह भाव से बनाए रखी। इसके बाद वर्तमान राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल पर कई आक्षेप लगाए गए। पुत्र के व्यवसाय के लाभ के लिए मेक्सिको की यात्रा करना उन आक्षेप में शामिल है। यही नहीं सेवानिृत्ति के बाद पुणो में सस्ती दर पर जमीन और बंगला स्वीकारने के मामले ने भी तूल पकड़ा। जिसे बाद में उन्होंने अस्वीकार भी कर दिया। सभी राष्ट्रपतियों में से प्रतिभा पाटिल का कार्यकाल ही ऐसा रहा, जिसमें उनकी कई विदेश यात्राएं हुई, पर इससे किसी भी राष्ट्र से भारत से संबंध पहले से मजबूत हुए, ऐसा नहीं लगता। उनका कार्यकाल निराशाजनक कहा जा सकता है।
अब समय आ गया है कि देश के इस सर्वोच्च पद की गरिमा को बचाए रखने के लिए राष्ट्रपति की भूमिका पर विस्तार से चर्चा की जाए। उनकी छवि को रबर स्टेम्प के रूप में प्रचारित किया जाना उचित नहीं है। राष्ट्रपति को जहां दृढ़ता दिखाई जानी चाहिए, वहां वे पूरी तरह से दृढ़ दिखाई दें। विपरीत परिस्थितियों में देश को दिशा देने में राष्ट्रपति सक्षम हो। केवल सरकार की कठपुतली बनकर न रह जाएं राष्ट्रपति।
डॉ. महेश परिमल

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