इस बार राष्ट्रपति चुनाव के बहाने भारतीय राजनीति पर जो प्रहार किया गया है, वह साफ दिखाई दे रहा है। जिस तरह से सत्ता लोलुप ताकतें राजनीति पर हावी होने की कोशिशें कर रहीं हैं, उससे स्पष्ट है कि शीघ्र ही होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए ये दल स्वयं को तैयार करने में लगे हैं। इस बार भी क्षेत्रीय दल अपना काम कर दिखाएंगे। मुलायम सिंह ने जिस तरह से यू टर्न लिया, उससे यह बात सिद्ध हो जाती है कि मौके की ताक पर बैठे ये नेता न जाने कब अपना ईमान बदल दें। इन पर अधिक समय तक गहरा विश्वास करना मुश्किल होगा।
ममता बनर्जी ने जिस बेरुखी से यूपीए सरकार पर जो आपत्तियां उठाई हैं, उससे उनके रुख का पता चल जाता है। उधर प्रमुख विरोधी गठबंधन एनडीए की हालत तो उससे भी अधिक खराब है। अब शिवसेना को ही ले लो, यह दल भाजपा के साथ है, किंतु इसने पहले ही कह दिया कि वे डॉ कलाम को अपना समर्थन नहीं देंगे। जनता दल यूनाइटेड ने भी पहले ही कह दिया कि उनकी पहली पसंद प्रणब मुखर्जी हैं। इससे स्पष्ट है कि यह आज ऐसा कोई भी दल ऐसा नहीं है, जो अंतर्कलह से ग्रस्त न हो। दल चाहे छोटा हो या बड़ा, उसके भीतर की अकुलाहट बयानों के रूप मे ंबाहर आ रही हैं। भाजपा की हालत तो और भी खराब है। उस दल से विवाद बाहर आते ही रहते हैं। हाल ही में नरेंद्र और संजय जोशी का विवाद बाहर आया। इसके बाद मेनका गांधी ने बयान दिया कि भगवा दल में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। पार्टी की हालत ऐसी हो गई है कि हम न चाहकर भ निर्दलीय पी.ए. संगमा को अपना समर्थन देने को विवश हैं। उनके मुकाबले यूपीए का पलड़ा भारी लग रहा है। पर इससे मिलते संकेतों से पता चलता है कि दोनों ही राष्ट्रीय दलों में नई विकलांगता आ गई है। पहले तो दोनों ने ही राष्ट्रीय स्तर पर अपनी छवि को धूमिल किया है, अब पार्टी के अनुशासन को भी दीमक लग गई है। यह भारतीय राजनीति के लिए अशुभ संकेत हैं।
टीवी पर संसद की कार्यवाही का प्रसारण देखने से पता चलता है कि क्षेत्रीय दल कहीं से भी इस बात के लिए चिंतित नहीं है कि अन्य देशों की सीमाओं से लगे राज्यों की हालत कैसी है? सीमावर्ती राज्यों की हालत पर किसी भी चिंता नहीं। अपनी इसी पीड़ा को एक राज्य के मुख्यमंत्री ने शब्द दिए, उनका मानना था कि मैं राष्ट्रीय दल का सदस्य हूं, इस राज्य का मुख्यमंत्री भी हूं, मेरे राज्य की सीमा पर चीन दखल दे रहा है। उसकी गतिविधियां संदिग्ध लग रही हैं। मैंने कई बार इसके लिए उच्च स्तर पर बात की, पर कोई लाभ नहीं हुआ। इसके बजाए यदि मैं किसी क्षेत्रीय दल का प्रतिनिधित्व करता होता, तो शायद मेरी शिकायत को ध्यान से सुना जाता। राष्ट्रीय दलों पर क्षेत्रीय दलों का दबाव आज कुछ इस तरह से सामने आ रहा है। ऐसी बात नहीं है कि सीमाओं की हालत खराब है। आतंकवाद के खिलाफ मुस्तैदी से लड़ने वाली देश में ऐसी कोई प्रभावशाली एजेंसी भी नहीं है। देश के कानून केंद्र और राज्यों के बीच घर्षण पैदा कर रहे हैं। दोनों के बीच आरोप-प्रत्यारोप के दौर चलते ही रहते हैं। एक तरफ देश के नेता अपनी संतानों को विदेश भेजकर संतुष्ट हो जाते हैं, दूसरी तरफ देश की संघीय संरचना को नकारते हैं। ऐसी हालत मुगल शासन के अंतिम समय पर थी। उन दिनों दिल्ली की ताकत घट रही थी और सूबेदार अपनी मनमानी पर उतर आए थे। क्षेत्रीय दलों की बढ़ती ताकत इसी ओर इशारा कर रही है। यदि ऐसा न होता, तो आज ममता बनर्जी केंद्र के सभी निर्णयों पर टांग न अड़ातीं। एनटी रामाराव ने जब तेलुगुदेशम पार्टी बनाई थी, तब यह सवाल खड़े हुए थे कि इस प्रकार से इन क्षेत्रीय दलों की सार्वभौमिकता आखिर क्या है? राष्ट्रीय दल इस तरह के सवालों पर विचार नहीं करते। पर उनके सहयोगी दल अब उनके लिए उतने अधिक मददगार साबित नहीं हो पा रहे हैं। आज क्षेत्रीय दलों की अड़ंगेबाजी के कारण राष्ट्रीय दल स्वयं को बुरी तरह से असहाय नजर पा रहे हैं।
1980 में कांग्रेस के पास 42.68 प्रतिशत मत थे, 2009 में उसमें 14 प्रतिशत की कटौती हो गई। यही हाल भाजपा की है। 1998 में भाजपा के पास 25.6 प्रतिशत वोट थे, 2009 में उसमें 7 प्रतिशत की कटौती हो गई। इसका सीधा अर्थ यही हुआ कि इन राष्ट्रीय दलों ने अपने वोट क्षेत्रीय दलों को लुटा दिए। निकट भविष्य में होने वाले लोकसभा चुनाव में इनके वोटों में कमी आएगी, यह तय है। राष्ट्रीय दल आज जनता की नजरों में अच्छे नहीं रहे, इसीलिए क्षेत्रीय दल आगे आ रहे हैं। यदि राष्ट्रीय दल जिस तरह से वोट के लिए जद्दोजहद करते हैं, उसी तरह नागरिकों के हितों के लिए करें, तो कोई बात ही नहीं है कि वे जनता की नजरों में गिर जाएं। वोट लेते ही जिस तरह से आज राष्ट्रीय दल जनता से कोई वास्ता नहीं रखते, उसी का कारण है कि वे आज जनता की नजरों में लगातार गिर रहे हैं। क्षेत्रीय दलों पर बढ़ता विश्वास इसी का प्रतिफल है। भाजपा पंजाब में अकाली दल और बिहार में जनता दल यू की बदौलत सत्ता में आई थी। यही हालत पश्चिम बंगाल में कांग्रेस की है। येद्दियुरप्पा आज हाईकमान को आंख दिखा रहे हैं। दिल्ली में बठे उनके नेता अपनी इज्जत बचाने की मशक्कत कर रहे हैं। आंध्र में जगन मोहन रेड्डी बगावत करते हैं, तो राष्ट्रीय दल के रूप में पहचान कायम करने वाली कांग्रेस डगमगाने लगती है। इसका असर राष्ट्रपति चुनाव में साफ दिखाई देगा, जब हम देखेंगे कि इसमें भी क्रास वोटिंग हुई है। जुलाई में ही इस तरह के कई तमाशे देखने को मिलेंगे। ये छोटी-छोटी पटकथा लोकसभा चुनाव के लिए ही लिखी जा रही है। सबसे बड़ी आशंका यह है कि यदि दोनों ही राष्ट्रीय दल मिलकर अपनी 75 सीटें गुमाती हैं और ये सीटें क्षेत्रीय दलों के पाले में आती हैं, तो उस राष्ट्रीय दल का स्वरूप कितना मजबूत होगा? सिद्धांतहीन, दृष्टिहीन और अदूरदर्शी लोग इर्न दिल्ली का प्रशासन संभालेंगे, तो हालत कैसी होगी, यह स्पष्ट है। हमारी घरेलू परिस्थितियों और अंतरराष्ट्रीय समूह इसकी अनुमति नहीं देते।
देाश् में तीसरे मोर्चे के लिए एक कोशिश जयललिता और नवीन पटनायक ने मिलकर की थी, पर यह फलभूत नहीं हो पाई। उनके विचार लोगों को अच्छे नहीं लगे। अच्छा भी हुआ। केवल स्वार्थवश किए जाने वाले गठबंधन से देश का भला नहीं हो सकता। इन हालात में यही सवाल उठ खड़ा होता है कि यदि राष्ट्रीय दल बार-बार अपने सिद्धांतों की तिलांजलि देकर क्षेत्रीय दलों के आगे झुकेंगे, तो वे इसका पूरा फायदा उठाने में नहीं चूकेंगे। यदि दोनों दल मिलकर यह तय कर लें कि चाहे कुछ भी हो जाए, हम अपने पार्टी के सिद्धांतों से अलग किसी प्रकार का समझौता नहीं करेंगे। भले ही हमारे वोटों में कटौती हो जाए, फिर क्या मजाल क्षेत्रीय दल उन पर हावी हो सके। यदि दोनों ही राष्ट्रीय दल अपने सिद्धांतों के साथ उजले चेहरे लेकर जनता जनार्दन के सामने जाते हैं, तो निश्चित रूप से कुछ समय के लिए राजनीतिक अस्थिरता का वातावरण पैदा हो जाएगा, पर देश को बचाने के लिए उसके हित के लिए यह कोई बड़ी बाधा नहीं है। राष्ट्रीय दल ही कमजोर साबित हो रहे हैं। इसलिए क्षेत्रीय दलों की बन आई है। राष्ट्रीय दल अपनी नीतियों पर भरोसा करें, और उजले चेहरे के साथ जनता से वोट मांगें, तो आवश्यकता नहीं है, ममता के नखरे की और न ही मुलामय की कृपा की। मजबूत दलों से ही मजबूत प्रजातंत्र का निर्माण होगा।
ममता बनर्जी ने जिस बेरुखी से यूपीए सरकार पर जो आपत्तियां उठाई हैं, उससे उनके रुख का पता चल जाता है। उधर प्रमुख विरोधी गठबंधन एनडीए की हालत तो उससे भी अधिक खराब है। अब शिवसेना को ही ले लो, यह दल भाजपा के साथ है, किंतु इसने पहले ही कह दिया कि वे डॉ कलाम को अपना समर्थन नहीं देंगे। जनता दल यूनाइटेड ने भी पहले ही कह दिया कि उनकी पहली पसंद प्रणब मुखर्जी हैं। इससे स्पष्ट है कि यह आज ऐसा कोई भी दल ऐसा नहीं है, जो अंतर्कलह से ग्रस्त न हो। दल चाहे छोटा हो या बड़ा, उसके भीतर की अकुलाहट बयानों के रूप मे ंबाहर आ रही हैं। भाजपा की हालत तो और भी खराब है। उस दल से विवाद बाहर आते ही रहते हैं। हाल ही में नरेंद्र और संजय जोशी का विवाद बाहर आया। इसके बाद मेनका गांधी ने बयान दिया कि भगवा दल में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। पार्टी की हालत ऐसी हो गई है कि हम न चाहकर भ निर्दलीय पी.ए. संगमा को अपना समर्थन देने को विवश हैं। उनके मुकाबले यूपीए का पलड़ा भारी लग रहा है। पर इससे मिलते संकेतों से पता चलता है कि दोनों ही राष्ट्रीय दलों में नई विकलांगता आ गई है। पहले तो दोनों ने ही राष्ट्रीय स्तर पर अपनी छवि को धूमिल किया है, अब पार्टी के अनुशासन को भी दीमक लग गई है। यह भारतीय राजनीति के लिए अशुभ संकेत हैं।
टीवी पर संसद की कार्यवाही का प्रसारण देखने से पता चलता है कि क्षेत्रीय दल कहीं से भी इस बात के लिए चिंतित नहीं है कि अन्य देशों की सीमाओं से लगे राज्यों की हालत कैसी है? सीमावर्ती राज्यों की हालत पर किसी भी चिंता नहीं। अपनी इसी पीड़ा को एक राज्य के मुख्यमंत्री ने शब्द दिए, उनका मानना था कि मैं राष्ट्रीय दल का सदस्य हूं, इस राज्य का मुख्यमंत्री भी हूं, मेरे राज्य की सीमा पर चीन दखल दे रहा है। उसकी गतिविधियां संदिग्ध लग रही हैं। मैंने कई बार इसके लिए उच्च स्तर पर बात की, पर कोई लाभ नहीं हुआ। इसके बजाए यदि मैं किसी क्षेत्रीय दल का प्रतिनिधित्व करता होता, तो शायद मेरी शिकायत को ध्यान से सुना जाता। राष्ट्रीय दलों पर क्षेत्रीय दलों का दबाव आज कुछ इस तरह से सामने आ रहा है। ऐसी बात नहीं है कि सीमाओं की हालत खराब है। आतंकवाद के खिलाफ मुस्तैदी से लड़ने वाली देश में ऐसी कोई प्रभावशाली एजेंसी भी नहीं है। देश के कानून केंद्र और राज्यों के बीच घर्षण पैदा कर रहे हैं। दोनों के बीच आरोप-प्रत्यारोप के दौर चलते ही रहते हैं। एक तरफ देश के नेता अपनी संतानों को विदेश भेजकर संतुष्ट हो जाते हैं, दूसरी तरफ देश की संघीय संरचना को नकारते हैं। ऐसी हालत मुगल शासन के अंतिम समय पर थी। उन दिनों दिल्ली की ताकत घट रही थी और सूबेदार अपनी मनमानी पर उतर आए थे। क्षेत्रीय दलों की बढ़ती ताकत इसी ओर इशारा कर रही है। यदि ऐसा न होता, तो आज ममता बनर्जी केंद्र के सभी निर्णयों पर टांग न अड़ातीं। एनटी रामाराव ने जब तेलुगुदेशम पार्टी बनाई थी, तब यह सवाल खड़े हुए थे कि इस प्रकार से इन क्षेत्रीय दलों की सार्वभौमिकता आखिर क्या है? राष्ट्रीय दल इस तरह के सवालों पर विचार नहीं करते। पर उनके सहयोगी दल अब उनके लिए उतने अधिक मददगार साबित नहीं हो पा रहे हैं। आज क्षेत्रीय दलों की अड़ंगेबाजी के कारण राष्ट्रीय दल स्वयं को बुरी तरह से असहाय नजर पा रहे हैं।
1980 में कांग्रेस के पास 42.68 प्रतिशत मत थे, 2009 में उसमें 14 प्रतिशत की कटौती हो गई। यही हाल भाजपा की है। 1998 में भाजपा के पास 25.6 प्रतिशत वोट थे, 2009 में उसमें 7 प्रतिशत की कटौती हो गई। इसका सीधा अर्थ यही हुआ कि इन राष्ट्रीय दलों ने अपने वोट क्षेत्रीय दलों को लुटा दिए। निकट भविष्य में होने वाले लोकसभा चुनाव में इनके वोटों में कमी आएगी, यह तय है। राष्ट्रीय दल आज जनता की नजरों में अच्छे नहीं रहे, इसीलिए क्षेत्रीय दल आगे आ रहे हैं। यदि राष्ट्रीय दल जिस तरह से वोट के लिए जद्दोजहद करते हैं, उसी तरह नागरिकों के हितों के लिए करें, तो कोई बात ही नहीं है कि वे जनता की नजरों में गिर जाएं। वोट लेते ही जिस तरह से आज राष्ट्रीय दल जनता से कोई वास्ता नहीं रखते, उसी का कारण है कि वे आज जनता की नजरों में लगातार गिर रहे हैं। क्षेत्रीय दलों पर बढ़ता विश्वास इसी का प्रतिफल है। भाजपा पंजाब में अकाली दल और बिहार में जनता दल यू की बदौलत सत्ता में आई थी। यही हालत पश्चिम बंगाल में कांग्रेस की है। येद्दियुरप्पा आज हाईकमान को आंख दिखा रहे हैं। दिल्ली में बठे उनके नेता अपनी इज्जत बचाने की मशक्कत कर रहे हैं। आंध्र में जगन मोहन रेड्डी बगावत करते हैं, तो राष्ट्रीय दल के रूप में पहचान कायम करने वाली कांग्रेस डगमगाने लगती है। इसका असर राष्ट्रपति चुनाव में साफ दिखाई देगा, जब हम देखेंगे कि इसमें भी क्रास वोटिंग हुई है। जुलाई में ही इस तरह के कई तमाशे देखने को मिलेंगे। ये छोटी-छोटी पटकथा लोकसभा चुनाव के लिए ही लिखी जा रही है। सबसे बड़ी आशंका यह है कि यदि दोनों ही राष्ट्रीय दल मिलकर अपनी 75 सीटें गुमाती हैं और ये सीटें क्षेत्रीय दलों के पाले में आती हैं, तो उस राष्ट्रीय दल का स्वरूप कितना मजबूत होगा? सिद्धांतहीन, दृष्टिहीन और अदूरदर्शी लोग इर्न दिल्ली का प्रशासन संभालेंगे, तो हालत कैसी होगी, यह स्पष्ट है। हमारी घरेलू परिस्थितियों और अंतरराष्ट्रीय समूह इसकी अनुमति नहीं देते।
देाश् में तीसरे मोर्चे के लिए एक कोशिश जयललिता और नवीन पटनायक ने मिलकर की थी, पर यह फलभूत नहीं हो पाई। उनके विचार लोगों को अच्छे नहीं लगे। अच्छा भी हुआ। केवल स्वार्थवश किए जाने वाले गठबंधन से देश का भला नहीं हो सकता। इन हालात में यही सवाल उठ खड़ा होता है कि यदि राष्ट्रीय दल बार-बार अपने सिद्धांतों की तिलांजलि देकर क्षेत्रीय दलों के आगे झुकेंगे, तो वे इसका पूरा फायदा उठाने में नहीं चूकेंगे। यदि दोनों दल मिलकर यह तय कर लें कि चाहे कुछ भी हो जाए, हम अपने पार्टी के सिद्धांतों से अलग किसी प्रकार का समझौता नहीं करेंगे। भले ही हमारे वोटों में कटौती हो जाए, फिर क्या मजाल क्षेत्रीय दल उन पर हावी हो सके। यदि दोनों ही राष्ट्रीय दल अपने सिद्धांतों के साथ उजले चेहरे लेकर जनता जनार्दन के सामने जाते हैं, तो निश्चित रूप से कुछ समय के लिए राजनीतिक अस्थिरता का वातावरण पैदा हो जाएगा, पर देश को बचाने के लिए उसके हित के लिए यह कोई बड़ी बाधा नहीं है। राष्ट्रीय दल ही कमजोर साबित हो रहे हैं। इसलिए क्षेत्रीय दलों की बन आई है। राष्ट्रीय दल अपनी नीतियों पर भरोसा करें, और उजले चेहरे के साथ जनता से वोट मांगें, तो आवश्यकता नहीं है, ममता के नखरे की और न ही मुलामय की कृपा की। मजबूत दलों से ही मजबूत प्रजातंत्र का निर्माण होगा।