गुरुवार, 4 अक्तूबर 2012

अब मुंडेर पर नहीं बोलता कागा


दैनिक जागरण के राष्‍ट्रीय संस्‍करण में आज प्रकाशित मेरा आलेख


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अब मुंडेर पर नहीं बोलता कागा
डॉ- महेश परिमल 
श्राद्ध पक्ष आते ही कौवों की तलाश शुरू हो जाती है। हम अपने पुरखों को याद करते हैं। कौवों को खीर-पूड़ी देकर उन्हें व्यंजन खिलाते हैं। इस बहाने उन झुर्रीदार चेहरों को याद कर लेते हैं, जो एक समय हमारे घर के एक कोने पर भूखे-प्यासे सिमटे से पड़े रहते थे। खैर रसखान कह गए हैं कि काग के भाग बड़े सजनी, जिसे यह मौका मिला कि वह ईश्वर के हाथ की रोटी ले भागा। यह बात तब की है, जब इस देश में कौवे थे, आज वे कहां हैं, किसे दें हम खीर-पूड़ी? कैसे मनाएं उन्हें? हमने ही तो बर्बाद कर दिया, अपने आसपास का पर्यावरण। सालभर तो उसकी याद तक नहीं आती, पर जब पुरखों को याद करना होता है, तब याद आती है कागा की। कागा जो हमारे साथी थे, हमारे आसपास रहते थे, आज हमने उन्हें नाराज कर दिया है। वे हमारे पास नहीं हैं। अब तो वे किसी के खत के आने का संकेत भी नहीं देते। क्यों भूल गए हम कागा को? रसखान ने इस पंक्ति के माध्यम से कागा को श्रेष्ठ पक्षी की उपमा दी है, लेकिन आज का मनुष्य जीव कितना स्वार्थी है कि श्राद्ध पक्ष में कौवों को ढूंढ़-ढूंढ़कर खीर-पूड़ी खिलाने की चाहत रखने वाला यही मानव बाकी समय यदि अपने आसपास किसी कौवे को देख भी लेता है, तो उसे तुरंत भगाने से नहीं चूकता। इसे अपशकुनी माना जाता है, पर इसकी विशेषता से शायद हम अभी तक अनभिज्ञ हैं। एक जमाना था जब हमारी मुंडेर पर कौवा कांव-कांव करता था तो घर के बुजुर्ग यही कहते थे कि आज घर पर कोई चिट्ठी या मेहमान की आमद होने वाली है। आज ई-मेल के जमाने में यह बात हमें भले ही नागवार गुजरती हो, पर यह सच है कि आगत परिस्थितियों को पहचानने में कौवे में अद्भुत क्षमता होती है। हमारे समाज के लिए यह कतई अपशकुनी नहीं है, अपशकुनी तो हम हैं कि इन्हें वर्ष में मात्र कुछ ही दिन याद करते हैं। बाकी दिनों में इसे भुला दिया जाता है। इसे यदि हम पर्यावरण के रक्षक के रूप में देखें, तो हम पाएंगे कि यह मानव जाति का सच्चा सेवक है। एक समय वह भी था, जब कौवे सभी जगह आसानी से दिखाई दे जाते थे, लेकिन आज स्थिति यह है कि ये कौए बड़ी मुश्किल से कभी-कभी ही दिखाई देते हैं। इनकी तेजी से घटती संख्या के कारण ही आज इनकी गणना एक दुर्लभ पक्षी के रूप में की जा रही है। इसे प्रकृति की मार कहें या पर्यावरण में आया बदलाव कि आज कौए की आधी से अधिक प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं। शेष बची प्रजातियों में से करीब 10-20 प्रतिशत कौए जंगलों में जाकर बस गए हैं। आज शहरी वातावरण में कौए बहुत कम पाए जाते हैं। ऊंची-ऊंची इमारतों की छत पर लगे टीवी एंटीना के कोने पर अब कौवे नहीं बैठते। उनकी कांव-कांव का शोर अब कानों को नहीं बेधता। कौओं की लगातार कम होती संख्या के पीछे हमारी उपेक्षा ही जवाबदार है। हमने कभी कौओं के प्रति अपनी प्रीति दिखाई ही नहीं। कौओं के मामले में हमने यह बात सिद्ध कर दी कि मानव स्वभाव स्वार्थी होता है। श्राद्ध पक्ष के दिनों में जब हमें पितरों की याद आती है, तो कौओं के माध्यम से हम अपनी श्रद्धा उन तक पहुंचाते हैं। बस तभी कागवास हेतु हमें कौए याद आते हैं, वरना तो कौए को देखते ही हम हाथों में लकड़ी लिए उसे उड़ाने का ही प्रयास करते हैं। कौआ एक घरेलू पक्षी है, उसके बाद भी हम हमेशा उसकी उपेक्षा ही करते हैं, लेकिन हकीकत यह है कि काली चमड़ी का कर्कश स्वर वाला यह कुरूप पक्षी चिडि़या से भी अधिक मिलनसार है। बार-बार यह हमारे आंगन में या छत पर बैठकर कांव-कांव की आवाज के साथ अपने होने का परिचय देता है। न केवल परिचय देता है, बल्कि हमारे द्वारा दुत्कारे जाने पर भी फिर से आता है और खुद हमारी तरफ मित्रता का हाथ बढ़ाता है। इसे इसकी मिलनसारिता न कहें तो यह क्या है? आंगन में फुदकती चिडि़या तो दाना चुगकर अपने घोंसले में चली जाती है, पर यह तो छोटे-मोटे कीड़े-मकोड़ों को अपना भोजन बना कर घर के आसपास की गंदगी को भी साफ करता है और हमें कई संक्रामक बीमारियों से भी बचाता है। हमारे देश में मान्यता है कि कौए में कई विशेषताएं हैं, जिस पर हमने कभी ध्यान ही नहीं दिया, पर यह सच है कि कौए को यह आभास हो जाता है कि लोक और परलोक में क्या होने वाला है। इन कौवों की अपनी भाषा होती है? काग विज्ञान के प्राचीन लेखकों ने काग भाषा की 32 पद्धतियों का वर्णन किया है। शकुन-अपशकुन पर कौवे का बहुत महत्व है। कहा जाता है कि यदि कौवा दाहिनी तरफ से घूमते हुए चक्कर लगाए, तो इसे शुभ माना जाता है। यदि उसे किसी डाली या पत्थर पर सर रगड़ते हुए देखा जाए, तो इसे भी शुभ माना जाता है। कौवा यदि माथे पर या घोड़े पर बैठा दिखाई दे, तो तुरंत वाहन मिलने की संभावना रहती है। मंदिर के शिखर पर या अनाज के ढेर पर बैठा कौवा भी शुभ का संकेत देता है। युद्ध में जाते हुए सैनिक को यदि सामने से आते हुए कौए दिखाई दें, तो समझा जाता है कि युद्ध में उसे पराजय का सामना करना पड़ेगा। यदि घर के आसपास दिनभर कौवे की कांव-कांव सुनाई दे, तो समझो कोई विपत्ति आने वाली है। यदि कौवा बीट कर दे, तो बीमार पड़ने या मुसीबत में फंसने की आशंका बन जाती है। पाश्चात्य देशों में मान्यता है कि यदि कौवा अकेले दिखाई दे, तो वह अशुभ है और यदि समूह में कौवे किसी एक व्यक्ति के आसपास उड़ते दिखाई दें तो समझिए कि उसका अंत समय निकट है। यदि कौवे सामूहिक रूप से जंगल से पलायन कर जाएं, तो समझो अकाल की विभीषिका या कोई और प्राकृतिक आपदा आने वाली है। भारतीय साहित्य में कहीं-कहीं कौवे के महत्व को दर्शाया गया है। तुलसीदास रामचरित मानस में राम की बारात किलने के समय होने वाले शकुन का वर्णन करते हुए लिखते हैं, दाहिन काग सुखेत सुहावा। रामचरित मानस के अनुसार राम की माता कौशल्या ने राम वन से सकुशल वापस आएं, इसके लिए कौवे के मुंह में घी-शक्कर डालने की और उसकी चोंच पर सोना चढ़ाने की इच्छा व्यक्त की थी। यह अपने आप में कोए के पौराणिक महत्व को दर्शाता है। कौए को पक्षी जगत का सबसे चालाक पक्षी माना जाता है। इसे आसानी से नहीं पकड़ा जा सकता। ये दिन में हमें भले ही यदा-कदा दिखाई दे जाएं, पर रात होते ही ये जंगल या उपवन में पेड़ पर अपना बसेरा कर लेते हैं। आजकल सिमटते जंगलों के कारण इनकी संख्या में लगातार कमी हो रही है और इसके कारण हम खुद ही हैं। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)


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