सोमवार, 19 अप्रैल 2010

क्यों होता है सरकारीतंत्र लचर और लाचार

डॉ. महेश परिमल
बिहार के रोहतास जिले का एक छोटा-सा गाँव, नाम है केनार। इस गाँव में 11 वर्ष पहले एक बड़ी घटना हुई। गाँव के एक रसूखदार ने एक व्यक्ति को सरेआम मार डाला, और उसकी संपत्ति अपने नाम कर ली। मृतक की विधवा के पास 7 साल के बेटे के सिवाय ओर कोई सहारा न था। अपने बेटे को लेकर वह न्याय की गुहार करने लगी। कभी प्रशासन से, कभी पुलिस से, कभी लोगों से। उसे हर जगह से दुत्कार दिया जाता। उस विधवा की सहायता के लिए कोई आगे नहीं आया। पूरे 11 वर्ष तक वह दर-दर की ठोकरें खाती रही। इस दौरान जहालत सहते हुए बेटा संदेश कुशवाहा संदेश कुशवाहा जवान हो गया। बेटे ने माँ का संघर्ष अपनी आँखों से देखा था। इसलिए उसका न्याय से विश्वास उठ गया। अंतत: उसने माओवादियों का रुख किया। उनके पास जाकर उसने आधुनिक हथियार चलाने का प्रशिक्षण लिया। कुछ ही समय बाद वह अपने साथियों की अगुवाई करने लगा। उसके दिमाग में बस यही बात थी कि किस तरह से माँ की पीड़ाओं का बदला लिया जाए। अंतत: वह दिन भी आ गया, जब उसने अपने 70 साथियों के साथ अपने गाँव पहुँचा। पूरे गाँव को घेरकर उसने पिता के हत्यारे और उसके बेटे को सबके सामने मार डाला। इस तरह से उसने अपना बदला ले लिया और अपने साथियों के बीच हीरो हो गया।
यह किसी फिल्म की कहानी नहीं है, बल्कि सत्य घटना है। अभी कुछ दिनों पहले ही यह घटना हुई। लोग दहल गए। उस रसूखदार ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उसका और उसके बेटे का ऐसा हश्र होगा। प्रशासन सतर्क हो गया। पुलिस छानबीन हुई। तब पता चला कि संदेश कुशवाहा की माँ ने कई बार न्याय की गुहार की थी। पर उसे प्रशासन द्वारा न्याय नहीं मिल पाया। अब प्रशासन भले ही यह कहता रहे कि हाँ उस विधवा को न्याय नहीं दे पाई सरकार। पर अब कुछ नहीं हो सकता। यदि संदेश कुशवाहा की घटना से कुछ प्रशासन को कोई सबक लेना हो, तो यही ले सकता है कि इस तरह की और कौन-सी घटना हुई है। उससे पीडि़त कोई न्याय की गुहार तो नहीं कर रहा है। निश्चित रूप से ऐसे कई मामले होंगे। यदि उन मामलों की छानबीन की जाए, तो अनेक संदेश कुशवाहा जैसे मामले निकल आएँगे। बस अब सरकार यह ठान ले कि अब एक भी संदेश कुशवाहा को नक्सली नहीं बनने दिया जाएगा। तो भविष्य में ऐसी नृशंस घटना कभी नहीं होगा।
पर क्या यह संभव है। आज सरकारी मशीनरी की लचर और लाचार है, यह किसी से भी छिपा नहीं है। बचपन से सुनता आ रहा हूँ कि जो अधिकारी बस्तर गया, वह मालामाल हो गया। जमीन-जायदाद से सम्पन्न। ऐसे अधिकारियों और कर्मचारियों के घर बस्तर की चीजें भी बहुतायत से मिलतीं थीं। आदिवासियों के हाथों की बनी ऐसी दुर्लभ चीजों को वे अपनों के बीच ऐसे ही बाँट दिया करते थे। पुलिस अधिकारियों की तो बात ही न पूछो, उन्हें तो मुफ्त के माल की ऐसी लत लग जाती थी कि वे कुछ भी अपने पैसे से नहीं खरीदते थे। बाद में पता चलता था कि बस्तर जाकर एक छोटा-सा पुलिस कर्मचारी भी लखपति बन जाता था। कई बार उनके काले कारनामे बाहर आते, तो पता चलता था कि उसने कई बार अपने पद का दुरुपयोग किया। बस्तर की बालाओं को वह अपने अधिकारियों के लिए पेश करता। यही हाल सरकारी अधिकारियों का होता। उनके भी काले कारनामे बाहर आते ही रहते। बस्तर जाकर वे भोग-विलास का जीवन जीते। जो मेहमान होकर उनके पास जाता, उन्हें भी बस्तर की बालाएँ पेश की जातीं। बरसों तक यह बस देखता-सुनता रहा हूँ। अब जाकर हालात में कुछ सुधार आया है।
निश्चित ही उस दौरान कई आदिवासी प्रताडि़त हुए होंगे। इन अधिकारियों ने अपने पद का दुरुपयोग तो किया ही होगा। स्पष्ट है सरकार द्वार आदिवासियों की दी जाने वाली तमाम सुविधाएँ उन तक पहुँचने के पहले ये अधिकारी ही हथिया लेते। आदिवासियों की हालत कभी नहीं बदली, अलबत्ता अधिकारियों की दशा और दिशा बदलने लगी। आज कई अधिकारी सेवानिवृत हो चुके हैं, कई खुदा को प्यारे हो गए हैं। पर उनके कारनामे किसी न किसी की जुबां से सुनने को मिल जाते हैं। जब इन भोले-भाले आदिवासियों ने देखा कि उनके गाँव में एक छोटी-सी किराने की दुकान लगाने वाला देखते ही देखते साहूकार बन बैठा, आदिवासी उससे कर्ज लेने लगे और वह उनकी जमीन, या फिर सरकार से मिलने वाले सुविधाओं का वह हकदार बन बैठा। शोषण की एक लंबी श्रृंखला बन गई। इनके खिलाफ सुनवाई भी नहीं होती। पूरा तंत्र ही भ्रष्ट हो गया था। ये शोषण से बाज नहीं आते। आदिवासियों की इसी नब्ज पर हाथ रखने का प्रयास किया, नक्सलियों ने। उन्होंने सबसे पहले तो आदिवासियों के सामने ही अत्याचार करने वाले अधिकारियों को प्रताडि़त करना शुरू किया। पुलिस अधिकारी भी इससे नहीं बचे। नक्सलियों की इस कार्रवाई से आदिवासियों को लगा कि ये हमारे मसीहा हैं। इसके बदले में नक्सलियों ने उनसे माँगा संरक्षण और पुलिस की तमाम जानकारियाँ। जिसे ये भोले-भाले आदिवासी समझ नहीं पाए। धीरे-धीरे नक्सलियों पर विश्वास बढऩे लगा। जब आदिवासियों ने देखा कि उन पर अत्याचार करने वाले अधिकारी या पुलिस कर्मचारी नक्सलियों के आगे किस तरह से लाचार दिखते हैं, तो उनके मन में भी नक्सलियों का जीवन जीने की ललक पैदा हो गई। वे भी खेल-खेल में हथियार चलाना सीखने लगे। फिर जब भी मौका पड़ा, तो इन्होंने भी अपना बदला निकालने में कोई कसर नहीं छोड़ी। फिर तो यह आदिवासियों के लिए एक खेल ही हो गया, जिससे उन्हें लगा कि अब ये हमारा शोषण नहीं करेंगे। अनजाने में वे नक्सलियों के शोषण का शिकार होने लगे, इसकी जानकारी उन्हें काफी समय बाद मिली। आज भी कई नक्सली क्षेत्र ऐसे हैं, जहाँ आदिवासी दोनों तरफ से शोषण का शिकार हो रहे हैं।
यदि नक्सलियों का समूल नाश करना है, तो सरकार को पहले उस भ्रष्ट तंत्र का सफाया करना होगा, जो नक्सली बनने के लिए विवश करता है। जिस तरह से डाकू समस्या का अंत करने के लिए पुलिसतंत्र में कायाकल्प की आवश्यकता है, ठीक उसी तरह नक्सलियों के खिलाफ माहौल बनाने के लिए आदिवासियों का विश्वास जीतना आवश्यक है। पद का दुरुपयोग करने वाले सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों को चुन-चुन आदिवासियों के सामने लाकर दंड देना होगा। ताकि फिर कोई संदेश कुशवाहा न बनने पाए। अत्याचार से ही उपजती है बदले की कार्रवाई। अत्याचार कभी तो रंग लाएगा, फिर चाहे वह सरकार का हो या फिर नक्सलियों का। सरकार अत्याचार की जड़ तक पहुँचे, आदिवासियों पर विश्वास करे, तभी आदिवासी भी उन पर विश्वास करेंगे। विश्वास से ही विश्वास का जन्म होता है। जुल्म का मुसलसल सिलसिला जारी है, उसे दूर किया जाना बहुत जरुरी है। अन्यथा कई संदेश कुशवाहा पैदा होते रहेंगे और अपना बदला लेते रहेंगे।
डॉ. महेश परिमल

2 टिप्‍पणियां:

  1. आपने एकदम सच कहा है । जबतक समस्या का जड़ नहीं मिटेगा, तब तक समस्या का निबारण नहीं होगा । पर इसके लिए ज़रूरी है मानसिकता बदलना....क्या यह हो सकता है ? मानव मन से लोभ को मिटा पाना क्या इतना आसान है ? जो काम सदियों की शिक्षा और संस्कार नहीं कर पाया क्या वो अब हो पायेगा ? और फिर समस्या अब इतनी भयानक रूप धारण कर चुकी है कि तत्काल प्रभाव के लिए कठोर कदम उठाने कि ज़रुरत है । आपने जो कहा है वो भी ज़रूरी है ।

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