शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

लोकजागरण के अप्रतिम आस्था थे सप्रे जी


पुण्यतिथि पर विशेष
रमेश शर्मा
समूची १९ वीं सदी को भारतीय पत्रकारिता के मानक मूल्यों के लिहाज से स्वर्णयुग मानने वालों की कमी नहीं है। उस सदी की शुरुआत में ही छत्तीसगढ़ के पेंड्रा इलाके से हिंदी पत्रकारिता की मशाल लिए लोकजागरण की राह पर चले पं. माधवराव सप्रे की आज पुण्य तिथि है। सन्‌ १९०० में उन्होंने हिंदी मासिक "छत्तीसगढ़ मित्र" के रूप में पहला अखबार निकाला। इसी पत्रिका में हिंदी की पहली कहानी "एक टोकरी भर मिट्टी" प्रकाशित की गई थी। यह समूचे इलाके में अशिक्षा और कुरीतियों के खिलाफ एक मुखर आवाज बनकर उभरा। महान समाजसेवी, प्रबुद्घ विचारक और शिखर शिक्षा नायक सप्रे जी आजादी पूर्व की उस पीढ़ी से थे, जिनके लिए कथनी और करनी में कोई भेद नहीं होता था। तब देश अंग्रेजों का गुलाम था। गुलामी की यह जंजीरें सिर्फ शासन तंत्र के पाँवों पर ही नहीं थी, बल्कि अज्ञानता, कुरीतियों और अंधविश्वासों की बेड़ियों ने भी समाज को सदियों से जकड़ रखा था। इसी दौर में सप्रे जी ने छत्तीसगढ़ को चुना और लोकजागरण के लिए खुद को झोंक दिया। जब वे दस वर्ष के थे, तब पिता का साया उठ गया। संघर्षों की आँच में वे तपे और शिक्षा के प्रकाश से स्वयं और समाज को आलोकित करते रहे। जनवरी १९०० में "छत्तीसगढ़ मित्र" के प्रथम अंक में "आत्म परिचय" देते हुए उन्होंने लिखा-"जिस मध्यप्रदेश में लोक शिक्षा का परिमाण बिल्कुल कम है और उसके विभाग(छत्तीसगढ़) में वह केवल शून्यवत है। वहाँ विद्या वृद्घि के लिए आधुनिक नूतन मार्ग निकाले जाएँ, अर्थात नई-नई शालाएँ स्थापित की जाएँ, विद्यार्थियों को आर्थिक सहायता दी जाए। भाषा के सुलेखकों को उत्तेजन दिया जाए, गं्रथ प्रकाश करने वाली मंडलियाँ उपस्थित की जाएँ, प्रकाशित ग्रंथों की समालोचना करने वाली ग्रंथ परीक्षक सभाएँ बनाई जाएँ और समाचार-पत्र तथा मासिक पुस्तक प्रसिद्घ की जाएँ-यह हमारा अंतिम उद्देश्य है।" उस दौर में अखबार को ख्याति तो बहुत मिली, लेकिन तब विज्ञापन देने का रिवाज नहीं था। लागत, वितरण के भी खर्चे बढ़ने लगे। पहले वर्ष में "छत्तीसगढ़ मित्र" को १७५ रुपए और दूसरे वर्ष ११८ रुपए का घाटा उठाना पड़ा। इस क्षति के एवज में भरसक सहयोग की माँग की जाती रही। लेकिन, घाटा बरकरार रहा। लिहाजा "छत्तीसगढ़ मित्र" बंद हो गया। तब सप्रे जी ने भरे मन से लिखा-"परमात्मा के अनुग्रह से जब "छत्तीसगढ़ मित्र" स्वयं सामर्थ्यवान होगा, तब वह फिर कभी लोकसेवा के लिए जन्मधारण करेगा।" इस पत्र के बंद होने के बाद भी आगे सप्रे जी ने हिंदी ग्रंथमाला, हिंद केसरी, कर्मवीर इत्यादि का प्रकाशन किया। शिक्षा के प्रति सप्रे जी का विशेष आग्रह था। उन्होंने १९११ में रायपुर में जानकीदेवी महिला पाठशाला स्थापित की। इसके लिए वे गैर सरकारी सहयोग की दिशा में आगे बढ़े। १९१६ में उन्होंने जब लोकमान्य तिलक की "गीता" का अनुवाद किया तो उन्होंने राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कर ली। इस एक सच्चे शिक्षक के रूप में सप्रे जी ने अपने जीवनकाल में अनेक प्रतिभाओं को तराशा और उनसे बिना कोई फीस लिए उनकी शिक्षा-दीक्षा का प्रबंध किया। आज देश में महिलाओं के आरक्षण पर बहस सर्वानुमति की तरफ जाती नजर आ रही है। दूरदर्शी सप्रे जी ने आज से सौ साल पहले देख लिया था कि देश की आधी आबादी महज घूँघट निकाले चूल्हा-चौकी में पिसकर रह जाती हैं। उन्होंने स्त्री शिक्षा पर कोरे भाषण नहीं दिए, बल्कि उनके लिए शिक्षण संस्थान शुरू कराया, जिसका व्यवस्थापन उन्होंने खुद संभाला। उन्होंने "कर्मवीर" जबलपुर से निकाला और पेंड्रा से "छत्तीसगढ़ मित्र"। वे स्वयं मराठी भाषी थे, मगर हिंदी के प्रति उनकी अगाध श्रद्घाभक्ति जीवनपर्यंत कायम रही। उन्होंने मराठी के श्रेष्ठ साहित्य को हिंदी में स्वयं अनूदित किया। सादगी और त्याग की वे हमेशा मिसाल बने रहे। तपोभूमि छत्तीसगढ़ से उनको हमेशा लगाव रहा। २३ अप्रैल १९२६ को उन्होंने आखिरी साँस रायपुर में ली।
रमेश शर्मा

2 टिप्‍पणियां:

  1. महान देशभक्त, समाजसेवी, साहित्यकार, पत्रकार को मेरा भी नमन।

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  2. सप्रे जी की प्रेरक स्‍मृति को सादर नमन.

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