गुरुवार, 9 दिसंबर 2010
देवास की गूँज दिल्ली तक सुनी जानी चाहिए
डॉ. महेश परिमल
कुछ समय से छत्तीसगढ़ में कई स्थानों पर छापे पड़े, जिसमें साधारण से सरकारी कर्मचारी के यहाँ से करोड़ों रुपए मिले। दूसरी ओर कई ऐसे स्थानों पर भी छापे के दौरान अकूत सम्पत्ति का पता चला। सरकारी धन का अपने स्वार्थ के लिए मनमाना उपयोग करने वाले ऐसे अधिकारियों के लिए देवास की अदालत का एक फैसला मिसाल पैदा कर सकता है, जिसमें एक लोक निर्माण विभाग के उपयंत्री के यहाँ छापे में 50 लाख रुपए से भी अधिक सम्पत्ति मिली। अदालत ने उस पर 5 करोड़ रुपए जुर्माना लगाया है और तीन साल की कैद की सजा सुनाई है।
भ्रष्टाचार आज हमारे देश के लिए एक ऐसा नासूर बन गया है, जो लगातार हमारी जड़ों को खाए जा रहा है। ऐसे में अदालत के फैसले ही इस अंधेरे में रोशनी की किरण बन सकते हैं। अदालत के फैसले का आज भी सम्मान होता है। भले ही आज कानून कुछ लोगों की गिरफ्त में आ गया हो, पर आम आदमी आज भी कानून पर भरोसा रखता है। ऐसे में यदि किसी भ्रष्टाचारी को दंड देना हो, तो देवास की अदालत का फैसला एक नजीर बन सकता है। आय से अधिक सम्पत्ति रखने के आरोप में पकड़े गए उपयंत्री पर 5 करोड़ रुपए का जुर्माना लगाते हुए अदालत ने जो कुछ कहा वह भी महत्वपूर्ण है। अदालत का कहना था कि भ्रष्ट लोकसेवक व व्यवसायी अपनी अनुपातहीन संपत्ति इतनी चतुराई से रखते हैं कि उन्हें पकड़ पाना लगभग असंभव हो चुका है। उनके मन में यह धारणा पक्की हो चुकी है कि उनकी अनैतिक गतिविधियों को पकड़ा नहीं जाएगा और वे चतुराई से जनता की मेहनत से कमाई संपत्ति को हड़पते रहेंगे। उन्हें ऐसा दंड दिया जाना चाहिए, जिससे उनके मन में भय पैदा हो कि जिस दिन वे पकड़े जाएंगे, उस दिन भ्रष्ट साधनों से अर्जित संपत्ति दंडित किए जाने की तारीख से मूल्य सहित उनके पास से वापस चली जाएगी।
करीब 30 वर्ष पूर्व एक फिल्म आई थी ‘दुश्मन’। इस फिल्म में ट्रक ड्राइवर नायक से उसकी गाड़ी के नीचे आने से एक व्यक्ति की मौत हो जाती है, जज उसे मृतक के परिवार को पालने की सजा देते हैं। पहले तो नायक को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है, बाद में स्थिति सामान्य हो जाती है। फिल्म के अंत में नायक जज के पाँवों पर गिरकर अपनी सज़ा बढ़ाने की गुहार करता है। यह एक ऐतिहासिक निर्णय था। सजा ऐसी होनी चाहिए, जिससे सजा भुगतने वाले को ऐसा लगे कि वास्तव में मैंने अपनाध किया है। यह उसी की सजा है। प्रायश्चित के इस भाव के साथ भुगती जाने वाली सजा अपना असर दिखाती है। सजा भीतर के इंसान को जगाने वाली होनी चाहिए। जो सजा हैवान को जगाए, उसे सजा नहीं कहा जा सकता। अदालतों ने कई बार जरा हटकर सजा सुनाने की कोशिश की है। एक बार एक विधायक को अदालत ने गांधी साहित्य पढऩे की सजा दी थी। एक सेलिब्रिटी को झोपड़पट्टी इलाके में एक सप्ताह बिताने की सजा दी थी। इस तरह से यदि लीक से हटकर सजा सुनाई जाए, तो उससे सजा भुगतने वाले को यह अहसास होगा कि सचमुच यह तो बहुत ही बड़ी जटिल सजा है। एक लखपति अपराधी को यदि हजार रुपए का जुर्माना कर भी दिया गया, तो उसे क्या फर्क पड़ता है। पर उसे रिक्शा चलाकर एक निश्चित आमदनी रोज अदालत में जमा करने को कहा जाए, तो यह प्रायश्चित वाली सजा होगी।
सजा पाने वाला हमेशा अपराधी नहीं होता, यह हम सब जानते हैं। पर जो जानबूझकर अपराध करते हैं, उनके लिए सजा ऐसी होनी चाहिए कि दूसरे भी उसे एक चेतावनी के रूप में लें। सोचों, वह दृश्य कितना सुखद होगा, जब हम देखेंगे कि एक नेता पूरे एक हफ्ते तक झोपड़पट्टियों में रहकर वहाँ रहने वालों की समस्याओं को समझ रहा है। एक मंत्री ट्रेन के साधारण दर्जे में यात्रा कर यात्रियों की समस्याओं को समझने की कोशिश कर रहा है और एक साहूकार खेतों में हल चलाकर एक किसान की लाचारगी को समझने की कोशिश कर रहा है। यातायात का नियम तोडऩे वाला शहर के भीड़-भरे रास्तों पर साइकिल चला रहा है। वातानुकूलित कमरे में बैठने वाला अधिकारी कड़ी धूप में खेतों पर खड़े होकर किसान को काम करता हुआ देख रहा है। बड़े-बड़े उद्योगपतियों की पत्नियाँ झोपड़पट्टियों में जाकर गरीबों से जीीवन जीने की कला सीख रही हैं। यह दृश्य कभी आम नहीं हो सकता। बरसों लग सकते हैं, इस प्रकार के दृश्य आँखों के सामने आने में। पर यह संभव है। यदि हमारे देश के न्यायाधीश अपने परंपरागत निर्णयों से हटकर कुछ नई तरह की सज़ा देने की कोशिश करें। ज़ेल और जुर्माना, यदि तो परंपरागत सज़ा हुई, इससे हटकर भी सजाएँ हो सकती हैं।
मनुष्य की प्रवृत्ति होती है, बहाव के साथ चलना। जो बहाव के साथ चलते हैं, उनसे किसी प्रकार के नए कार्य की आशा नहीं की जा सकती है। किंतु जो बहाव के खिलाफ चलते हैं, उनसे ही एक नई दिशा की आशा की जा सकती है। कुछ ऐसा ही प्रयास पूर्व में कुछ हटकर निर्णय देते समय जजों ने किया है। अगर ये जज हिम्मत दिखाएँ, तो कई ऐसे फैसले दे सकते हैं, जिससे समाज को एक नई दिशा मिल सकती है। आज सारा समाज उन पर एक उम्मीद भरी निगाहों से देख रहा है। आज भले ही न्यायतंत्र में ऊँगलियाँ उठ रही हों, जज रिश्वत लेने लगे हों, बेनाम सम्पत्ति जमा कर रहे हों, ऐसे में इन जजों पर भी कार्रवाई होनी चाहिए, जब वे भी एक साधारण आरोपी की तरह अदालतों में पेशी के लिए पहुँचेंगे, तब उन्हें भी समझ में आ जाएगा कि न्याय के खिलाफ जाना कितना मुश्किल होता है।
डॉ. महेश परिमल
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अभिमत
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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