बुधवार, 15 दिसंबर 2010
छत्तीसगढ़ में उर्दू शायरी की पहचान ‘कौसर’
वीरेन्द्र बहादुर सिंह
दोस्तों की शादी में सेहरा लिखते-लिखते, मौलाना लोगों की तक़रीर में पैगम्बरे इस्लाम की शान में नात लिखकर पढ़ते-पढ़ते, मटका पाटी वालों को फिल्मी धुन में गीत लिख कर देते-देते ‘कौसर’ उर्दू के नामवर शायर बन गये। उन्हें सपने में भी ये गुमान नहीं था कि उनका शेरो-सुख़न का जुनून उन्हें ऐसे मान-सम्मान से विभूषित करेगा जो उनके प्रशंसकों और उनकी कर्मभूमि राजनांदगांव के लिए गौरव की बात होगी। मौजूदा समय में ‘कौसर’ एक शायर की हैसियत से उस मुक़ाम पर हैं जहां पहुंचना लोगों का सपना होता है।
पिछले लगभग तीन दशकों से राष्ट्रीय और अंतरराष्र्ट्रीय स्तर पर ऊदरू और हिन्दी की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में अपनी ग़ज़लों और नÊमों के कारण चर्चा में आये शायर अब्दुस्सलाम ‘कौसर’ ने अपने गुणवत्तामूलक लेखन से छत्तीसगढ़ के उर्दू अदब को राष्ट्रीय स्तर की ख्याति दिलाई है। छत्तीसगढ़ में उर्दू अदब के प्रति पर्याप्त माहौल नहीं होने के बावजूद ‘कौसर’ की ग़ज़लों और नज़्मों के लगातार प्रकाशित होने के कारण ही उर्दू के नक्शे पर छत्तीसगढ़ का नाम तेज़ी से उभर कर सामने आया है। ‘कौसर’ छत्तीसगढ़ में उर्दू शायरी की पहचान बन चुके हैं। यही कारण है कि ग़ज़लों और नज़्मों के सृजनात्मक लेखन में उत्कृष्ठ उपलब्धियां प्राप्त करने एवं उर्दू साहित्य में गुणवत्तामूलक लेखन करते हुए छत्तीसगढ़ में उर्दू भाषा का अनुकरणीय माहौल तैयार करने के लगन को देखते हुए छत्तीसगढ़ राज्य सरकार ने जनाब अब्दुस्सलाम ‘कौसर’ को उर्दू भाषा की सेवा के लिए ‘हाजी हसन अली सम्मान’ से विभूषित किया है। छत्तीसगढ़ राज्य स्थापना दिवस की दसवीं वर्षगांठ के अवसर पर 01 नवम्बर 2010 को ‘कौसर’ को राजधानी रायपुर में हाजी हसन अली सम्मान से विभूषित किया गया। समारोह के मुख्य अतिथि राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरूण जेटली एवं मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने ‘कौसर’ को दो लाख रूपये का चेक, प्रशस्ति पत्र, शाल एवं श्रीफल भेंटकर सम्मानित किया।
अपने समकालीन शायरों में अलग पहचान रखने वाले जनाब अब्दुस्सलाम ‘कौसर’ का जन्म 09 जनवरी 1948 को रायपुर जिले के ग्राम खरोरा में हुआ। उनके पिता का नाम श्री सिद्दीक अहमद था। ‘कौसर’ के जन्म के बाद उनका परिवार संस्कारधानी राजनांदगांव (छत्तीसगढ़) में आकर बस गया। ‘कौसर’ ने बी.एस-सी. एवं बी.टी.सी. तथा अदीबे-कामिल तक शिक्षा प्राप्त की है। सिर्फ़ पांचवीं तक उर्दू पढ़ने के पश्चात ‘कौसर’ ने उर्दू साहित्य का गहन अध्ययन किया। उर्दू शेरो-सुख़न और अदब का ‘कौसर’ ने इतना अध्ययन किया कि उन्हें हज़ारों शेर ज़ुबानी याद हैं।
दोस्तों की शादी में सेहरा लिखते-लिखते, मौलाना लोगों की तक़रीर में पैगम्बरे इस्लाम की शान में नात लिखकर पढ़ते-पढ़ते, मटका पार्टी वालों को फिल्मी धुन में गीत लिख कर देते-देते ‘कौसर’ उर्दू के नामवर शायर बन गये। उन्हें सपने में भी ये गुमान नहीं था कि उनका शेरो-सुख़न का जुनून उन्हें ऐसे मान-सम्मान से विभूषित करेगा जो उनके प्रशंसकों और उनकी कर्मभूमि राजनांदगांव के लिए गौरव की बात होगी। मौजूदा समय में ‘कौसर’ एक शायर की हैसियत से उस मुक़ाम पर हैं जहां पहुंचना लोगों का सपना होता है। दो करोड़ दस लाख की आबादी वाले छत्तीसगढ़ के किसी भी शहर में जब शेरों-सुख़न की चर्चा होती है हो ‘कौसर’ का नाम अदब, एहतेराम से लिया जाता है।
शेरों-सुख़न के विद्वान समालोचक ‘हनीफ़ नज्मी’ (हमीरपुर) ने ‘कौसर’ को ‘छत्तीसगढ़ में उर्दू ग़ज़ल की आबरू’ कहा है। छत्तीसगढ़ के उस्ताद शायर एवं वरिष्ठ पत्रकार काविश हैदरी ने स्वीकार किया है कि ‘कौसर’ एकमात्र ऐसे शायर हैं जो प्रकाशन के मामले में छत्तीसगढ़ के शायरों में सबसे आगे हैं। उनकी रचनाएं अब तक 130 पत्रपत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी है।
‘कौसर’ को ग़ज़लों के अलावा नज़्म लिखने में भी महारत हासिल है। उर्दू सहाफ़त (पत्रकारिता) के क्षेत्र में नई दिल्ली से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका ‘शमा’ विश्वस्तर पर उर्दू साहित्य की सर्वश्रेष्ठ पत्रिका मान ली गई थी। ‘शमा’ का क्रेज ऐसा था कि इसमें छपने की आस में कई लेखकों और शायरों की उम्र गुज़र जाती थी। ऐसी उत्कृष्ठ गौरवशाली पत्रिका में साठ-साठ, सत्तर-सत्तर मिसरों (पक्तियों) पर लिखी गयी नौ-नौ, दस-दस बंद की नज़्में क्रमश: लाटरी का तूफ़ान, मेरे हिन्दोस्तां, हवाले का शिकंजा, नया साल, कौन रहबर है तथा कंप्यूटर प्रकाशित होने से ‘कौसर’ राष्ट्रीय ही नहीं अपितु अंतर्राष्ट्रीय स्तर के शायरों की पंक्ति में आ गये।
पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की शहादत पर ‘कौसर’ की नज़्म ‘गद्दार क मजहब’ शायरों के लिए चर्चा का विषय बन गयी थी। राजनीति के दांव पेंच को बड़ी साफ़गोई के साथ पेश करने वाली इस नज़्म की दो बंद देखें-
और कुछ लोग वफ़ादारी का परचम लेकर
मौत का जश्न सलीके से मनाने निकले
अपनी औक़ात ज़माने को दिखाने के लिए
आग नफ़रत की दुकानों में लगाने निकले
‘इंदिरा गांधी’ हो या ‘लूथर’ या कोई ‘कैनेडी’
पैदा होते हैं हर एक दौर में और मरते हैं,
क़त्ल करके इन्हें ‘कौसर’ नए अंदाज के साथ
हम सियासत का नया दौर शुरू करते हैं
बाबरी मजिस्द के विध्वंस पर उनका आक्रोश इस प्रकार फूट पड़ा-
ये मसअला नहीं है कि गद्दार कौन है
पहले ये तय करो कि वफ़ादार कौन है
शुरू से ही कुछ अच्छा कहने की ललक में ‘कौसर’ ने शेरों-सुख़न, उर्दू जबानों-अदब का डूब कर गहन अध्ययन किया है। संकीर्ण मानसिकता से उपर उठकर उन्होंने इस्लाम ही नहीं हिन्दू और ईसाई धर्म से संबंधित साहित्य, वेद पुराण, गीता, रामचरित मानस, पौराणिक कथाओं और मान्यताओं का विशद अध्ययन किया है।
लगभग चार दशक तक शिक्षकीय पद पर कार्य करते हुए उन्होंने ग्रामीण क्षेत्रों में अपनी सेवाएं दी। इस दौरान गांव के परम्परागत त्यौहारों, सामाजिक मान्यताओं, लोकगीतों, लोकाचारों से उन्होंने अनुभूतिगम्य अनुभव प्राप्त किया है। व्यक्तिगत अनुभव की सूक्ष्म गहराई और गहन संवेदना ‘कौसर’ की शायरी में स्पष्ट दिखती है। सामान्य शब्द विन्यास के साथ दिल को छू लेने वाले शेर कहने से आम आदमी में भावनाओं की संप्रेषणीयता की वजह से आपका लोकप्रिय हो जाना कोई बड़ी बात नहीं है।
‘मेराज’ फै़जाबादी, ‘मंज़र’ भोपाली, ‘शायर’ जमाली, ‘जौहर’ कानपुरी जैसे शायरों के साथ कामठी (महाराष्ट्र) के आल इंडिया मुशायरे में जब ‘कौसर’ ने यह शेर पेश किया-
इधर रौनक़ मज़ारों पर उधर महलों में सन्नाटा
शहंशाहों की हालत पर फ़क़ीरी मुस्कराती है
तो इन्हें इस शेर पर बेहद दाद मिली। मुशायरे के बाद एक छात्रा को आटोग्राफ़ देते हुए जब कौसर ने उसकी डायरी पर ये शेर लिखा तो छात्रा ने सवाल करते हुए कहा-शायर साहब महलों में सन्नाटा क्यों रहता है? कभी इस पर गौर करें। ‘कौसर’ को यह बात याद रही और काफ़ी दिनों बाद उन्होंने दिल को छू लेने वाले अंदाज़ में ये क़तआ कहा-
दासियों के क़हक़हे और इशरतों की महफिलें
इन नज़ारों में ही खोकर जिन्दगी काटा हूं मैं
चीख किसकी दब गयी और बद्दुआ किसकी लगी
याद सब कुछ है मुझे महलों का सन्नाटा हूं मैं
उर्दू शायरी की शोहरत रंगे-तग़़ज्जुल यानि श्रृंगार रस से शराबोर भावनाओं की अभिव्यक्तियों की वजह से है। मुहब्बत, नफरत, तिरस्कार, हुस्न और इश्क की नोंक-झोंक, मिलन-विरह की संवेदना, महबूब की मासूमियत आदि-आदि को शायरों ने जिस ख़ूबी से अपनी ग़ज़लों और शेरों में पिरोया है उनकी मिसाल अन्य भाषाओं की कविताओं में मिलना मुश्किल है। ‘कौसर’ की ग़ज़लों में भी नज़ाकत से भरपूर ऐसे कई शेर मिलते हैं। चंद मिसालें पेश हैं:-
कभी सपने में भी सोचा न था ये हादसा होगा
मैं तुमको भूल जाऊंगा ये मेरा फ़ैसला होगा
नजर मिलते ही वो शरमा के जब भी सर झुकाती है
मुझे उस वक्त नाज़ुक लाजवंती याद आती है
बचा-बचा के नजर आंख भर के देखते हैं
वो आईना जो कभी बन संवर के देखते हैं
नज़र बचा के गुज़रना हमें क़ुबूल मगर
निगाहें नाज़ तेरी बेरूखी पसंद नहीं
दोस्ती, मिलनसारिता, वफादारी और बेवफ़ाई पर भी उनकी क़लम चली है। दोस्ती पर उनका क़तआ और कुछ शेर देखें-
मुस्कराती आरज़ूओं का जहां समझा था मैं
ज़िन्दगी का ख़ूबसूरत कारवां समझा था मैं
दोस्ती निकली फ़क़त कांटों की ज़हरीली चुभन
दोस्ती को गुलसितां ही गुलसितां समझा था मैं
न दोस्ती न मुरौव्वत न प्यार चेहरों पर
दिखाई देती है नक़ली बहार चेहरों पर
वफ़ा की एक भी सूरत नज़र नहीं आई
निगाह उठती रही बार-बार चेहरों पर
सियासत, सामाजिक व्यवस्था, शिष्टाचार, अध्यात्म पर ‘कौसर’ की गहरी पकड़ हैं। उनकी ग़ज़लों में इस अंदाज़ के शेर बड़े ख़ूबसूरत अंदाज़ में पेश हुए हैं। चंद मिसालें देखें -
चमन पे हक़ है तुम्हारा, मगर ये ख्याल रहे
मैं फूल हूं मुझे आवारगी पसंद नहीं
आस्तीनों में अगर सांप न पाले होते
अपनी क़िस्मत में उजाले ही उजाले होते
हम सियासत को तिजारत नहीं समझे वरना
अपने हाथों में भी सोने के निवाले होते
अध्यात्म पर ‘कौसर’ ने कई शेर और बेहतरीन शेर कहे हैं -
सुना है उसकी गली है निजात का रस्ता
सो हम भी उसकी गली से गुज़र के देखते हैं
चमन वालों ज़रा सोचो इबादत के लिए किसकी
हज़ारों साल से शबनम गुलों का मुंह धुलाती है
पतंगे, तितलियां, भंवरे ये सब किस धुन में रहते हैं
ये किसकी याद में कोयल विरह के गीत गाती है
मानसिक क्लेश, दर्द की गहन अनुभूति को ‘कौसर’ ने अपनी शायरी का ज़ेवर बनाया है। इस अंदाज़ के शेरों की संप्रेषणीयता में उनकी लेखनी का कमाल झलकता है।
न जाने कितने ज़ख्मों के दरीचे खोल देता है
टपकता है जो आंखों से लहू सब बोल देता है
जिन्हें रहना था महलों पे सरापा नाज़ की सूरत
मुक़द्दर चंद सिक्कों में उन्हें भी तोल देता है
सामाजिक विषमताओं ओर विद्रुपताओं पर भी उनके शेर दिल को छू जाते हैं।
हमारी मुफ़लिसी पर तंज़ करते हो थे मत भूलो
ख़ज़ानों की उठाकर फेंक दी है चाबियां हमने
ये दुनिया है यहां आसानियां यूं ही नहीं मिलती
बहुत दुश्वारियों से पाई हैं आसानियां हमने
उर्दू अदब में ‘कौसर’ की गहरी पकड़ है। सूफी-संतों, ऋषि-मुनियों की शालीनता ने उन्हें बेहद प्रभावित किया है। मीरा, रहीम, तुलसी और कबीर के दोहों से उन्होंने प्रेरणा ग्रहण की। मूलत: गज़ल और नज़्म लिखने वाले ‘कौसर’ से इन पंक्तियों के लेखक ने जब एक बार हिन्दी में कविता लिखने का आग्रह किया तो वे मुस्कुरा कर बात को टाल गये, लेकिन कुछ दिनों के बाद जब उन्होंने हिन्दी में ‘अमृत मंथन’ शीर्षक से लंबी कविता लिखी और वह प्रकाशित हुई तो साहित्य बिरादरी चौंक गयी। ‘अमृत मंथन’ भारतीय संस्कृति का निचोड़ हैं। हिन्दू धर्मग्रंथों और पौराणिक कथाओं के माध्यम से उन्होंने प्रभावी ढंग से अपनी बात रखी। आध्यात्म पर गहरी रूचि रखने वाले ‘कौसर’ की कविता अमृत-मंथन भाग एक और दो उनके विशद अध्ययन और गहरी अनुभूति का अहसास कराती है। दो बंद गौरतलब है-
जब पंचतंत्र पढ़कर भी मन प्यासा रह जाए
जब कार्ल मार्क्स का दर्शन कुछ न कर पाए
जब संत कबीर की वाणी सुनकर भी समाज में
जब दंभ का दानव अट्टहास ही करता जाए
जब युवा वर्ग को चरित्र हीनता निगल रही हो
जब अनुशासन का स्वस्थ प्रशासन क्यों कर हो?
एक और बंद दृष्टब्य है -
कुरूक्षेत्र में एक ही चेहरा सामने आये
विस्मित हृदय गोरखधंधा समझ न पाये
बर्बरीक ये विंध्याचल से देख रहा है
कृष्ण ही मारे और कृष्ण ही मरता जाए
जब विध्वंस-निर्माण ब्रम्ह की लीला ठहरी
तब बुद्घि और बोधि में अनबन क्यों कर हो
हिन्दी साहित्य में संस्कारधानी राजनांदगांव का नाम राष्ट्रीय ही नहीं वरन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्घ है। मानस मर्मज्ञ डॉ. बल्देव प्रसाद मिश्र, साहित्य वाचस्पति डॉ. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, नई कविता के पुरोधा गजानन माधव मुक्तिबोध ने अपनी रचनाधर्मिता से राजनांदगांव का नाम रोशन किया है। प्रकारांतर में क्रांतिकारी कवि कुंजबिहारी चौबे और डॉ. नंदूलाल चोटिया ने इस परम्परा को आगे बढ़ाया। हिन्दी साहित्य के साथ ही अब उर्दू साहित्य में भी निरंतर सृजनात्मक लेखन कर तथा हाजी हसन अली सम्मान से विभूषित होकर अब्दुस्सलाम कौसर ने राजनांदगांव ही नहीं समूचे छत्तीसगढ़ को गौरवान्वित किया है। यही वजह है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर की गज़ल सराई के साथ चलने वाले ‘कौसर’ का शुमार छत्तीसगढ़ के अग्रिम पंक्ति के शायरों में होता है।
वीरेन्द्र बहादुर सिंह़
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व्यक्तित्व
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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ये दुनिया है यहां आसानियां यूं ही नहीं मिलती
जवाब देंहटाएंबहुत दुश्वारियों से पाई हैं आसानियां हमने
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ऐसे उम्दा शेर दिल की गहराई और
सोच-समझ की ऊँचाई से ही कहे जा सकते हैं,
वरना ज़िन्दगी में ज़रा-सी आसानी की खातिर
आसान समझौते की कोई भी डगर चुन लेने के
दौर में कोई आश्चर्य नहीं कि शायरी के इस तेवर
को बचा पाने की दुश्वारियां कभी ख़त्म नहीं होतीं.
भाई 'कौसर' जी !
हमारी तहे दिल से मुबारक़बाद क़ुबूल करें.
बंधुवर वीरेन्द्र बहादुर सिंह..आपको इस सार्थक,
सधी हुई प्रस्तुति के लिए बधाई और
महेश भाई !
आपको इसे यहाँ साझा करने के लिए धन्यवाद.
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शुभकामनाओं सहित
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
मो.09301054300
respected kausar ji ki behatarin shaeri.gazalon se gujarate hue pathak apane jivan ka aks dekhata hai. behatarin gazalon k guldaste ki khasboo vicharon ko taro taza kar detin hain. bhai virendra bahadur singh ji avam aadrniya parimal sahab ko dhanyavad kausar ji ki rachanaon se rubaru karane k liye. munna babu
जवाब देंहटाएंmo 09300276183