शनिवार, 17 मई 2008

एक दिन के लिए हम सब एक हो जाएँ


डॉ. महेश परिमल
बिजली महँगी हो गई, कुछ दिन बाद गैस महँगी हो जाएगी।पेट्रोल के दाम भी बढ़ ही रहे हैं। ट्रेन यात्रा भी बहुत जल्द महँगी होने जा रही है, तय है बस-यात्रा पर भी इसका असर होगा। बच्चों की स्कूल की फीस हर साल बढ़ती है, साथ ही बढ़ जाते हैं स्कूल संचालकों के नखरे। डाक खर्च बढ़ गया, बरसों हो गए, किसी को चिट्ठी नहीं लिखी। सारी बातें फोन पर ही हो जाती है। ये सब आम आदमी के आसपास कसते शिकंजे हैं, जिनसे वह अनजान है। उसका जीना मुश्किल हो रहा है। हालात जीने नहीं देते, कानून मरने नहीं देता। ऐसे में इंसान क्या करे?
मुझे याद है, बचपन में पिताजी ने कहा था- बेटा, गेहूँ बारह आने से चौदह आने किलो हो गया है। कैसे जी पाएँगे इस महँगाई में। सरकारी स्कूल में पढ़ते हुए महीने की फीस जो मात्र आठ रूपए थी, उसे देने में हालत खराब हो जाती है। पिता मजदूर थे, जिन्दगी भर मजदूर ही रहे। पर आज जमाना बहुत आगे बढ़ गया है। जो जहाँ है, वह वहाँ रहना ही नहीं चाहता। उसे प्रगति प्यारी है। वह शार्टकट से ही सही, तेजी से आगे बढ़ना चाहता है। वह बढ़ भी रहा है, पर बहुत कुछ अपनापन छोड़कर।
सरकार की तमाम नीतियाँ आम आदमी को कागज में खास बना रही है, उसका जीवन स्तर सुधार रही हैं, उसे रोजगार के अवसर प्रदान कर रही है। इसे जानकर और कुछ पढ़क रवह आम आदमी इसे समझने का प्रयास करता है। सच्चाई से कोसों दूर सरकारी कागजी पुलाव उसे कुछ क्षणों के लिए भरमा रहे हैं। इस भरम को वह अपने बच्चों को नहीं खिला पाता, बच्चों को चाहिए भोजन। कहाँ से जाए उनके लिए भोजन? मजदूरी के पैसे से पेट भी मुश्किल से भर पा रहा है।
हम सब एक हैं, यह नारा अक्सर सुनाई देता है। युध्द के समय तो हम ऐसा प्रदर्शित भी करते हैं, पर क्या हम सचमुच एक हैं? एक अधिकारी केवल हस्ताक्षर करता है, लाखों पाता है, एक मजदूर दिन-भर हाड़-तोड़ मेहनत करता है, रोटी मुश्किल से खा पाता है। धनाढय बस्तियों के पास झुग्गी बस्ती भी होती है। दोनों का जीवन स्तर अलग-अलग है। फिर कैसे हम एक हैं?
यही बात है कि आम आदमी की याने इस मध्यमवर्गीय परिवार की हालत बद से बदतर होती जा रही है। गरीब ठंड में हाथ-पाँव सिकोड़कर, गर्मी में सड़क किनारे सोकर और बरसात में किसी के बरामदे में रात गुजार सकता है, पर मध्यमवर्गी! उसे तो गैस भी खरीदनी है, पेट्रोल भी खरीदना है, ट्रेन-बस में यात्रा भी करनी है, और बच्चों को बेहतर शिक्षा भी देना है, वह क्या करे? वह चीख नहीं सकता, वह कोई अनहोनी भी नहीं कर सकता।ऐसे में ''हम एक हैं'' का नारा कितना बेमानी हो जाता है?

जापान की एक जूता कंपनी थी। वहाँ के कर्मचारियों को अपनी माँगे मनवानी थी। प्रबंधन इसके लिए तैयार न था तब कर्मचारियों ने एक निर्णय लिया। उन्होंने केवल एक पाँव का जूता बनाना शुरू कर दिया। उत्पादन तो ठीक रहा, पर कुछ काम का नहीं था। अंत में प्रबंधन को कर्मचारियों की बात माननी पड़ी। वे सब समस्याओं का समाधान करने में एक थे। इसलिए अपनी बात उन्होंने मनवा ली। क्या हम सब मिलकर कुछ ऐसा नहीं कर सकते?
मान लो दूध का दाम बढ़ गया।क्या एक दिन के लिए ही सही हम दूध न लें? सोचो हमारे इस एक कदम से लाखों पैकेट दूध वापस डेयरी में जाएगा और बरबाद हो जाएगा। तब प्रबंधन को अपने निर्णय पर पुनर्विचार करना ही पड़ेगा।
स्कूलों में फीस बढ़ गई। क्या सारे पालकगण एक होकर स्कूल प्रबंधन पर दबाव नहीं डाल सकते? आप सोच सकते हैं, क्या गुजरेगी स्कूल प्रबंधन पर? मत खरीदें, पेट्रोल, मत खरीदें गैस। क्या हम ऐसा एक दिन के लिए भी नहीं कर सकते? क्या केबल लगाकर टी.वी. देखना जरूरी है? बच्चाों की परीक्षा के समय तो केबल कटवा देते हैं, क्या तब उसकी कमी नहीं खलती? तब वह क्यों जरूरी हो जाता है, हमारे लिए?
क्या हम एक होकर इन मोर्चो पर मुकाबला नहीं कर सकते? आज मानव इसलिए दु:खी है, उसकी आवश्यकताएँ बहुत ज्यादा है। आवश्यकताएँ सीमित हो जाएँ, तो परेशानी भी कम हो जाए। हम बहुत ज्यादा निर्र्भर रहने लगे हैं। आत्म निर्भरता खत्म होते जा रही है। देश भले आत्मनिर्भर हो जाए, पर हम कभी आत्मनिर्भर नहीं हो पाएँगे। हमने भी दादा-दादी, नाना-नानी की कहानियाँ सुनी है। उन्हीं की गोद में खेले कूदे, बड़े हुए। हम तो आज खुद को किसी से कम नहीं पाते। फिर आज हमारे बच्चों को हम उनके दादा-दादी या नाना-नानी के बीच क्यों नहीं रख पाते?
शहरों में इन दिनों वृध्दाश्रमों की संख्या तेजी से बढ़ रही है, कभी उन बुजुर्गों की हालत पर ध्यान देने की कोशिश की है? शायद नहीं, हम उनका दु:ख समझना ही नहीं चाहते हैं, क्योंकि हम एक नहीं है, हममें ही विभिन्नता है। कई नकाब है हमारे चेहरे पर। पत्नी, बच्चे, बॉस, दोस्त, सहकर्मी, प्रेयसी इन सभी से हम अलग-अलग नकाब चढ़ाकर मिलते हैं। ऐसे में हम कैसे विश्वास कर लें कि हम एक हैं?
हमें एक होना चाहिए। हमें एक होना ही होगा, नहीं तो हमारा जीना मुश्किल हो जाएगा। हम सभी जानते हैं कि एकता में शक्ति होती है। फिर हम सब एक क्यों नहीं हो पा रहे है? क्यों हम सभी अपनी-अपनी लड़ाई अपने-अपने मोर्चो पर लड़ रहे हैं? देखा जाए, तो हम स्वकेन्द्रित हो गए हैं। हम अकेले जीना चाहते हैं, अपने गम और परेशानियों के साथ, खुशियाँ बाँटने में भी हम कंजूसी करने लगे हैं। हमें डर है कि हमारी खुशी से किसी को र् ईश्या हो सकती है। जोश की बातें भी दबे स्वरों में करने लगे हैं। ''एकता में ताकत है'' का विज्ञापन हमारी ऑंखों के सामने से हवा के झोंके की तरह गुजर जाता है, हममें कोई हलचल भी नहीं होती। क्या हो गया है हमें?
यदि हम एक दिन केवल एक दिन के लिए ही एक होना सीख जाएँ, तो संभव है, कई समस्याएँ दूर से ही भागने लगेंगी। हमारी एकता लोगों में खौफ को भी पछाड़ कर सकती है। हमें उन खौफजदाओं को मिलाना होगा, ताकि वे अपना डर छोड़े और हमारे साथ प्रगति की मुख्य धारा में शामिल हो सके। हमें अपनी सोच को विशल कैनवास देना होगा। तभी हम स्वकेन्द्रित न होकर ऐसी धुरी बन पाएँगे, जिसमें सभी की समस्याएँ खुद ही समस्या बनें। इस दिशा में हमें केवल यही करना है कि एक कदम- बस एक कदम ईमानदारी से बढ़ाना होगा, हमें पता ही नहीं चलेगा। एक कदम आप ईमानदारी से उठाएँ बस......।
डॉ. महेश परिमल

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