शनिवार, 3 मई 2008

आवाज का जादू चल गया.......


डॉ. महेश परिमल
कुछ वर्ष पूर्व एक खबर पढ़ने को मिली थी, जिसमें विदेश में रहने वाली गंभीर रूप से बीमार एक भारतीय युवती ने अपने जीवन के अंतिम समय में अपने लिए अमिताभ बच्चन की आवाज में कुछ पंक्तियों की माँग की थी। युवती की अंतिम इच्छा को जानकर अमिताभ बच्चन ने सुबह जल्दी उठकर खाली पेट अपनी आवाज रिकॉर्ड करवाई, जिसमें उन्होंने उस युवती के लिए कुछ कविताएँ और कुछ प्रेरक प्रसंग सुनाए। यह सीडी उस युवती को भिजवाई गई। तब उसने अमिताभ को विशेष रूप से धन्यवाद किया। वह युवती तो नहीं बच पाई, लेकिन इससे यह बात सिध्द हो जाती है कि वाकई अमिताभ की आवाज में दम है।
आपको यह जानकर अच्छा आश्चर्य होगा कि पिछले वर्ष पुरस्कार से सम्मानित फिल्म ' मार्च ऑफ द पेंग्विंस ' को अमेरिका में रिलीज करने के लिए हॉलीवुड के प्रसिध्द अभिनेता मोर्गन फ्रीमे को ऍंगरेजी में डबिंग करने की आवश्यकता महसूस हुई, तो हिंदी और ऍंगेरजी रूपातंरण में अमिताभ बच्चन के अलावा एक और व्यक्ति की आवाज इस्तेमाल में लाई गई। जब फिल्म के निर्माता-निर्देशक दोनों की आवाज को एकाग्रता के साथ सुना, तो यह दुविधा उत्पन्न हो गई कि किसकी आवाज को ऍंगरेजी संस्करण में लिया जाए? अंतत: निर्माता-निर्देशक ने यह तय किया कि इन आवाजों को अमेरिका, इंगलैण्ड के फिल्म समीक्षकों के पास भेज दिया जाए, ताकि वे अपना मत दे सकें। यहाँ भी काफी मशक्कत उठानी पड़ी। कंठ का प्रभाव और स्क्रिप्ट से जुड़े तमाम भाव (इमोशंस) को पूरे आरोह-अवरोह के साथ तालमेल में अमिताभ की आवाज को श्रेष्ठ माना गया।

संगीत के जानकार बरसों से यह अच्छी तरह से जानते हैं कि अमिताभ की आवाज में एक कशिश जन्मजात से है। अमिताभ के अभिनय में यदि पचास प्रतिशत अंक तो उनकी आवाज को देना ही पडेग़ा। सन् 1983 में जब 'कुली ' की शूटिंग के दौरान जब वे चोटग्रस्त हुए थे, तब उनके गले में एक छेद कर नली डाली गई थी, उसके बाद उनकी आवाज में मामूली बदलाव आया था, पर आवाज की गंभीरता में कोई फर्क नहीं पड़ा। आज भी उनकी आवाज के ऐसे दीवाने मिल जाएँगे, जो उन्हें सुनने के लिए कुछ भी कर सकते हैं।

एक समय था, जब मिनर्वा प्रोडक्शन की फिल्म लोग केवल इसलिए देखते थे कि उसमें सोहराब मोदी की गूँजती आवाज सुनने को मिलेगी। उसके बाद जमाना आया, राजकुमार की आवाज का। राजकुमार की कई फिल्में केवल उनके संवाद के कारण ही हिट हुई। उनकी संवाद अदायगी अपने आप में एक ऐसे हुनर के रूप में सामने आई, जिसे जो सुनता, वह उसी का हो जाता। इसके बाद लोग केवल मोगेम्बो याने अमरीशपुरी की आवाज ही ऐसी आवाज थी, जो लोगों को भीतर तक हिलाकर रख देती थी। याद करो स्ईवनर् स्पीलबर्ग की फिल्म 'इंडियाना जोन्स' में जब अमरीश पुरी तांत्रित की भूमिका में ' माँ.....शक्ति दे' कहते हैं, तो दर्शक भीतर से बुरी तरह से डर जाते हैं। बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि अमरीश पुरी स्वर्गीय कुंदन लाल सहगल के करीबी रिश्तेदार थे। अमरीश पुरी के निकट संबंधी अच्छे से जानते हैं कि उन्हें शास्त्रीय संगीत का अच्छा ज्ञान था। इस संगीत में लोगों ने उन्हें डूबते हुए भी देखा है। वे अच्छा गा भी सकते थे। आवाज की बात करें, तो सहगल की आवाज में जो कशिश थी, वह व्यक्ति को भीतर से सुनाई देती थी। एक संस्मरण में कहा गया है कि एक बीमार व्यक्ति जो चल भी नहीं पाता था, सहगल की आवाज सुनकर न केवल चलने-फिरने लगा, बल्कि पूरी तरह से स्वस्थ भी हो गया। वे पहले अभिनेता और गायक थे, जो आवाज के धनी थे। उनकी यह विशेषता थी कि अपने संवादों में वे जितने सहज होते थे, उतने ही सहज वे अपने गीतों में भी होते। उनका ' इक बंगला बने न्यारा ' सुनो, फिर ' दु:ख के अब दिन बीतत नाहीं सुनो, इन दोनों ही गीतों मे बिलकुल ही अलग अहसास होगा। इन गीतों में हम एक अलग ही तरह के दर्द की अनुभूति करेंगे।

कई व्यक्ति हमें ऐसे मिल जाएँगे, जो अच्छा बोलते तो हैं ही, पर जब वे गाते हैं, तब तो उनकी आवाज और भी अच्छी लगती है। पर कई ऐसे होते हैं, जिनकी आवाज बातचीत में नहीं, बल्कि गाने में अच्छी लगती है। आज भी लता मंगेशकर को बातचीत में सुनो, तो लगता है जैसे उनके मुँह से सुरीली ध्वनि के फूल झर रहे हों। हिंदी फिल्मों आवाज के ऐसे जादूगर कम ही देखने को मिले हैं, जो मिले, वे अपने आप में बेजोड़ थे। आवाज की ताकत का सही इस्तेमाल करने वालों में हास्य कलाकार और चरित्र अभिनेता ओमप्रकाश में थी। अपनी आवाज की खूबी से बखूबी परिचित ओमप्रकाश अपनी तमाम भूमिकाओं में अलग-अलग रूप से इस्तेमाल किया। कन्हैयालाल की आवाज में जो लम्पटता थी, वह बाद में किसी की आवाज में उतनी सहजता से नहीं आ पाई। अभिनय की दृष्टि से किशोर कुमार भले ही अपने बड़े भाई अशोक कुमार से पीछे रहे हों, पर सच तो यह है कि आवाज की गुणवत्ता में वे अपने भाई से आगे थे। दोनों भाइयों की संवाद अदायगी और उनके द्वारा गाए गीतों को सुना जाए, तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि जहाँ एक ओर संवाद अदायगी में अशोक कुमार आगे रहे हैं, तो गीतों में किशोर कुमार की आवाज का जादू सर चढ़कर बोलता है। यही हाल कपूर खानदान का भी था। संगीत की गहराई से राजकपूर और शम्मीकपूर दोनों से परिचित थे। शम्मीकपूर तो अच्छे तबला वादक हैं। पर संवाद अदायगी में शम्मीकपूर का गला अधिक प्रभावशाली रहा। ओ.पी. नैयर सही कहते थे कि शम्मीकपूर की थिरकनों से संगीत बहता था। 'गंगा-जमुना' में साथ-साथ काम करने वाले दो भाइयों दिलीप कुमार और नासिर खान की आवाज से ही पता चल गया कि दिलीप कुमार की आवाज में जो जन्मजात कशिश है, वह नासिर खान में नहीं है। दिलीप कुमार की आवाज में जो पीड़ा और वेदना झलकती है, वैसी कशिश नासिर खान की आवाज में नहीं थी। इसीलिए वे चल नहीं पाए।

पूरी तीन पीढ़ियों तक अपनी आवाज देने वाले मोहम्मद रफी का कहना था कि आवाज तो खुदा की देन है। उनकी बात सौ प्रतिशत सही है। करीब 25 कलाकारों को अपनी आवाज देने वाले मोहम्मद रफी के गीत सुनते ही लोग जान जाते थे कि यह गीत किस पर फिल्माया गया होगा। फिर चाहे वे गुरुदत्त हों, शम्मीकपूर हों या फिर जॉनीवॉकर हों। सबके लिए उनकी आवाज में एक विशेश तरह की लोच होती, जो उन्हें उस कलाकार से जोड़ देती। इसे मिमिक्री कदापि नहीं कहा जा सकता, यह तो उनकी स्वाभाविकता थी, जो हर तरह के कलाकार के लिए अपनी आवाज को ढाल लेते थे। फिल्म 'जंजीर' के सेट पर जब अमिताभ और प्राण परस्पर सामने आए, तब प्राण ने निर्देशक प्रकाश मेहरा से कहा-प्रकाश, यह लड़का अपनी आवाज और बेधती हुई ऑंखों से आधा मैदान मार लेता है। यही आवाज जब हरिवंश राय बच्चन की 'मधुशाला' स्वरबध्द करती है, तब लगता है कि वास्तव में मधुशाला को मधुर कंठ मिल गया। अब यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि आज अमिताभ निर्जीव शब्दों में भी जान फूँक सकते हैं। इसका रहस्य बच्चन परिवार के साहित्य भरे वातावरण में खोजा जा सकता है, जहाँ अमिताभ का बचपन बीता और वे तमाम कवियों को सस्वर कविता पाठ करते हुए सुनते रहे। उसी वातावरण ने उनकी आवाज को तराशा और आज उस आवाज की गूँज सात समुंदर पार से सुनाई दे रही है।
डॉ. महेश परिमल

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