शनिवार, 3 मई 2008
नदिया बिक गई पानी के मोल
आलोक प्रकाश पुतुल
कहते हैं सूरज की रोशनी, नदियों का पानी और हवा पर सबका हक़ है. लेकिन छत्तीसगढ़ में ऐसा नहीं है. छत्तीसगढ़ की कई नदियों पर निजी कंपनियों का कब्जा है. दुनिया में सबसे पहले नदियों के निजीकरण का जो सिलसिला छत्तीसगढ़ में शुरु हुआ, वह थमने का नाम नहीं ले रहा. छत्तीसगढ़ की इन नदियों में आम जनता नहा नहीं सकती, पीने का पानी नहीं ले सकती, मछली नहीं मार सकती. सेंटर फॉर साइंस एंड इनवारनमेंट की मीडिया फेलोशीप के तहत पत्रकार आलोक प्रकाश पुतुल द्वारा किए गए अध्ययन का यह हिस्सा आंख खोल देने वाला है.
पानी का मोल कितना होता है ?
इस सवाल का जवाब शायद छत्तीसगढ़ में रायगढ़ के बोंदा टिकरा गांव में रहने वाले गोपीनाथ सौंरा और कृष्ण कुमार से बेहतर कोई नहीं समझ सकता.
26 जनवरी 1998 से पहले गोपीनाथ सौंरा और कृष्ण कुमार को भी यह बात कहाँ मालूम थी.
तब छत्तीसगढ़ नहीं बना था और रायगढ़ मध्यप्रदेश का हिस्सा था. मध्यप्रदेश के इसी रायगढ़ में जब जिंदल स्टील्स ने अपनी फैक्टरी के पानी के लिए इस जिले में बहने वाली केलो नदी से पानी लेना शुरु किया तो गाँव के गाँव सूखने लगे. तालाबों का पानी कम होने लगा. जलस्तर तेजी से गिरने लगा. नदी का पानी जिंदल की फैक्ट्रीयों में जाकर खत्म होने लगा. लोगों के हलक सूखने लगे.
फिर शुरु हुई पानी को लेकर गाँव और फैक्ट्री की अंतहीन लड़ाई. गाँव के आदिवासी हवा, पानी के नैसर्गिक आपूर्ति को निजी मिल्कियत बनाने और उस पर कब्जा जमाने वाली जिंदल स्टील्स के खिलाफ उठ खड़े हुए. गाँववालों ने पानी पर गाँव का हक बताते हुए धरना शुरु किया. रायगढ़ से लेकर भोपाल तक सरकार से गुहार लगाई, चिठ्ठियाँ लिखीं, प्रर्दशन किए. लेकिन ये सब कुछ बेकार गया. अंततः आदिवासियों ने अपने पानी पर अपना हक के लिए आमरण अनशन शुरु किया.
बोंदा टिकरा के गोपीनाथ सौंरा कहते हैं - "मेरी पत्नी सत्यभामा ने जब भूख हड़ताल शुरु की तो मुझे उम्मीद थी कि शासन मामले की गंभीरता समझेगा और केलो नदी से जिंदल को पानी देने का निर्णय वापस लिया जाएगा. लेकिन ऐसा नहीं हुआ "
भूख हड़ताल पर बैठी सत्यभामा सौंरा की आवाज़ अनसुनी रह गई. लगातार सात दिनों से अन्न-जल त्याग देने के कारण सत्यभामा सौंरा की हालत बिगड़ती चली गई और 26 जनवरी 1998 को जब सारा देश लोकतांत्रिक भारत का 48वाँ गणतंत्र दिवस मना रहा था, पानी की इस लड़ाई में सत्यभामा की भूख से मौत हो गई.
सत्यभामा के बेटे कृष्ण कुमार बताते हैं- “इस मामले में मेरी माँ की मौत के ज़िम्मेवार जिंदल और प्रशासन के लोगों पर मुकदमा चलना था लेकिन सरकार ने उलटे केलो नदी को निजी हाथ में सौंपने के खिलाफ मेरी मां के साथ आंदोलन कर रहे लोगों को ही जेल में डाल दिया. ”
इस बात को लगभग दस साल होने को आए.
इन दस सालों में सैकड़ों छोटी-बड़ी फैक्ट्रियाँ रायगढ़ की छाती पर उग आईं हैं. पूरा इलाका काले धुएं और धूल का पर्याय बन गया है. सितारा होटलें रायगढ़ में खिलखिला रही हैं. आदिवासियों के विकास के नाम पर अलग छत्तीसगढ़ राज्य भी बन गया है. कुल मिला कर ये कि आज रायगढ़ और उसका इलाका पूरी तरह बदल गया है.
नहीं बदली है तो बस नदी की कहानी.
पानी-पानी छत्तीसगढ
एक नवंबर 2001 को अस्तित्व में आए छत्तीसगढ़ को पानी वाला राज्य कहते हैं. 1,37, 360 वर्ग किलोमीटर में फैले इस राज्य हर गांव में छह आगर और छह कोरी तालाब की परंपरा रही है. आगर मतलब बीस और कोरी मतलब एक. यानी कुल 126 तालाब. राज्य में लगभग 1400 मिलीमीटर औसत बरसात भी होती है, लेकिन इन सबों से कहीं अधिक लगभग ढ़ाई करोड की आबादी वाला छत्तीसगढ़ राज्य नदियों पर आश्रित है. यह राज्य पाँच नदी कछार में बंटा हुआ है-महानदी कछार 75,546 वर्ग किलोमीटर, गोदावरी कछार 39,577 वर्ग किलोमीटर, गंगा कछार 18,808 वर्ग किलोमीटर, नर्मदा कछार 2,113 वर्ग किलोमीटर और ब्राम्हणी कछार 1,316 वर्ग किलोमीटर.
महानदी, शिवनाथ, इंद्रावती, जोंक, केलो, अरपा, सबरी, हसदेव, ईब, खारुन, पैरी, माँड जैसी नदियां राज्य में पानी की मुख्य आधार हैं. आँकड़ों के अनुसार राज्य में कुल उपयोगी जल 41,720 मिलीयन क्यूबिक मीटर है, जिसमें से 7203 मिलीयन क्यूबिक मीटर पानी का इस्तेमाल किया जाता है. 59.90 हज़ार मिलियन क्यूबिक मीटर सतही जल में से 41.720 हज़ार मिलियन क्य़ूबिक मीटर सतही जल इस्तेमाल योग्य है. जिसमें से फिलहाल 7.50 हज़ार मिलियन क्यूबिक मीटर पानी का इस्तेमाल हो रहा है. भूजल के मामले में भी राज्य बेहद समृद्ध है. छत्तीसगढ़ में भूजल की मात्रा 13,678 मिलियन क्य़ूबिक मीटर है, जिसमें से 11,600 मिलियन क्य़ूबिक मीटर इस्तेमाल योग्य है.
लेकिन ये सब आंकड़े भर हैं. ऐसे आंकड़े, जिनमें सारे दावे के बाद भी आम जनता और खास कर किसानों की पहूंच से यह पानी लगातार दूर होता चला जा रहा है. पानी और नदियों पर आधारित सारी अर्थव्यवस्था चरमरा कर रह गई है. राज्य की अधिकांश नदियां निजी कंपनियों के कब्जे में हैं और आम जनता के लिए उन नदियों से एक बूंद पानी लेना भी गुनाह है. इन नदियों से निस्तार बंद है. इन में मछुवारे अब अपना जाल नहीं फैला सकते. नदियों के किनारे-किनारे फसल लगा कर करोड़ो रुपए कमाने वाले किसान-मज़दूर अब बेरोजगार हैं. किसी जमाने में नदियों पर बनने वाले बांध के पीछे एकमात्र कारण होता था, फसलों की सिंचाई. अब राज्य की हरेक नदी पर बनने वाले बांध का एकमात्र उद्देश्य होता है औद्योगिक घरानों को पानी उपलब्ध कराना. हालत ये हो गई कि छत्तीसगढ़ में सरकार ने पिछले कुछ सालों से गरमी के दिनों में फसलों को पानी देने पर घोषित तौर पर प्रतिबंध लगा दिया.
नदियों से शुरु हो कर नदियों में खत्म होने वाले आम आदमी का जीवन अब नदियों को दूर-दूर से निहारता है, जहां नदियां अब केवल स्मृति का हिस्सा हैं.
नदियों पर कब्जे की कहानी कोई एकाएक शुरु नहीं हुईं. यह सब कुछ योजनाबद्ध तरीके से हुआ. राज्य की अलग-अलग नदियां एक-एक कर निजी हाथों में सौंपी जाने लगीं.
तमाम विरोध और संघर्ष के बाद राज्य की सरकारों ने नदियों को निजी हाथों से मुक्त कराने की घोषणाएं की, दावे किए, सपने दिखाए. लेकिन इसके ठीक उलट हरेक सरकार ने किसी न किसी नदी को नए सिरे से किसी निजी उद्योग के हाथों में गिरवी रखने से कभी गुरेज नहीं किया.
नदियों को औद्योगिक घरानों के हाथों में सौंपने का जो सिलसिला मध्य प्रदेश से शुरु हुआ था, वह छत्तीसगढ़ में आज भी जारी है.
नदिया बिक गई पानी के मोल
छत्तीसगढ़ में महानदी और शिवनाथ दो ऐसी नदियां रही हैं जो राज्य के 58.48 प्रतिशत क्षेत्र के जल का संग्रहण करती हैं. शिवनाथ मूलतः दुर्ग, रायपुर, बिलासपुर और जाँजगीर-चाँपा से होते हुए महानदी में मिल जाती है.
पानी के बाज़ार सजाने के सिलसिले की शुरुआत इसी शिवनाथ से हुई. औद्योगिक विकास केंद्रों के सहयोग के लिए 1981 में मध्यप्रदेश औद्योगिक केंद्र विकास निगम (रायपुर) लिमिटेड, रायपुर का गठन किया गया था. 26 जून 1996 को दुर्ग औद्योगिक केंद्र बोरई की मेसर्स एच ई जी लिमिटेड ने औद्योगिक केंद्र विकास निगम, रायपुर को एक पत्र लिखकर कहा कि वर्तमान में उन्हें 12 लाख लीटर पानी की आपूर्ति की जा रही है लेकिन अगले दो महीने बाद से उन्हें हर रोज़ 24 लाख लीटर अतिरिक्त पानी की आवश्यकता होगी, जिसकी व्यवस्था सुनिश्चित की जाए.
औद्योगिक केंद्र विकास निगम, रायपुर ने शिवनाथ नदी में उपलब्ध पानी का आकलन करने के बाद मेसर्स एच ई जी लिमिटेड को 20 अगस्त 1996 को पत्र लिखते हुए बताया कि आगामी कुछ दिनों में एच ई जी को 25 लाख लीटर पानी की आपूर्ति की जा सकती है और प्रस्तावित बी टी पंप लग जाने के बाद 36 लाख लीटर पानी की आपूर्ति संभव हो पाएगी. लेकिन औद्योगिक केंद्र विकास निगम, रायपुर ने फरवरी से जून तक शिवनाथ में कम पानी का हवाला देते हुए इस अवधि में पानी की आपूर्ति में असमर्थता व्यक्त की. औद्योगिक केंद्र विकास निगम, रायपुर ने इसके लिए मेसर्स एच ई जी लिमिटेड को संयुक्त रुप से शिवनाथ नदी पर एनीकट बनाने का प्रस्ताव दिया. औद्योगिक केंद्र विकास निगम, रायपुर का तर्क था कि उनके पास इस एनीकट के निर्माण के लिए आवश्यक संसाधन उपलब्ध नहीं हैं और अतिरिक्त पानी की जरुरत भी एच ई जी लिमिटेड को है, इसलिए उसे संयुक्त रुप से एनीकट निर्माण का प्रस्ताव दिया गया.
इसके बाद औद्योगिक केंद्र विकास निगम, रायपुर और मेसर्स एच ई जी लिमिटेड के बीच अधिकृत बैठकों में पानी को लेकर खिचड़ी पकनी शुरु हो गई. इन सरकारी बैठकों में क्या-क्या निर्णय हुए और इन बैठकों में कौन-कौन शामिल हुआ, इसका सच किसी को नहीं पता लेकिन सरकारी अफसर चाहते थे कि मेसर्स एच ई जी लिमिटेड के साथ का इस तरह कागज़ी कारवाई की जाए जिससे मेसर्स एच ई जी लिमिटेड एनीकेट बनाने के काम से हाथ खींच ले और यह काम किसी ऐसी एजेंसी को दे दिया जाए, जिससे औद्योगिक केंद्र विकास निगम, रायपुर के अफसरों का अपना हित सधे. यहां तक कि इन बैठकों की कार्रवाई के अलग-अलग फर्जी विवरण भी सरकारी अफसरों ने तैयार कर कागजी खानापूर्ति की कोशिश की और वे इसमें सफल भी हुए.
इसके बाद एनीकेट बनाने के बजाय पहले से ही स्थापित जल प्रदाय योजना को कथित रूप से बिल्ड ओन ऑपरेट और ट्रांसफर यानी बूट आधार पर जल प्रदाय योजना स्थापित करने के लिए निविदा निकाली गई. इस निविदा में टिल्टिंग गेट्स का प्रावधान रखा गया था. मज़ेदार तथ्य ये है कि इस निविदा से पहले ही 14 अक्टूबर 1997 को राजनांदगाँव की कैलाश इंजीनीयरिंग कार्पोरेशन लिमिटेड ने मध्यप्रदेश औद्योगिक केंद्र विकास निगम, रायपुर को एक पत्र में सूचना दी थी कि ऑटोमैटिक टिल्टिंग गेट्स उनके द्वारा विकसित किए गए हैं और इनका पेटेंट उनके पास है. मतलब ये कि टिल्टिंग गेट्स का प्रावधान रख कर यह साफ कर दिया गया कि जल प्रदाय योजना स्थापित करने का काम कैलाश इंजीनीयरिंग कार्पोरेशन लिमिटेड या उसकी सहमति से ही कोई और कंपनी ले सकती है. और अंततः हुआ भी यही.
हद तो यह हो गई कि औद्योगिक केंद्र विकास निगम, रायपुर ने बोरई की अपनी पूरी अधोसंरचना और लगभग पाँच करोड़ रुपये की संपत्ति बूट आधार पर जल प्रदाय योजना स्थापित करने के लिए केवल एक रुपये की टोकन राशि लेकर कैलाश इंजीनीयरिंग कार्पोरेशन लिमिटेड के मालिक कैलाश सोनी को सौंप दी.
शिवनाथ नदी को निजी क्षेत्र को सौंपे जाने की जाँच को लेकर गठित छत्तीसगढ़ विधानसभा की लोकलेखा समिति ने औद्योगिक केंद्र विकास निगम, रायपुर के संचालक की कार्यशैली को संदेहास्पद बताते हुए कहा कि “औद्योगिक केंद्र विकास निगम, रायपुर के प्रबंध संचालकों की व्यक्तिगत रुचि एवं कारणों तथा येन-केन प्रकारेण मेसर्स एच ई जी लिमिटेड को जानबूझकर सोची समझी नीति के अंतर्गत परिदृश्य से बाहर करने की कूटरचित योजना के कारण परिदृश्य से ओझल कर दिया गया.... इस योजना से मेसर्स एच ई जी लिमिटेड का जल प्राप्त करने का हित जुड़ा हुआ था. उसके साथ जो आरंभिक शर्तें निर्धारित हुई थीं, वे भी तुलनात्मक रुप से शासन के हित में लाभकारी थी. इसके बावजूद मेसर्स एच ई जी लिमिटेड के साथ जल प्रदाय की लाभकारी योजना को अंतिम रूप न देकर बूट आधार पर तुलनात्मक रूप से अलाभकारी शर्तों के साथ जल प्रदाय के क्षेत्र में अनुभवहीन निजी संस्थान के साथ नियमों के विपरीत अनुबंध निष्पादित करते हुए बूट आधार पर एनीकट निर्माण एवं जल प्रदाय के अनुबंध से सम्पूर्ण योजना का प्रयोजन उद्देश्य एवं औचित्य ही समाप्त हो गया. फलस्वरुप शासन को जल प्रदाय के प्रथम दिवस से ही हानि उठानी पड़ रही है....जल प्रदाय योजना की परिसम्पत्तियां निजी कंपनी को लीज़ पर मात्र एक रुपये के टोकन मूल्य पर सौंपा जाना तो समिति के मत में ऐसा सोचा समझा शासन को सउद्देश्य अलाभकारी स्थिति में ढकेलने का कुटिलतापूर्वक किया गया षड़यंत्र है, जिसका अन्य कोई उदाहरण प्रजातांत्रिक व्यवस्था में मिलना दुर्लभ ही होगा....दस्तावेजों से एक के बाद एक षडयंत्रपूर्वक किए गए आपराधिक कृत्य समिति के ध्यान में आये, जिसके पूर्वोदाहरण संभवतः केवल आपराधिक जगत में ही मिल सकते हैं. प्रजातांत्रिक व्यवस्था में कोई शासकीय अधिकारी उद्योगपति के साथ इस प्रकार के षड़यंत्रों की रचना कर सकता है, यह समिती की कल्पना से बाहर की बात है.”
बहरहाल सारे नियम कायदे कानून को ताक पर रख कर कैलाश इंजीनीयरिंग कंपनी लिमिटेड राजनांदगाँव द्वारा इस प्रोजेक्ट के लिए प्रस्तावित कंपनी रेडियस वॉटर लिमिटेड को जल प्रदाय योजना का काम 5 अक्टूबर 1998 को सौंप दिया. औद्योगिक केंद्र विकास निगम, रायपुर ने रेडियस वाटर लिमिटेड के साथ जो अनुबंध किया गया, उसके अनुसार यह अनुबंध 4 अक्टूबर 2000 से 4 अक्टूबर 2020 तक प्रभावी रहेगा. हालांकि निविदा में अनुभव और पूंजी का जो हवाला दिया गया था, उस पर यह कंपनी कहीं भी खरी नहीं उतरती थी. यहां तक कि रेडियस के साथ अनुबंध करने से पहले औद्योगिक केंद्र विकास निगम, रायपुर ने सिंचाई विभाग, राजस्व विभाग समेत सरकार के किसी भी उपक्रम से न तो स्वीकृति ली और ना ही इस बात की जानकारी किसी विभाग को दी गई. औद्योगिक केंद्र विकास निगम, रायपुर रेडियस पर किस तरह मेहरबान थी, इसे निविदा औऱ अनुबंध के हरेक हिस्से में साफ देखा जा सकता है. बूट आधार पर निर्माण का मतलब ये होता है कि निर्माण और उसके रख रखाव का काम कंपनी अपने संसाधनों से करेगी. लेकिन औद्योगिक केंद्र विकास निगम, रायपुर ने एक तो अपने संसाधन सौंप दिए, दूसरा यह अनुबंध भी कर लिया कि इस योजना में खर्च होने वाले लगभग 9 करोड़ रुपए में से 650 करोड़ रुपये कर्ज से और 2.50 करोड़ रुपए इक्विटी शेयर के रुप में रेडियस प्राप्त करेगा.
औद्योगिक क्षेत्र बोरई से प्रति माह 3.6 एम.एल.डी पानी की आपूर्ति फैक्टरियों को की जा रही थी. रेडियस वॉटर लिमिटेड को जब जल प्रदाय योजना का काम सौंपा गया, उसी दिन से रेडियस वॉटर लिमिटेड ने औद्योगिक केंद्र विकास निगम, रायपुर को 4 एम एल डी पानी की गारंटी दी. इसका मतलब यह हुआ कि औद्योगिक केंद्र विकास निगम, रायपुर की बोरई परियोजना में 4 एम एल डी पानी की आपूर्ति क्षमता इस निविदा के पहले से ही थी. ऐसे में फिर सहज ही सवाल उठता है कि आखिर फिर जल प्रदाय योजना स्थापित करने की जरुरत क्यों पड़ी ? औद्योगिक केंद्र विकास निगम, रायपुर और रेडियस वॉटर लिमिटेड के बीच 22 वर्षों के लिए यह अनुबंध भी किया गया कि औद्योगिक केंद्र विकास निगम, रायपुर 4 एमएलडी पानी ले चाहे न ले, उसे 4 एमएलडी का भुगतान अनिवार्य रुप से करना होगा. जबकि सच्चाई ये थी कि औद्योगिक केंद्र विकास निगम, रायपुर को अधिकतम 2.4 एमएलडी पानी की ही जरुरत थी. भुगतान की जो दर रखी गई वह भी चौंकाने वाली थी. रायपुर के मुरेठी में शिवनाथ नदी से ही पानी लिए जाने पर सिंचाई विभाग को एक रुपए प्रति क्यूबिक का भुगतान किया जाता रहा है. लेकिन रेडियस को 12.60 रुपये प्रति क्यूबिक की दर से भुगतान करने का अनुबंध किया गया.
नया राज्य और नदी के नए जागीरदार
अब शिवनाथ पर एनिकट बनाने और पानी आपूर्ति का जिम्मा रेडियस वाटर लिमिटेड पर था. इस पूरी प्रक्रिया के संपन्न होने तक शिवनाथ नदी मध्य प्रदेश के बजाय नए राज्य छत्तीसगढ़ का हिस्सा बन चुकी थी और अब शिवनाथ पर रेडियस वाटर लिमिटेड का कब्जा था. औद्योगिक केंद्र विकास निगम, रायपुर अब छत्तीसगढ़ स्टेट इंडस्ट्रीयल डेवलपमेंट कारपोरेशन (सीएसआईडीसी) में तब्दील हो चुका था.
रेडियस ने देखते ही देखते शिवनाथ नदी के 22.7 किलोमीटर हिस्से पर घेराबंदी शुरु कर दी. नदी किनारे की 176 एकड़ जमीन के अलावा हजारो वर्गफीट जमीन पर रेडियस वाटर लिमिटेड ने अपना साम्राज्य जमा लिया था.
औद्योगिक केंद्र विकास निगम, रायपुर के बोरई स्थित सारे संसाधनों पर एक रुपए में कब्जा जमा कर उसी संसाधन से रेडियस वाटर लिमिटेड ने पहले महीने से ही औद्योगिक केंद्र विकास निगम, रायपुर यानी छत्तीसगढ़ स्टेट इंडस्ट्रीयल डेवलपमेंट कारपोरेशन (सीएसआईडीसी) से 4 एमएलडी पानी की कीमत 15 लाख 12 हजार रुपए वसुलना शुरु किया. यानी बिना एक रुपए की पूंजी लगाए रेडियस ने राज्य सरकार से पहले ही साल एक करोड़ 81 लाख 44 हजार रुपए का भुगतान प्राप्त कर लिया.
बाद के सालों में जब अनुबंध के अनुसार रेडियस ने प्रति हजार लिटर पानी के लिए 15.02 रुपए छत्तीसगढ़ स्टेट इंडस्ट्रीयल डेवलपमेंट कारपोरेशन (सीएसआईडीसी) से वसुलना शुरु किया तो इस अनुबंध के भ्रष्टाचार खुल कर सामने आने लगे. बोरई में केवल दो उद्योग थे और उन्हें 2.4 एमएलडी से अधिक पानी की आवश्यकता कभी होनी ही नहीं थी, जबकि छत्तीसगढ़ स्टेट इंडस्ट्रीयल डेवलपमेंट कारपोरेशन को 4 एमएलडी पानी का भुगतान अनिवार्य था. इसके अलावा छत्तीसगढ़ स्टेट इंडस्ट्रीयल डेवलपमेंट कारपोरेशन जिन उद्योगों को पानी की आपूर्ति कर रहा था, उनसे प्रति हजार लिटर पानी के लिए केवल 12 रुपए ही लेने का अनुबंध था. यानी रेडियस से पानी लेने और उद्योगों को पानी देने में प्रति हजार लीटर पानी में 3.02 रुपए का घाटा छत्तीसगढ़ स्टेट इंडस्ट्रीयल डेवलपमेंट कारपोरेशन को भुगतना अनिवार्य था.
शिवनाथ के आसपास बसे अधिकांश गांवों के लिए पानी का मुख्य स्रोत नदी ही रही है. लेकिन इस नदी पर रेडियस वाटर लिमिटेड के कब्जे के बाद शिवनाथ के किनारे बसे गांवों को नदी के इस्तेमाल के लिए प्रतिबंधित कर दिया गया. जिस नदी का अब तक कोई भी निःशुल्क इस्तेमाल कर सकता था, उसमें नहाने या उसके पानी से सिंचाई करने पर रोक लगा दी गई. कई पीढ़ियों से इस नदी में मछली मारने वाले सैकड़ों मछुवारों को इस इलाके से भगा दिया गया. पालतु पशुओं के लिए पानी का संकट पैदा हो गया. यहां तक कि नदी किनारे की चारागाह के रुप में इस्तेमाल होने वाली जमीन भी एनिकट के लिए पानी रोके जाने के कारण डूब क्षेत्र में आ गई. गांव के लोगों को रेत भी दूसरे इलाकों से मंगाने की नौबत आ गई. नदी किनारे बोर्ड लगा दिया गया- “ नदी में नहाना और मछली पकड़ना सख्त मना है. इससे जान को खतरा हो सकता है.”
गांव के हजारों किसान हतप्रभ रह गए. कल तक जो नदी सबकी थी, अब उस पर एक निजी कंपनी के अधिकार ने चौंका दिया. नदी किनारे बसे मोहलाई के सरपंच बठवांराम टंडन आक्रोश के साथ कहते हैं-“ यह कैसा पंचायती राज्य है, जहां गांव वालों से पूछे बिना नदियां तक बेच दी गईं. कल को ये सरकारें सूरज की रोशनी और हवा भी बेच देंगी तो हमें अचरज नहीं होगा.”
नदी और पानी को बेचने की इस साजिश के खिलाफ इस इलाके में लगातार सक्रिय नदी घाटी मोर्चा के संयोजक गौतम बंदोपाध्याय कहते हैं- “ रेडियस ने गांवों में हैंडपंप का इस्तेमाल करने और नए कुएं खोदे जाने पर भी पाबंदी लगा दी. कंपनी के कारिंदे गांव में घुम-घुम कर गांव वालों को डराने लगे. सिंचाई करने वाले किसानों के पंप रेडियस ने जप्त कर लिए.”
मोहलाई, खपरी, रसमरा, सिलोदा, महमरा जैसे गांवों का एक जैसा हाल हुआ. लेकिन इससे भी बुरा हाल उन गांवों का था, जो बोरई एनिकट के नीचे वाले हिस्से में बसे थे. चिरबली, नगपुरा, मालूद, झेरनी, पीपरछेड़ी, बेलोदी के किसानों का संकट ये था कि बांध के कारण सारा पानी ऊपर ही रुक जा रहा था और शिवनाथ के नीचे का पूरा हिस्सा सूख गया.
गरमी के दिनों में जब हाहाकार मचा तो गांव के लोग संगठित होने लगे. नदी घाटी मोर्चा ने दुर्ग से रायपुर और दिल्ली तक आंदोलन शुरु किया. धरना, जुलूस, सड़क जाम, प्रदर्शन और घेराव की रणनीति बनाई गई.
पानी पर सत्ता के खेल
जनांनदोलनों से जब सरकार की नींद खुली तो छत्तीसगढ़ राज्य के पहले मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने 2 अप्रेल 2003 को घोषणा कि – “ रेडियस के साथ किया गया अनुबंध समाप्त किया जाएगा.पूरे मामले की जांच करवाई जाएगी और इसमें जो भी दोषी होगा, उस पर कार्रवाई होगी.”
लेकिन नहीं, यह सब केवल राजनीतिक बयान भर रह गया.
रेडियस वाटर पर कार्रवाई के बजाय रेडियस ने ही उल्टे आंदोलन करने वाले लोगों और इसकी खबर छापने वाले पत्रकारों पर मुकदमा दर्ज करना शुरु कर दिया. जनता की लड़ाई चलती रही.
इसके बाद 2003 में अगली सरकार भाजपा की बनी और उसने भी इस मामले में जल्दी कार्रवाई का आश्वासन दिया. लेकिन सत्ता का चरित्र एक जैसा होता है. हालत ये है कि इस पूरे मामले की जांच के लिए बनाई गई छत्तीसगढ़ विधान सभा की लोक लेखा समिति की रिपोर्ट को भी सरकार ने ठंढ़े बस्ते में डाल दिया.
लोक लेखा समिति ने 16 मार्च 2007 को राज्य विधानसभा में अपनी रिपोर्ट पेश करते हुए सिफारिश की थी कि रेडियस वाटर लिमिटेड के साथ मध्य प्रदेश औद्योगिक केंद्र विकास निगम लिमिटेड रायपुर (वर्तमान में छत्तीसगढ़ राज्य औद्योगिक विकास निगम) के मध्य निष्पादित अनुबंध एवं लीज़-डीड को प्रतिवेदन सभा में प्रस्तुत करने के एक सप्ताह की अवधि में निरस्त करते हुए समस्त परिसम्पत्तियां एवं जल प्रदाय योजना का आधिपत्य छत्तीसगढ़ राज्य औद्योगिक विकाल निगम द्वारा वापस ले लिया जाए.
सिफारिश में कहा गया था कि मध्य प्रदेश राज्य औद्योगिक विकास निगम लिमिटेड एवं मध्य प्रदेश औद्योगिक केंद्र विकास निगम लिमिटेड, रायपुर के तत्कालीन प्रबंध संचालकों एवं मध्य प्रदेश राज्य औद्योगिक निगम लिमिटेड के मुख्य अभियंता के विरुद्ध षड़यंत्रपूर्वक शासन को हानि पहुँचाने, शासकीय सम्पत्तियों को अविधिमान्य रूप से दस्तावेजों की कूटरचना करते हुए एवं हेराफेरी करके निजी संस्था को सौंपे जाने के आरोप में प्रथम सूचना प्रतिवेदन कर उनके विरुद्ध अभियोजन की कार्यवाही संस्थापित की जाए और इस आपराधिक षडयंत्र में सहयोग करने और छलपूर्वक शासन को क्षति पहुँचाते हुए लाभ प्राप्त करने के आधार पर रेडियस वॉटर लिमिटेड के मुख्य पदाधिकारी के विरुद्ध भी अपराध दर्ज कराया जाए.
सिफारिश में कहा गया था कि मध्य प्रदेश औद्योगिक केंद्र विकास निगम लिमिटेड, रायपुर एवं जल संसाधन विभाग के तत्कालीन अधिकारी जिनकी संलिप्तता इस सम्पूर्ण षडयंत्र में परिलक्षित हो, इस संबंध में भी विवेचना कर उनके विरुद्ध भी कड़ी अनुशासनात्मक कार्यवाही एक माह की अवधि में आरंभ की जाए.
लोक लेख समिति ने यह भी कहा कि समिति द्वारा अनुशंसित सम्पूर्ण कार्यवाही सम्पादित करने की जिम्मेदारी सचिव स्तर के अधिकारी को सौंपते हुए शासन का हित रक्षण करने के लिए उत्कृष्ट विधिक सेवा प्राप्त करते हुए आवश्यकतानुसार न्यायालयीन प्रकियाओं में विधिक प्रतिरक्षण हेतु भी प्रयाप्त एवं समुचित कार्यवाही सुनिश्चित की जाए ताकि विधिक प्रतिरक्षण के अभाव में अथवा कमज़ोर विधिक प्रतिरक्षण के कारण शासन को अनावश्यक रूप से अलाभकारी स्थिति में न रहना पड़े.
लेकिन एक सप्ताह में रेडियस वाटर लिमिटेड और मध्य प्रदेश औद्योगिक केंद्र विकास निगम लिमिटेड रायपुर के समझौते को रद्द करने की कौन कहे, इस पूरे मामले में दिसंबर 2007 तक संबंधित सिफारिश के मामले में विधिक विमर्श की प्रक्रिया ही पूरी नहीं हो सकी.
लोकलेखा समिति के सदस्य और पानी के मामलों के जानकार विधायक रामचंद्र सिंहदेव कहते हैं- “यह संविधान का मजाक है. इससे भयावह कुछ नहीं हो सकता कि लोकलेखा समिति की रिपोर्ट को ठंढ़े बस्ते में डाल दिया जाए.”
शिवनाथ अब भी कब्जे में है. गाहे-बगाहे आंदोलन करने वाले लोग अपनी आवाज़ उठाते हैं और फिर उनकी आवाज़ पूंजी और भ्रष्टाचार के दरवाजों से होते हुए सत्ता के गलियारे में गुम हो जाती है.
नदिया बिकती जाए
लेकिन दुनिया में नदी के निजीकरण की यह पहली कहानी यहीं खत्म नहीं होती. छत्तीसगढ़ में शिवनाथ के निजीकरण के बाद तो नदियों के निजीकरण का एक सिलसिला शुरु हो गया. केलो, कुरकुट, शबरी, खारुन, मांड....! एक-एक कर इन सभी नदियों को निजी हाथों में सौंप दिया गया. हजारों किसान और मज़दूरों की आवाज अनसुनी रह गई. नदी को बचाने की लड़ाई में लोगों ने अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया. अपनी जान तक.
अब केलो नदी का ही मामला लें. रायगढ़ से गुजरने वाली 95 किलोमीटर लंबी केलो रायगढ़ की जीवनदायिनी नदी है. 1991 के आसपास रायगढ़ में जब जिंदल स्टील एंड पावर लिमिटेड ने पांच लाख टन प्रति वर्ष उत्पादन क्षमता वाले स्पांज आयरन के उद्यम की शुरुवात की तभी से केलो को कब्जे में लेने की कवायद शुरु हो गई. बाद में जिंदल ने अपना विस्तार शुरु किया और पावर प्लांट आदि की स्थापना की. 1996 में जिंदल ने जब केलो नदी से पानी लेने का प्रस्ताव दिया तो सरकार ने यह प्रस्ताव यह कहते हुए ठुकरा दिया कि इससे आम जनता के पेयजल का संकट शुरु हो जाएगा. लेकिन सरकारी अफसरों की यह जनपक्षधरता साल भर में ही बदल गई और जिंदल को इस नदी से न केवल पानी लेने की इजाजत दी गई, बल्की 35,400 क्यूबीक मीटर पानी प्रतिदिन लेने के लिए जिंदल द्वारा स्टॉप डैम बनाने के प्रस्ताव को भी सरकार ने मंजूरी दे दी.
केलो के किनारे बसे बोंदा टिकरा समेत कई गांवों के सामने पानी का संकट गहराता हुआ जब नजर आया तो गांव के लोग सामने आए. बोंदा टिकरा, गुड़गहन के किसान केलो नदी का पानी जिंदल समूह को सौंपे जाने के खिलाफ इसलिए भी थे क्योंकि एक दूसरी सिंचाई योजना के नाम पर उनकी जमीने पहले ही बंधक रखी जा चुकी थीं. ऐसे में अगर किसानों को केलो से खेतों की सिंचाई के लिए पानी नहीं मिलता तो उनके सामने भूखों मरने या पलायन के सिवाय कोई दूसरा चारा नहीं था.
अंततः किसानों ने मोर्चाबंदी की और जिंदल के खिलाफ अपनी लड़ाई शुरु की. धरना, प्रदर्शन के बाद बात नहीं बनी तो आदिवासी किसान आमरण अनशन पर आ गए और अंततः नदियों के निजीकरण के खिलाफ लड़ते हुए सत्यभामा सौंरा नामक आदिवासी महिला 26 जनवरी 1998 को भूख से मर गई.
सत्यभामा के बेटे कृष्णा कहते हैं- “ हमें लगा कि मेरी मां का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा. लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. अंततः केलो के पानी पर जिंदल का कब्जा हो गया.”
केलो के बाद कुरकुट की बारी आई.
कहानी कुरकुट की
2004 में रायगढ़ के ही कुरकुट में जिंदल स्टील एंड पावर लिमिटेड ने अपने एक हजार मेगावाट पावर प्लांट और जिंदल स्टील एंड पॉवर प्लांट के विस्तार के लिये करीब 143 एकड़ में संयंत्र लगाने अतिरिक्त भूमि के अधिग्रहण का काम शुरु किया तो लोग सड़क पर आ गए. हालांकि जिंदल ने कुरकुट के आसपास के कई गांवों में लोगों की जमीन पर पहले से ही सड़क बनवा दी थी और 1995 से ही इस इलाके में उसने सर्वे का काम भी शुरु कर दिया था. लगभग 10 साल बाद जब यहां डैम बनाने की घोषणा हुई तो लोग घबरा गए.लेकिन सरकार गांव वालों को आश्वस्त करती रही.
पहले तो सरकार ने इस 1729 मीटर लंबे और 18 मीटर की ऊंचाई वाले डैम से किसी के प्रभावित होने या डूब में आने को ही नकारने की कोशिश की. यह भी कहा गया कि इस डैम का इस्तेमाल सरकार किसानों के लिए करेगी लेकिन सरकारी सच एक-एक कर सामने आता गया. 15 गांवों के छह हजार से अधिक परिवारों को जब लगा कि वे किसी न किसी तरह इस डैम के कारण प्रभावित होंगे तो उन्होंने प्रस्तावित डैम के आसपास के इलाके में नाकेबंदी कर दी.
रायगढ़ में नदियों और प्रदूषण के मामले में सक्रिय जनचेतना के रमेश अग्रवाल कहते हैं- “ लगभग 355 हेक्टेयर वन भूमि और हजार हेक्टेयर सिंचित भूमि के इस डैम की जद में आने की आशंका के कारण गांव वाले बेहद आक्रोशित थे. आखिर यह उनके जीवन-मरन का प्रश्न था.”
थर्मल पावर प्लांट से प्रभावित होने वाले पतरापाली, सरईपाली, चिराईपानी, किरोड़ीमलनगर, गोरखा, भगवानपुर, धनागर, , जोरापाली, ननसियां, उर्दना, डोंगीतराई, कुसमुरा, उच्चभिट्ठी, कोसमपाली, खैरपुर, टीपाखोल, डूमरपाली, गेजामुड़ा, कांशीचुआं, बंधनपुर, बनहर, जामपाली, उसरौठ, बरमुड़ा जैसे लगभग 2 दर्जन से भी अधिक गांवों में रहने वालों को जिंदल की इस विस्तार परियोजना का तब पता चला, जब जिंदल समूह ने उन्हें गांव खाली करने के निर्देश दिए.
बाद में जिले के आला सरकारी अधिकारी भी जिंदल की पैरवी में गांव वालों को गांव खाली करने की चेतावनी देने पहुंचने लगे. अंतत: राबो जैसे गांव के लोगों ने तय किया कि किसी भी कीमत पर बांध के लिए गांव का बलिदान स्वीकार नहीं करेंगे. गांव वालों ने इस कार्य को रोकने के लिए कटे हुए पेड़ का बेरियर बनाकर काम रोकने व विरोध का बैनर लगा दिया. रात-रात भर गांव के प्रवेश द्वार पर पहरेदारी होती रही.
लेकिन जिंदल ने विरोध और विविध सरकारी सहमतियों की चिंता किए बगैर अपना निर्माण कार्य जारी रखा. अंततः जन विरोध के बाद मुख्यमंत्री के निर्देश पर बांध का काम बंद कर दिया गया. ग्राम सभाओं में यह स्पष्ट किया गया कि ग्राम सभा कुरकुट पर बांध के खिलाफ है. लेकिन जिंदल ने मुख्यमंत्री के निर्देश और ग्राम सभा के प्रस्ताव को हफ्ते भर बाद ही किनारे लगा कर बांध का काम शुरु कर दिया.
राबो गांव के एक नौजवान वेणुधर कहते हैं- “इस राज्य में केवल जिंदल की चलती है.”
कुछ ही दिनों बाद सरकारी अधिकारी खुल कर जिंदल के पक्ष में काम करने लगे.
कलेक्टर से लेकर एसपी तक पूरी ताकत से जिंदल के पक्ष में गांव वालों को प्रलोभन देने और धमकाने का काम करने लगे. कलेक्टर ने गांव वालों की बैठक बुलाकर कहा कि जो भी बांध का विरोध करेगा, उसे जेल में डाल दिया जाएगा. एसपी ने कहा- प्रेम से नहीं दोगे तो झगड़ा होगा. एसडीएम ने कहा- जमीन सरकार की होती है, तभी तो ग्रामीण लगान देते हैं.
ऐन-केन प्रकारेण लोगों का भरमाने और धमकाने की पूरी कोशिश हुई.
फिर शुरु हुई कथित जनसुनवाई.
भारी भीड़ के कारण पहले तो सरकार की ओर से जनसुनवाई ही टलती रही, बाद में जब जनसुनवाई हुई तो हजारों आपत्तियां दर्ज कराई गईं. लेकिन यह सारी कागजी कार्रवाई बेकार गई.
जिंदल के सरकार ने जो अनुबंध कर रखा है, उसमें दर्ज है कि सरकार जिंदल को दूसरी तमाम मदद के अलावा राज्य और केंद्र के स्तर पर अनुमोदन और अनुमति दिलाने में भी मदद करेगी.
सरकार ने यही किया.
अब कुरकुट के पानी पर जिंदल का कब्जा है.
किस्से सैकड़ों हैं
लेकिन नदियों पर निजी कब्जे की कहानी शिवनाथ, केलो और कुरकुट तक आ कर खत्म नहीं होती. राज्य के नक्सल प्रभावित बस्तर के दंतेवाड़ा की शबरी नदी का बड़ा हिस्सा एस्सार के कब्जे में है. दंतेवाड़ा से आंध्र प्रदेश के विजाक शहर तक एस्सार ने पाईपलाइन बिछा रखा है. इस पाईपलाइन में लौह अयस्क डालकर उसे दंतेवाड़ा से शबरी नदी के पानी के सहारे बिजाक तक पहुंचाने की योजना है.
रायपुर के खारुन नदी पर निको जायसवाल और मोनेट इस्पात नामक औद्योगिक घरानों के अपने बांध हैं. निको जायसवाल खारुन से 3 एमजीडी और मोनेट इस्पात 2 एमजीडी पानी लेता है. शिवनाथ नदी के 0.75 एमजीडी पानी पर लाफार्ज इंडिया का कब्जा है.
बजरंग इस्पात एंड पावर लिमिटेड, एस के एस इस्पात, मेसर्स साऊथ एशीयन एग्रो लिमिटेड जैसी कंपनियां अभी कतार में हैं, जिन्होंने यहां की नदियों पर अपना हक़ जमाने के लिए सरकार से अनुबंध कर रखा है.
और सरकार ?
पानी के मुद्दे पर कोई भी सरकारी अधिकारी या मंत्री बात करने के लिए तैयार नहीं है. अधिकांश अधिकारी इस पचड़े में नहीं पड़ना चाहते. सब फाइलों का हवाला देते हैं.
जाहिर है, सरकार अभी पानी और पानी की धार देख रही है.
(सीएसई की मीडिया फेलोशीप के तहत किए गए अध्ययन का हिस्सा)
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आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
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बहुत सुंदर आलेख है. आपकी रिपोर्ट बहुत सुंदर है महेश भाई. आपको साधुवाद.
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