मंगलवार, 10 जून 2008

बाल कविताऍ

बिल्ली और चूहा


भारती परिमल
किसी को नहीं मिली मलाई
चूँ चूँ चूहे ने दौड़ लगाई,
खाने को ठंडी ठंडी मलाई।
इतने में पीछे से पूसी आई,
मारा पँजा खूब डाँट लगाई।
सरपट भागा चूँ चूँ चूहा,
डर कर हाल जो बुरा हुआ।
दुबक कर बैठ गया कोने में,
पूसी ने मुँह डाला भगौने में।
तभी मम्मी ने झाँका धीरे से,
पूसी समझी चूँ चूँ आया पीछे से।
वापस पलटी दौड़ कर किया वार,
पर रहा सब वार बेकार।
पलट वार में उल्टा हुआ भगौना,
चूँ चूँ ने भी छोड़ दिया कोना।
अब तो सचमुच मम्मी आई,
डंडे से पूसी की हुई पिटाई।
ताली बजाते उछला चूँ चूँ,
किसी को नहीं मिली मलाई।


टेबल और कुर्सी

एक था टेबल, एक थी कुर्सी।
कुर्सी थी बड़ी सयानी,
खुद को समझे महारानी।
बच्चे-बूढ़े, अमीर-गरीब,
नेता हो या मजदूर,
कुर्सी से नहीं रहते दूर।
अकड़म-बकड़म, गोल-गपक्कम,
करते फिरते सौ तिकड़म।
मंजिल को वे पा ही जाते,
कुर्सी पर तो बैठ ही जाते।
इसीलिए कुर्सी इतराती,
अपनी किस्मत पर इठलाती।
टेबल बेचारा ऑंसू बहाता,
अपना दु:ख सबसे छुपाता।
लेकिन ऐसा कब तक चलता?
आया परीक्षा का मौसम,
पढ़ाई यादा मस्ती कम।
फिर तो चली ऐसी बयार,
टेबल बना बच्चों का यार।
टेबल पर ही पुस्तक-कॉपी जमती,
टेबल पर ही चुन्नू के हाथों से पेन है चलती।
बिना टेबल के कुर्सी हुई बेकार।
पढ़ाई करने वालों के लिए,
टेबल-कुर्सी दोनों पक्के यार।
कंप्यूटर का भी जमाना आया,
टेबल पर ही उसने अधिकार जमाया।
अब कुर्सी को समझ में आई अपनी भूल,
बेकार ही उसने बोया पेड़ बबूल।
टेबल के पास पहुँच वो बोली,
तेरे बिना मैं तो हुई अकेली।
मिलजुल कर हम साथ रहेंगे,
जन-जन से भी यही कहेंगे।
भारती परिमल

1 टिप्पणी:

Post Labels