बुधवार, 13 अगस्त 2008

कैसी आजादी, काहे की आजादी?


डॉ. महेश परिमल
आजादी.... आजादी.... और आजादी, पिछले साठ वर्षों से यह सुनते आ रहे हैं, पर आज भी हम यदि इस आजादी को ढूँढ़ने निकल जाएँ, तो वह कुछ हाथों में छटपटाती नजर आएगी। आजादी कैद हो गई है, कुछ मजबूत हाथों में, वे हाथ जो खून से रँगे हैं, वे हाथ जो कानून को अपने हाथ में लेते हैं, वे हाथ जो पाँच वर्ष में आम लोगों के सामने एक बार जुड़ते हैं,। इन हाथों में छटपटाती आजादी की सिसकियाँ किसने सुनी?
सन् 1857 के पहले भी आजादी का शंखनाद हुआ था। उसमें था आजादी पाने का जोश, भारत माँ को जंजीरों की जकड़न से दूर करने का उत्साह। बच्चा-बच्चा एक जुनून की गिरफ्त में था। सभी चाहते थे - आजादी। वह आजादी केवल विचारों की नहीं, बल्कि इंसान को इंसान से जोड़ने वाली आजादी की कल्पना थी, जिसमें बिना भेदभाव, वैमनस्यता के एक-दूसरे के दिलों में बेखौफ रहने की कल्पना थी।
अनवरत् संघर्षो, लाखों कुर्बानियों एवं असंख्य अनाम लोगों के सहयोग से हमें रक्तरंजित आजादीमिली, भीतर कहीं फाँस अटक गई, विभाजन की। एक सपना टूट गया- साथ रहने का। वह सपना कालांतर में एक ऐसा नासूर बन गया, जो रिस रहा है। असह्य वेदना को साकार करता शरीर का वही भाग आज आक्रामक हो चला है।
हमें आजादी मिली तो सही, पर हम उसे संभाल नहीं पाए, आजादी मिलने की खुशी में हम भूल गए कि यह धरोहर है, हमारे पूर्वजों के पराक्रम की, इसे संभालकर रखना हमारा कर्त्तव्य है। इसे सहेज कर रखने से ही प्रजातंत्र जिंदा रह पाएगा। आज प्रजातंत्र जिंदा तो है, पर उसकी हालत मरे से भी गई बीती है। हमें चाहिए था, एक ऐसा प्रजातंत्र जो साँस लेता हुआ हो, जिसकी धमनियों में शहीदों का खून दौड़ता हो, पर हमने अपने हाथों से अपनी आंजादी खो दी। वह भी आजादी मिलने के तुरंत बाद ही।
इस आजादी को पाने के लिए कई अनाम शहीदों ने भगीरथ प्रयास किए। आज बदलते जीवन मूल्यों के साथ वही आंआजादी की गंगा कुछ लोगों की सात पीढ़ियों को तारने का काम कर रही है। पीढ़ियों को उपकृत करने वाली आजादी की कल्पना तो हमने नहीं की थी। पूरे 60 बरसों से आंजादी का भोंपू हम सुन रहे हैं, पर इन वर्षो में गरीब और गरीब हुआ है और अमीर और अमीर । हाँ विकास के नाम पर देश इतना आगे बढ़ गया है कि हर हाथ को काम मिलने लगा है। हर गाँव रोशनी से जगमगा रहा है, प्रत्येक गाँव में सड़कें हैं, कोई भी बेरोजगार नहीं है, एक-एक बच्चा शिक्षित हो रहा है, यह सब हो रहा है, सिर्फ ऑंकडा के रूप में, मोटी-मोटी फाइलों में।
सच्चाई के धरातल पर देखें तो ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, जिसे उपलव्धि कहा जाए। रिक्शा चालक सुखरू या समारू के बेटे भी या तो रिक्शा चला रहे हैं या मंजदूरी कर रहे हैं। अलबत्ता उस वक्त एक ट्रक का मालिक आज कई ट्रकों के मालिक बनकर करोड़ों से खेल रहा है। महज एक रोटी का जीवंत प्रश्न सुलझाया नहीं जा सका है, पिछले 60 वर्षों में। रोटी की बात छोड़ भी दें, तो आज हम साफ पानी के भी मोहताज हैं।

सामाजिक परिवेश में जीवनमूल्य बदल रहे हैं। भ्रष्टाचार शिष्टाचार का पर्याय बन गया है। बलात्कारी सम्मानित हो रहे हैं। घूसखोरों की हवेलियाँ बन रही है। बहुओं को जला कर वर्ष भर होली मनाने वाले नारी उत्पीड़न विरोधी समिति या नारी उत्थान संघ के संचालक बने बैठे हैं। कानून को हाथ में लेने वाले अपराधी सफेदपोशों के अनुचर हैं। इन सबके अलावा कलमकार के हाथों को खरीदने की भी प्रक्रिया शुरू हो गई है, इसलिए सच हमेशा झूठ का नकाब लगाकर सामने आ रहा है।
आजादी अब खेतों-खलिहानों में नहीं बल्कि कांक्रीट के जंगलों में सफेदपोशों के हाथों में या फिर ए के 56 या ए. के. 47 वाले हाथों में पहुँच गई है। आंजादी को इस कैद से हमें ही छुड़ाना है। इसके लिए हमे आजादी की सही पीड़ा को समझना पड़ेगा। त्रासदी भोगती इस आंजादी को खेतों, खलिहानों, खेल के मैदानों, शालाओं, महाविद्यालयों में पहुँचाने का संकल्प लेना होगा, ताकि सही हाथों में पहँचकर आजादी 'हाथों के दिन' की उक्ति को चरितार्थ कर सके। ताकि हम सगर्व कह सकें, आ गए हाथों के दिन.... .... ।
डॉ. महेश परिमल

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