सोमवार, 4 अगस्त 2008
मौत के लिए नष्ट होती जिंदगी
डॉ. महेश परिमल
शीर्षक आपको अवश्य चौंका सकता है. पर यह सच है, इतना ही सच, जितना आप नहीं जानते. इतना तो तय है कि जीवित रहकर हम प्रकृति का जितना नुकसान नहीं कर पाते, उससे अधिक नुकसान तो हम मरने के बाद कर देते हैं. बात आसानी से समझ में नहीं आएगी. इसे समझने के लिए प्रसिध्द शायर बशीर बद्र की इन दो पंक्तियों को समझने का प्रयास करें-
लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में
तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में
देखा, तिनका-तिनका जोड़कर, पत्नी के गहने बेचकर, उधारी कर, ओव्हर टाइम कर और भी न जाने कितनी मशक्कतों के बाद सर छुपाने की जगह तैयार होती है, लोग इसे 'घर' कहते हैं. एक रेला आता है, इंसानी ंजज्बों का, उबलता हुआ तूफान बनकर और खत्म हो जाता है सब कुछ. बाकी रह जाती हैं यादें, ऑंसू और हिचकियों वाली रुलाई. खैर छोड़ो, बात वहीं अटक गई, इंसान मरकर कैसे प्रकृति का नुकसान करता है? यह तो हम सब जानते हैं कि आज हम सब कंप्यूटर युग में जी रहे हैं. सूचना-क्रांति का दौर चल रहा है. उपभोक्तावादी जिंदगी हम पर हावी हो रही है. नए जीवन-मूल्य स्थापित हो रहे हैं. पुराने मूल्य टूट रहे हैं. नई परंपराएँ भी स्थापित हो रही है. पुरानी परंपराओं को हम सब दरकिनार कर रहे हैं. घर में गाँव से सास-ससुर आ जाते हैं, तो बहू कहती है- हमने गाँव से ईमानदार कामवाली और माली को बुला लिया है. यह है इस तेज भागते जमाने की तस्वीर. सभ्य समाज की दरकती तस्वीर......
कुछ वर्ष पहले अखबारों में पढ़ा था कि न्यूयार्क में एक अमरीकी व्यक्ति पॉल कुलेन ने पाँच सौ वर्ष पुराने एक वृक्ष को जहर देकर मार दिया. अदालत ने उसे नौ वर्ष तक जेल में बंद रखने की संजा दी और एक हजार डॉलर जुर्माना भी किया. आखिर क्यों? हमारे देश में तो जंगल के जंगल साफ हो गए, पूरा जंगल माफिया हावी हो गया तमाम सरकारों पर. लेकिन कभी किसी को सजा हुई हो या जुर्माना हुआ हो, ऐसा तो अखबारों में नहीं पढ़ा और न ही टी.वी. पर सुना. अलबत्ता जंगल को ही अपना सब कुछ मानने वाले कुछ आदिवासी अवश्य पकड़ लिए जाते हैं.
पौधों में जीवन का संचार होता है, यह सिध्द कर बंग भूमि के रत्न सर जगदीश चंद्र बसु इस दुनिया से चल बसे. लेकिन हम आज भी वहीं के वहीं हैं. सरकारी फाइलों में हर वर्ष वन महोत्सव मनाया जा रहा है, लाखों पौधे उगाए जा रहे हैं, लेकिन सच इससे कोसों दूर है. अलबत्ता बचपन की बात याद आती है, जब माँ के साथ हम भाई-बहन जंगल जाते, माँ कोई ऑंवले का पेड़ देखकर डेरा डालती. फिर उस पेड़ की पूजा करती. तब हमें खाना मिलता. पेड़ के नीचे भोजन करने का सुखद अनुभव. अब तो न जंगल है और न ही पेडाें के प्रति वह श्रध्दा.
पेडाें के माध्यम से एक परंपरा पर चोट करना चाहता हूँ. यदि यह कहा जाए कि एक मुर्दे को दफनाना धरती की सेवा करना है और एक मुर्दे का दाहसंस्कार करना प्रकृति का दुश्मन बनना है, तो शायद कुछ अजूबा लगे. बरसों से चली आ रही परंपरा पर कुठाराघात भला किसे स्वीकार होगा. पर इन दोनों पक्षों पर गंभीरता से विचार किया जाए, तो किसी नतीजे पर पहुँचा जा सकता है. जो व्यक्ति चला जाता है, उसके विचारों को मानना, न मानना परिवार और समाज पर निर्भर होता है. सामान्यत: अधिकतर लोग पुराने रीति-रिवाजों को परंपरा मानते हैं. विचारवान और बुद्धिमान व्यक्ति सोचेगा कि दाहसंस्कार की परंपरा क्यों पड़ी है? अरण्यकाल याने जब भारत में वनों का साम्राज्य था, तब जंगल काटना एक यज्ञ माना जाता था. उस काल में अग्नि संस्कार की प्रथा प्रचलित हुई होगी. आज हालात बदल गए हैं, वृक्षों की कमी से वर्षा रूठने लगी है. वातावरण में प्रदूषण का खतरा बना हुआ है. ऐसे में मिट्टी के इस शरीर को मिट्टी को ही सौंप देना ंगलत नहीं होगा.
आप जानना चाहेंगे, एक वृक्ष अपने जीवनकाल में मानव को कितना, क्या समर्पित करता है? इसका आकलन कोलकाता विश्वविद्यालय के कृषि वैज्ञानिक डॉ. तारक मोहनदास ने किया है. इनैकी नवीनतम खोजों ने वनों के संबंध में एक नए चिंतन का सृजन किया है. अपनी खोज में उन्होंने बताया है कि वृक्षों का मुख्य उत्पादन प्राणवायु याने ऑक्सीजन है. पचास वर्ष आयु के एक वृक्ष को जिसका औसत भार 50 टन हो, उसे अगले पचास वर्षों तक जिंदा रहने दिया जाए, तो उसका उत्पादन इस प्रकार होगा-
1. ऑक्सीजन का उत्पादन 1000 कि.ग्रा.
2. प्रतिवर्ष के हिसाब से 50 वर्षों में 50 हजार कि.ग्रा
3. मूल्य 5 रुपए प्रति किलोग्राम 2 लाख 50 हजार रुपए
4. वायु प्रदूषण पर नियंत्रण 5 लाख रुपए
5. भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ाना 2 लाख 50 हजार रुपए
6. जल का प्रुनर्चक्रीकरण तथा
आर्द्रता पर नियंत्रण 3 लाख रुपए
7. पशु-पक्षियों का आवास 2 लाख 50 हजार रुपए
8. प्रोटीन और वसा निर्माण(पक्षियों में) 20 हजार रुपए
देखिए कुल 15 लाख 70 हजार रुपयों का लाभ होता है. इस तरह से वृक्ष की कुल लागत का केवल 0.3 प्रतिशत लाभ ही समाज को मिलता है और 99.7 प्रतिशत हानि होती है. इसका अर्थ यह है कि वृक्षों का काटना समाज के प्रति विद्रोह है तथा मानवता के प्रति अपराध.
अब देखते हैं कि दाह संस्कार से क्या हानि होती है. दाह संस्कार के समय मूल शरीर के साथ हम करीब 5 क्ंविटल लकड़ी जला देते हैं, जो लकडी ज़लती है, उस पेड़ से हमें साढ़े तीन रुपए की आक्सीजन प्राप्त होती. क्योंकि एक पेड़ अपने जीवन काल में 15 लाख रुपए की ऑक्सीजन देता है. लकड़ी जलने पर कार्बन गैस बनती है, जो ऑक्सीजन के साथ प्रतिक्रिया कर कार्बन डाय ऑक्साइड गैस बनाती है. यह गैस गर्म होने के कारण हल्की होती है. फलस्वरूप यह ओजोन की सतह पर पहुँच जाती है. अपनी गर्म प्रवृति के कारण यह गैस ओजोन की परत को तोड़ने का काम करती है.दाह संस्कार में इतना ईंधन बरबाद करना कहाँ की बुदधिमता है, बताएँगे आप?
यह तो हम सबको पता है कि देश बिगड़ चुके पर्यावरण को केवल पेड़ ही बचा सकते हैं, तो क्यों न हम मुर्दे को जलाने के बजाए उसे जमीन में ही दफना दें, इससे उतनी जमीन उपजाऊ हो जाएगी. वहाँ हम एक पौधा रोप दें. भविष्य में वह हमारे दादा-दादी, माता-पिता, चाचा-चाची, भाई-बहन, बेटा-बेटी, या पत्नी के रूप में हमारे सामने होंगे. जब दादा के लगाए वृक्ष के फलों को हम उनका आशीर्वाद समझकर ग्रहण करते हैं, तो क्यों न हम अपनों से बिछडे अपनों के शवों को गाड़कर वहाँ एक पौधा, प्यार का पौधा रोप दें. उसे अपना दुलार दें, प्यार दें, स्नेह दें, ताकि वहीं पौधा पेड़ बनकर जब लहलहाए, तब उसमें हम उसकी मस्ती देखें. अपने रिश्तेदार को देखें. अपनों को देखें. उस पेड़ की छाँव में बैठें, तो वह हमें अपना ममत्व, अपने दुलार के बदले में मीठे-मीठे फल दे. कितना अच्छा लगेगा, यह सब हमें.
यह सच है कि मैं एक परंपरा को तोड़ने की बात कर रहा हूँ, पर यह वक्त का तकाजा है. आज हमारे देश को सैनिकों की नहीं, पेड़ों की जरूरत है, जो हमारे पर्यावरण को बेहतर बनाए रखे. इस परंपरा के टूटने से लाभ अधिक है, हानि बिलकुल नहीं. आखिर हम आज विद्युत शवदाह गृह का इस्तेमाल तो कर ही रहे हैं ना! क्या इससे परंपरा नहीं टूटी? तब फिर उस परंपरा को अपनाने में क्या मुश्किल है, जिसमें हमारे अपने हमारी ऑंखों के सामने होते हैं, पलते हैं, बड़े होते हैं और अपना दुलार देते हैं. सर्वोदय जगत के कर्मठ कार्र्यकत्ता मणीन्द्र कुमार ने अपनी पुस्तक 'मृत्यु से जीवन की ओर' में उन्होंने वृक्ष जीवन पध्दति से अंतिम संस्कार करने पर जोर देते हुए काफी समर्थन जुटाया है. उनके इस कदम की सर्वत्र सराहना की जा रही है.
तो आइए एक संकल्प लें, मृतक का दाह संस्कार नहीं करेंगे, उस माटी पुत्र को माटी में मिला देंगे. तब वहीं माटी पुत्र या पुत्री जमीन को उपजाऊ बनाकर हमारे सामने एक पौधे से पेड़ बनकर हमें गुदगुदाएँगे, खिलखिलाएँगे और हमें देंगे अपना प्यार भरा आशीष, दुलार, स्नेह और प्यार केवल प्यार. आओ इस तरह चले हम मृत्यु से जीवन की ओर.....
डॉ. महेश परिमल
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जिंदगी
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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महेश जी,पर्यावण के प्रति आप का विचार सही है लेकिन इस के लिए मात्र सबसे बड़ा कारण बिना सोचे समझे वनों की कटाई है,चाहे वह माफिया द्वारा हुई हो या फिर आम इंसानों द्वारा।आज आधुनिकता व तरक्की के नाम पर कंकरीट के शहर बसते ही जा रहें हैं।
जवाब देंहटाएंआप का लेख बहुत बढिया व विचारणीय है।