मंगलवार, 26 अगस्त 2008
चिंतन :-धार्मिक शोर बनाम ध्वनि प्रदूषण
साथियॊ
आज २६ अगस्त याने मेरे ब्लाग का पूरा एक वर्ष । मुझे याद है भाई रवि रतलामी ने मुझे ब्लाग के लिए प्रेरित किया और एक दिन स्वयं भॊपाल आकर मेरा ब्लाग तैयार कर दिया । उस दिन मैंने इस दुनिया में पहला कदम बढ़ाया अब लगता है कि अभी भी ठीक से चलना नहीं सीख पाया हूँ । विश्वास है धीरे धीरे चलना सीख ही जाऊँगा । सभी साथियॊं का आभार जिन्हॊंने समय समय पर मेरा मार्गदर्शन किया । मुझे उन सभी से इसी तरह के सहयॊग की अपेक्षा रहेगी ।
डा महेश परिमल
हमारा मोहल्ला बहुत ही धार्मिक है। जगह-जगह मंदिर विराजमान है। आते-जाते लोग श्रद्धा से अपना सर झुका ही देते हैं। लोग भी धार्मिक होने लगे हैं, पर यह क्या? धार्मिक होने का यह मतलब तो नहीं कि आप अपने तथाकथित धार्मिक कार्य से दूसरों को अधार्मिक होने का संदेशा पहुँचाएँ। उस दिन हमारे पडाेसी की शादी की सालगिरह थी। उसने अखंड पाठ करवाने का विचार किया। हमें भी आमंत्रित किया। हमने उनका आमंत्रण स्वीकार कर लिया। रात 8 बजे जब हम वहाँ पहुँचे, तो नजारा ही कुछ अलग था। छोटे से हॉल में क्षमता से यादा लोग बैठे हुए रामायण की चौपाइयाँ गा रहे थे। ढोल, मंजीरों की कानफाड़ आवाज उस पर एक माइक भी लगा था। जिससे पूरा शोर बाहर लगे दो स्पीकरों के माध्यम से पूरे वातावरण को शोर से गुंजायमान कर रहा था।
यह कैसी भक्ति? आसपास के लोग परेशान। कहीं बच्चों की पढ़ाई, कहीं कोई बीमार, कहीं कोई थका-हारा सोना चाहता हो तो सो न पाए। दूसरे दिन उसे फिर काम पर जाना है। ऐसे में वह कैसे सो पाएगा और दूसरे दिन कैसे काम पर जा पाएगा? बच्चे कैसे कर पाएँगे अपना होमवर्क? और वह बीमार जो शोर से घबराता है, उसका क्या होगा? सारी संवेदना खत्म हो गई, इस धार्मिक कार्य के पीछे।
धार्मिक अनुष्ठानों का विरोध नहीं होना चाहिए। ऐसे अनुष्ठान हृदय को पवित्र करते हैं, धार्मिक भाव जगाते हैं, विचार शुद्ध करते हैं, पर इनमें ध्वनि विस्तारक यंत्रों का जो प्रयोग किया जाता है, वह असहनीय हो जाता है। क्या हम इन यंत्रों का प्रयोग बंद नहीं कर सकते? वैसे भी हम इनका प्रयोग कर कोई पुण्य तो नहीं कमा रहे हैं। अनजाने में हम शोर बढ़ाने का ही काम कर रहे है। यह इतना जरूरी भी नहीं है। हमें अपने धार्मिक अनुष्ठान का प्रदर्शन तो नहीं करना है। तब फिर यंत्रों का प्रयोग करके हम मुसीबत क्यों मोल लें?
वैसे भी ध्वनि विस्तारक यंत्रों का प्रयोग कानूनन अपराध है, पर धार्मिक अनुष्ठानों में इसका खूब प्रयोग होता है। इससे निकलने वाला शोर व्यक्ति को बहरा बना सकता है या उसका मानसिक संतुलन बिगाड़ सकता है। आज हमारे कानों में यह शहरी शोर इतना घुस गया है कि उसे बाहर निकालना मुश्किल है। इसीलिए कभी जब हम शहर से दूर चले जाते हैं, तो बाहर की शांति हमें बहुत भली लगती है। कुछ घंटों बाद हम फिर उसी शोर के बीच जीने को विवश हो जाते हैं।
प्रश् स्वाभाविक है- शोर की आवश्यकता क्यों? हमें शोर करके यह क्यों बताना चाहिए कि हम यह धार्मिक कार्यक्रम कर रहे हैं। क्या प्रचार आवश्यक है? अगर ध्वनि विस्तारक यंत्रों का प्रयोग न किया जाए, तो शांति स्थापित करने में हम परोक्ष भूमिका तो निभा ही सकते हैं। हमें शांति चाहिए, शोर नहीं।
- क्या हम वास्तव में शोरगुल पसंद हैं?
- क्या शोर करना और उसका प्रचार अति आवश्यक है?
- धार्मिक कार्यों में शोर की क्या आवश्यकता है?
- ध्वनि विस्तारक यंत्रों पर समुचित प्रतिबंध क्यों नहीं लग सकता?
- शोर हमारा मानसिक संतुलन बिगाड़ देगा, तब क्या होगा?
निर्णय हमें स्वयं करना है, कि हमें शांति चाहिए या शोर?
डॉ. महेश परिमल
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चिंतन
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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दहाड़े रात भर माइक पे देवी जागरण वाले
जवाब देंहटाएंमोहल्ले भर के गोया नींद और आराम ख़तरे में
its really nice bhot accha likha hai sir
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