गुरुवार, 21 अगस्त 2008
चिंतन:- सेहत की सौगात
डॉ महेश परिमल
एक चीनी कहावत है - अगर मैं अपने हृदय में एक हरा-भरा बगीचा बना लूँ, तो गाने वाली कोयल अपने आप आ जाएगी। ये उन बुझे हुए निराष लोगों के लिए एक रामबाण दवा है, जो जीवन की राहों में चलकर थक गए हैं, निस्तेज हो चुके हैं। स्वयं को प्रकृति से दूर रखा, इसीलिए इतनी जल्दी थक गए। प्रकृति को अपने भीतर बसाने वाले सदैव प्रफुल्लित होते हैं। उनके विचारों में ताजगी होती है। वे ऊर्जावान होते हैं।
कभी किसी दिन आप जल्दी बिस्तर छोड़ दें और बाहर का नजारा देखने निकल पड़ें। चिड़ियों की चहचहाट को अपने भीतर आने दें। ठंडी हवाओं के झोकों को महसूस करें। बादलों को दौडता देखें, यदि आपके पास और भी समय हो, तो घर से बाहर आकर किसी पार्क में पहुँच जाएँ। फिर देखो, प्रकृति के सुकुमार किस तरह से व्यायाम करते दिखाई देंगे। बुजुर्ग बच्चाें के साथ बच्चे बनकर दौड़ लगा रहे हैं। युवा एक नई उमंग और उल्लास के साथ सूरज की किरणों के बीच एक नई सोच में रंग भर रहे हैं। इन्हें कहा जा सकता है, प्रकृति की गोद में खेलने वाले सुकुमार।
आज की दौड़ती-भागती जिंदगी में यह संभव नहीं हो पाता। किसी के पास भी समय नहीं है। धन की लालसा और आगे बढ़ते रहने की चाहत ने सब-कुछ भुला दिया है। हमारे भीतर ही खो गया है, पेड़-पौधों का हरापन। अंतस की हरियाली पीले पत्तों की तरह मुरझा गई है। षहरी षोर और वाहनों का धुऑं हमारे भीतर इतनी पैठ जमा चुका है कि हम प्रकृति के सच से दूर हो गए हैं। प्रकृति से जुड़ना तो दूर हम प्रकृति को भूलने लगे हैं। ड्राइंगरूम में प्रकृति का बड़ा सा पोस्टर लगाकर हम सोचते हैं कि हम प्रकृति प्रेमी हो गए हैं। क्या यही है प्रकृति प्रेम? प्रकृति का राग ही ऐसा है, जिसके लिए किसी साज की आवष्यकता नहीं होती। यह तो हृदय के स्पंदन से प्रारंभ होता है और मस्तिष्क को प्रभातिव करता है।
प्रकृति के बारे में प्रकृतिप्रेमी वाल्ट व्हिटमैन कहते हैं कि किसी अध्यात्म से अधिक संतुष्टि मुझे अपनी खिड़की के बाहर सूर्योदय के नजारे से मिलती है। हमारी कई समस्याओं के मूल में यही भावना है कि हम प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं। प्रकृति ने हमें सदैव दिया है। प्रकृति हमसे कुछ नहीं लेती। उसके पास ऊर्जा की दौलत है, वही हमें लुटाना चाहती है। एक हम ही हैं, जो प्रकृति का साथ छोड़कर न जाने किस चाहत में भागे जा रहे हैं।
जरा सोचिए, आज हमें जो षुध्द वायु मिल रही है, वह हमें हमारे आसपास के पेड़-पौधों से प्राप्त हो रही है। इन्हें लगाया किसने है? हमारे पूर्वजों ने। याने पूर्वजों का वह पराक्रम आज हमें काम आ रहा है। आप बताएँ अपनी भावी पीढ़ी के लिए आप ऐसा क्या करने जा रहे हैं, जो उन्हें काम आए? आपका उत्तर नकारात्मक ही होगा। अपने पूर्वजों के अच्छे कार्यों की बदौलत आप तो बच गए, अगली पीढ़ी को षुध्द हवा और पानी भी न देकर उनके साथ किस प्रकार का अन्याय करेंगे, उसकी कल्पना भी की है आपने?
प्रकृति को माँ का स्थान ऐसे ही नहीं दिया गया है। इसकी गोद में आकर तो देखो- माँ का सच्चा दुलार मिलेगा। वह भी बिना किसी भेदभाव के, नि:स्वार्थ भाव से। हम इससे हृदय से जुड़ जाएँ, तो यह हमें उपहारों से लाद देगी। इसका सबसे बड़ा उपहार होता है- सेहत का उपहार। प्रकृति प्रेमी इसीलिए कभी बिमार नहीं पड़ते। इसलिए आओ प्रकृति से जुड़ें और पा लें- सेहत की सौगात। फिर इसे बाँट दें अपनों के बीच।
डॉ। महेश परिमल
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चिंतन
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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बहुत ही सुन्दर,आप की पोस्ट पढ कर हमेशा कुछ ना कुछ ले कर ही गया हू,
जवाब देंहटाएंधन्यवाद