शनिवार, 23 अगस्त 2008
राधा की पाती कान्हा के नाम....
प्रिय कान्हा,
आज यह पाती लिखते हुए मैं काफी उदास हूँ. लोग भले ही हमारे संबंधों को लेकर न जाने कितने ही प्रश्नों की झड़ियाँ लगाते रहें, पर हमारा शाश्वत प्रेम मेरे लिए तो एक अनमोल उपहार है. प्रेम कभी संबंधो में बंधा नहीं रहता कि उसे कोई नाम दिया जाए, वह तो सारे बंधनों से दूर असीम और अनंत होता है. फिर भी यह दुनिया, यह समाज हमारे संबंधों को लेकर उँगली उठाता है.
तुम इन सभी बातों से दूर, प्रश्नों के इस तिलस्म से विलग अपने आपमें मस्त रहते हो. इसलिए तुम्हें कोई फर्क नहीं पड़ता. उठती उंगलियों की ओर तुम्हारी नजरें नहीं जाती. क्योंकि तुम्हारी ऑंखों में कदाचित मेरा ही बिम्ब है. लोगों की बातें तुम सुन नहीं पाते. मेरा विश्वास है कि तुम्हारे कानों में मेरी ही स्वर लहरियाँ गूँज रही है. ये विश्वास चलो मेरा भ्रम ही सही, पर सच्चाई यही है कि इन सभी सामाजिक बंधनों से दूर तुम अपने आप में ही मगन हो. किंतु कान्हा, मैं तो राधा हँ. हूँ तो एक नारी ही ना. मुझे लेकर लोग चार बातें कहें, और मेरे माथे पर बल न पड़े, हृदय तार-तार न हो, ऐसा कहीं हो सकता है भला?
काली अंधेरी रात, घनघोर वर्षा का तांडव, बिजलियों का नृत्य और ऐसे में तुम्हारा आना. सचमुच ही उस समय मथुरा नगरी धन्य थी. पर उस नगरी के माथे पर तुम्हारे नाम का टीका बहुत बाद में लगा. तुम नवजात थे, फिर भी यमुना ने तुम्हारे कदम चूम ही लिए. गोकुल में जिसने भी तुम्हें देखा, बस देखता ही रहा. तुम्हारी मनभावन, मोहिनी मूरत सभी को अपनी ओर खींचती रही. तुम्हारा बाल-रूप, बाल क्रीडाएँ सभी को लुभाती रही. मैं भी तो उन लोगों में से एक थी. धीरे-धीरे तुम्हारी बंसी की तान मेरे हृदय को छेड़ती रही. मेरे अधरों पर तुम्हारा नाम, ऑंखों में तुम्हारी छवि कब बस गई, इसका भान तो मुझे भी न हुआ.
बचपन की तुम्हारी हर शरारत, जो लोगों को अचंभे में डाल देती थी, दांतो तले उंगली दबाने पर विवश कर देती थी, वही शरारतें मुझे भीतर तक वेदना से भर देती थी. तुम्हारा खेल-खेल में गेंद लेने के बहाने यमुना में कूद पड़ना और काली नाग के साथ युध्द करना, लोगों के लिए एक कौतूहल का क्षण था. किंतु मेरे लिए तो वह परीक्षा की घड़ी थी. मेरे प्राण अधर में लटके, तुम्हारे नदी से बाहर निकलने की प्रतीक्षा कर रहे थे. एक उंगली पर गोवर्धन उठाने की क्या जरूरत थी कान्हा? यदि तुम्हें कुछ हो जाता तो?
तुम्हें माखन बहुत पसंद है, माँ यशोदा तुम्हें भरपूर माखन देती थी. उसके बाद भी गोपियों के घरों से माखन चुराना, उनके दहीं के मटके फोड़ना तुम्हारी आदत में शामिल था. वन में बलदाऊ के साथ गायें चराने जाते हुए भटक जाने का विचार ही तुम्हें डरा देता था और तुम माँ के पास ग्वालबालों और भाई की शिकायत करने में थोड़ा भी विलंब नहीं करते थे. जबकि तुम यह अच्छी तरह जानते थे कि कोई तुम्हें वन में अकेला छोड़ कर नहीं जाएगा. छोटी-छोटी बातों मे डरने वाले मेरे प्रियतम, क्या तुम्हें बडे-बड़े पराक्रम करते हुए माँ का खयाल नहीं आया? तुम्हारी तो एक नहीं, दो-दो माता थी. उनका ममत्व क्या तुम्हें रोक नहीं पाया? माँ की व्यथा से अनजान तुम अपने कर्मपथ पर आगे बढ़ते रहे और कर्मयोगी कहलाए.
एक बार तो कहो कान्हा कि मेरे मर्म को कब समझने की कोशिश की तुमने? गोपियों के साथ तुम्हारी अठखेलियाँ, रास-लीलाएँ, माखन चोरी और मस्ती मुझे भीतर तक आहत कर देती थी. एक बार तो मुझसे कहा होता- मुझे माखन चाहिए. मैं तुम्हारे लिए माखन के हजारों छींके अपने हाथों से तैयार कर तुम्हारे सामने रख देती. गोपियों के साथ तुम्हारा प्रेम मेरे भीतरी की अगन को और अधिक भड़काता रहा. इसका वर्णन तो कोई कर ही नहीं सकता.
मैं जानती हूँ, तुम बहुत पराक्रमी हो. शूरवीर, साहसी, बलशाली, हिम्मती यह सारे आभूषण तुम्हारे आगे फीके हैं. पूतना का वध, बकासुर का अंत, शिशुपाल का संहार, कंस का अंत, इन सारी चुनौतियों को स्वीकारते हुए क्या तुम्हें एक क्षण को भी मेरा विचार नहीं आया? चलो अच्छा है कि इन चुनौतियों के बीच मैं तुम्हारी स्मृतियों में नहीं थी, वरना तुम डगमगा जाते. जो मुझे अच्छा नहीं लगता.
मैं जानती हूँ कि संपूर्ण जगत में मेरी पहचान केवल तुमसे है. लोग तुम्हें भी राधा के बिना आधा कहते हैं. यह सुनकर एक पल को मैं गर्वित हो उठती हूँ, किंतु दूसरे ही पल तुम्हारा आधा होना मुझे स्वीकार नहीं होता. तुम्हारे जन्मदिवस पर मेरे पास तुम्हें देने के लिए सिवा ऑंसुओं के और कुछ भी नहीं है. हाँ, याद आया. तुम्हारी और सुदामा की मित्रता. यह एक अमोल भेंट है, जो हर किसी के भाग्य में नहीं है. यह मित्रता तुम्हारे जन्मदिवस पर सभी को मिले, हमारा शाश्वत प्रेम सभी को मिले, माँ यशोदा और देवकी की ममता सभी को मिले, कुरुक्षेत्र में पार्थ को दिए गीता के ज्ञान का कुछ अंश लागों के व्यवहार में मिले, इन्हीें कामनाओं के साथ....
केवल तुम्हारी
राधा
भारती परिमल
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जिंदगी
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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achha laga aapko padhkar
जवाब देंहटाएंbahut sundar abhivyakti
जवाब देंहटाएंहिन्दी ब्लागजगत में आपका हार्दिक है .कृपया हिन्दी भाषा के प्रचार प्रसार में अधिक योगदान दे.
शुभकामनाओ के साथ आपका भाई
महेंद्र मिश्रा
जबलपुर.
हिन्दी ब्लॉग
समयचक्र
निरंतर
सफलप्रहरी
http://mahendra-mishra1.blogspot.com
बहुत अच्छा । जन्माष्टमी की बहqत बहुत शुभकामनाएं।
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