शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2009
क्या होता है रिसोर्ट का सच?
डॉ. महेश परिमल
सोमवार से शुक्रवार तक भाग-दौड़, ऑफिस आना-जाना, शरीर को थका देने वाला काम, बॉस की डाँट, घर लौटो, तो बच्चों का शोर, पत्नी की फरमाइशें, फिर ऑफिस का काम, तनाव.. तनाव..और केवल तनाव..। आखिर क्या करें? क्यों न इस बार वीक-एंड में शहर से दूर किसी रिसोर्ट में जाकर फ्रेश हो लें? कई साथी तो जाते ही हैं। वहाँ न तो परिवार की झंझट होगी, न शोर होगा, न बॉस होंगे, न ही होगी, पत्नी की फरमाइशें। वहाँ तो होगी, मस्ती.. मस्ती.. और केवल मस्ती..। तो इस बार चले ही चलें किसी रिसोर्ट में वीक-एंड मनाने।
अहा! माा आ गया। तबियत तर हो गई। सारा तनाव ही दूर हो गया। अब पूरी चुस्ती और स्फूर्ति के साथ काम होगा। कोई तनाव भी नहीं होगा। अब तो महीने में एक बार रिसोर्ट हो ही आया जाए, तो जिंदगी ही सँवर जाए। हमारे आसपास इस मानसिकता के कई लोग है, जो ऐसा सोचते हैं कि वीक-एंड में किसी रिसोर्ट में जाकर खुद को रिफे्रश करते हैं। खर्च तो काफी हो जाता है, पर मन की शांति के लिए उन्हें यह खर्च करना अखरता नहीं है। आखिर कमा ही किसलिए रहे हैं। अभी खर्च नहीं करेंगे, तो फिर कब करेंगे? यह एक सुखद चित्र हो सकता है, समाज के सभ्रांत लोगों का। पर बहुत ही खतरनाक है रिसोर्ट का सच! आप जानना चाहेंगे, क्या होता है यह रिसोर्ट का सच? तो आइए जान ही लेते हैं, हमारे आसपास सँवरती एक नई जिंदगी का सच। जो दिखने में तो बहुत ही खूबसूरत लगती है, पर है बहुत ही भयावह और खतरनाक।
आज शहरी जिंदगी एकदम उबाऊ और तनावभरी हो गई है। यहाँ न तो शुद्ध हवा है, न ही शुद्ध पानी। ट्राफिक जाम, वाहनों का शोरगुल, धुऑं और घुटन, यह सब इंसान को इतना अधिक थका देता है कि वह वीक-एंड में किसी रिसोर्ट जाकर फ्रेश होना चाहता है। इस रिसोर्ट में प्रकृति के सान्निध्य सात्विक आनंद प्राप्त करने के बदले वह एक अलग ही प्रकार के प्रदूषण का शिकार हो जाता है। आज बड़े शहरों से लगे गाँवों में विलेज रिसोर्ट, वॉटर पार्क और कंट्री क्लब की कतारें लगी हुई हैं। लोगों को लुभाने के लिए यह भी एक बिजनेस ही है, जो एक प्राकृतिक सौंदर्य के नाम से लोगों को लूट रहा है, आश्चर्य की बात यह है कि लोगों को लुटने में मजा आ रहा है। इसलिए यह धंधा चल निकला है।
वैसे तो शहर के आसपास बहुत से नदी-नाले, तालाब एवं वृक्षों से आच्छादित स्थान होते हैं, पर इंसान वहाँ नहीं जाना चाहता, आखिर क्यों? इन स्थानों पर प्रकृति तो बाहें पसारे आपके स्वागत के लिए तैयार है, पर आपको वह सुविधाएँ नहीं मिल सकती, जो रिसोर्ट में मिलती है। प्रकृति की गोद में तो केवल भीतर का आनंद प्राप्त किया जा सकता है। पर रिसोर्ट में तो वह सब-कुछ खुले रूप में मिलेगा, जिसे अब तक संकोच के साथ प्राप्त किया जाता रहा है। एक मुक्त आसमान मिल जाता है, रिसोर्ट में। जहाँ हर तरह की सुख-सुविधा आपका इंतजार करती है। बस लुटते जाओ और लुटते जाओ। पूरा रिसोर्ट ही लूटने को तैयार है। किसी रिसोर्ट की एंट्री फीस ही होती है 150 से 350 रुपए प्रति व्यक्ति। आपने यहाँ प्रवेश तो कर लिया। अब यदि आपको पानी भी पीना है, तो यहाँ से खरीदकर ही पी पाएँगे। कदम-कदम पर आप जेब खाली करते रहें, और मजे लूटते रहें। स्वीमिंग पुल में प्रवेश का अलग शुल्क, वहाँ की कास्टयूम का अलग से किराया, मनोरंजन के लिए वहाँ उपलब्ध राइड्स का शुल्क अलग, कोल्डड्रिंक्स, आइसक्रीम के लिए अलग से खर्च करना होगा। यदि आप घर का बना खाना वहाँ खाना चाहें, तो इसकी मनाही है। जानते हैं आप कि नदी या तालाब किनारे की यह जमीन गाँव के भोले-भाले लोगोें से औने-पौने दामों में खरीदी गई इस जमीन पर कई पेड़ों को काटकर कुछ को बचाकर यह रिसोर्ट बनाया गया है। जहाँ शहर के लोग बूँद-बँद पानी के लिए तरस रहे हों, वहाँ कई गैलन पानी केवल स्वीमिंग पूल के नाम पर ही बहा दिया जाता है। अब आते हैं यहाँ के मुक्त वातावरण में।
वह देखिए, वे बुजुर्ग घंटों से पानी में ही पड़े हुए हैं। घर में ये भले ही धोती-कुरता ही पहनते हों, पर यहाँ तो केवल एक जांघिए में ही पानी में पडे हुए हैं, आपने देखा, उनकी नजरों को। बाजू में ही मछली की तरह तैरती उस युवती को वे किस तरह से निहार रहे हैं। है कोई लाज-शरम, घर में बच्चों के लिए लोरी और कहानियाँ सुनाने वाली दादी भी यहाँ गाऊन में किस तरह से घूम रही हैं। कुछ बुजुर्ग होते युवाओं ने तो अपनी अलग ही दुनिया बसा ली है। सप्ताह भले ही शाकाहारी भोजन और पूजा-पाठ में ही बीतता हो, पर यहाँ तो शाकाहारी नहीं चलेगा, थोड़ी-सी के नाम पर पूरी बोतल खाली करने वाले कई मिल जाएँगे। आखिर यहाँ इसकी भी पूरी छूट है। पूरा परिदृश्य ही बदला हुआ है। सब मस्ती में हैं। जीवन का सच्चा आनंद बटोर रहे हैं। पर शायद उन्हें नहीं मालूम कि स्वीमिंग पूल का पानी साफ करने वाला फिल्टर प्लांट कई दिनों से बंद पड़ा है। लोग सीधे स्वीमिंग पूल में कूद रहे हैं। इस दौरान उनके शरीर का पूरा मैल पूल में ही फैल रहा है। ऐसा केवल कुछ लोग ही नहीं, बल्कि अधिकांश लोग कर रहे हैं। पूरा गंदा पानी कई लोगों को बीमारी के लिए आमंत्रित कर रहा है। आप शाकाहारी भोजन लेना भी चाहें, तो वह नहीं मिलेगा। क्योंकि यहाँ दोनों का किचन एक ही है। फिर चम्मच, कलछी या फिर गंज तो एक-दूसरे के लिए बेखौफ इस्तेमाल में लाए जा रहे हैं।
उधर देखा, किस तरह से आज के युवा फूहड़ ऍंगरेजी गीतों पर बेहूदा डांस कर रहे हैं? कितना शोर है वहाँ। क्या आप इसी शोर से बचने के लिए यहाँ आए थे, तो फिर सँभालो अपने आप को इस शोर से। कृत्रिमता जगह-जगह पर दिखाई देती है। आप धन खर्च करें, तो आपके लिए कृत्रिम बारिश भी करवा दी जाएगी, जहाँ आप रेन डांस भी कर सकते हैं। एंट्री फीस के साथ भोजन और नाश्ता ही दिया जा रहा है। इतना तो 50- 100 रुपए में ही हो जाता है। बाकी तो आपसे प्रकृति के सौंदर्य के नाम पर लूटा जा रहा है।
प्रकृति के नाम पर न तो यहाँ पक्षियों का शोर है, न ताजा हवा, न एकांत, न पत्तों की सरसराहट, न चिड़ियों का कलरव, न लहरों का संगीत ऐसा कुछ भी तो नहीं है यहाँ, जिसे हम प्रकृति कहते हैं। रिसोर्ट में आपको मुक्त और उदात्त जीवन देखने को मिला। लोगों का खुलापन देखने को मिला। नकली हँसी और ऑंखों को भले लगने वाले कुछ दृश्य देखने को मिले, तो क्या इसी से हम यह मान लें कि हमने प्रकृति की गोद में समा गए? चार-पाँच सदस्यों के एक परिवार का खर्च यहाँ 3 हजार रुपए होना तो साधारण सी बात है। यहाँ आने के बाद लोग बेवजह खिलखिलाने की कोशिश करते हैं। साथ ही इस बात का दावा करते हैं कि वे पूरी तरह से रिलेक्स हो गए हैं। लेकिन क्या केवल एक-दो दिन की मौज मस्ती से जीवन की समस्याओं का हल संभव है? रिसोर्ट से बाहर आकर घर पहुँचते ही वापस उन्हीं समस्याओं का सामना करना पड़ता है। समस्याओं से भागना अपने आप को धोखा देना है। शहरी जीवन के प्रदूषण से अलग होने के लिए दूसरे प्रदूषण से घिरना कहाँ की समझदारी है?
डॉ. महेश परिमल
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आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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कुछ लोगों के पास मुफ़्त में धन आ रहा है, वे उसे मुफ़्त में उडा रहे हैं. उन्हें इस बात की कोई फ़िक्र भी नहीं है देश की सभी सुविधाओं से वंचित 70 फ़ीसदी आबादी का क्या होगा. उन्हें लुटने में मज़ा आ रह है, तो उन्हें लुटने देने में हर्ज़ ही क्या है!
जवाब देंहटाएंआपने 'जन्नत की हकीकत' उजागर कर दी।
जवाब देंहटाएंबडे लोगों के चोंचले, गराबों के प्राण ले लेते हैं। यह नकली दुनिया है जहां हंसर भी नकली और खुशी भी।
अच्छी पोस्ट। सामयिक भी और आवश्यक भी।