शनिवार, 28 फ़रवरी 2009

टेपचू

उदय प्रकाश
यहाँ जो कुछ लिखा हुआ है, वह कहानी नहीं है. कभी-कभी सच्चाई कहानी से भी ज्यादा हैरत अंगेज होती है. टेपचू के बारे में सब कुछ जान लेने के बाद आपको भी ऐसा ही लगेगा. टेपचू को मैं बहुत करीब से जानता हूं. हमारा गांव मडर सोन नदी के किनारे एक-दो फर्लांग के फासले पर बसा हुआ है. दूरी शायद कुछ और कम हो, क्योंकि गांव की औरतें सुबह खेतों में जाने से पहले और शाम को वहां से लौटने के बाद सोन नदी से ही घरेलू काम-काज के लिए पानी भरती है. ये औरतें कुछ ऐसी औरतें हैं, जिन्हें मैंने थकते हुए कभी नहीं देखा है. वे लगातार काम करती जाती है.
गांव के लोग सोन नदी में ही डुबकियां लगा-लगाकर नहाते हैं. डुबकियां लगा पाने लायक पानी गहरा करने के लिए नदी के भीतर कुइयां खोदनी पडती है. नदी की बहती हुई धार के नीचे बालू को अंजुलियों से सरका दिया जाए तो कुइयां बन जाती है. गर्मी के दिनों में सोन नदी में पानी इतना कम होता है कि बिना कुइयां बनाए आदमी का धड ही नहीं भींगता. यही सोन नदी बिहार पहुंचते-पहुंचते कितनी बडी हो गई है, इसका अनुमान आप हमारे गांव के घाट पर खडे होकर नहीं लगा सकते.
हमारे गांव में दस-ग्यारह साल पहले अब्बी नाम का एक मुसलमान रहता था. गांव के बाहर जहां चमारों की बस्ती है, उसी से कुछ हटकर तीन-चार घर मुसलमानों के थे. मुसलमान, मुर्गियां, बकरियां पालते थे. लोग उन्हें चिकवा या कटुआ कहते थे. वे बकरे-बकरियों के गोश्त का धंधा भी करते थे. थोडी बहुत जमीन भी उनके पास होती थी. अब्बी आवारा और फक्कड क़िस्म का आदमी था. उसने दो-दो औरतों के साथ शादी कर रखी थी. बाद में एक औरत जो ज्यादा खूबसूरत थी, कस्बे के दर्जी के घर जाकर बैठ गई. अब्बी ने गम नहीं किया. पंचायत ने दर्जी क़ो जितनी रकम भरने को कहा, उसने भर दी. अब्बी ने उन रूपयों से कुछ दिनों ऐश किया और फिर एक हारमोनियम खरीद लाया. अब्बी जब भी हाट जाता, उसी दर्जी क़े घर रुकता. खाता-पीता, जश्न मनाता, अपनी पुरानी बीवी को फुसलाकर कुछ रूपए ऐंठता और फिर खरीदारी करके घर लौट आता. कहते हैं, अब्बी खूबसूरत था. उसके चेहरे पर हल्की-सी लुनाई थी. दुबला-पतला था. बचपन में बीमार रहने और बाद में खाना-पीना नियमित न रहने के कारण उसका रंग हल्का-सा हल्दिया हो गया था. वह गोरा दिखता था. लगता था, जैसे उसके शरीर ने कभी धूप न खाई हो. अंधेरे में, धूप और हवा से दूर उगने वाले गेहूं के पीले पौधे की तरह उसका रंग था. फिर भी, उसमें जाने क्या गुण था कि लडक़ियां उस पर फिदा हो जाती थीं. शायद इसका एक कारण यह रहा हो कि दूर दराज शहर में चलने वाले फैशन सबसे पहले गांव में उसी के द्वारा पहुंचते थे. जेबी कंघी, धूप वाला चश्मा, जो बाहर से आईने की तरह चमकता था, लेकिन भीतर से आर-पार दिखाई देता था, तौलिए जैसे कपडे क़ी नंबरदार पीली बनियान, पंजाबियों का अष्टधातु का कडा, रबर का हंटर वगैरह ऐसी चीजें थी, जो अब्बी शहर से गांव लाया था.
जब से अब्बी ने हारमोनियम खरीदा था, तब से वह दिन भर चीपों-चीपों करता रहता था. उसकी जेब में एक-एक आने में बिकने वाली फिल्मी गानों की किताबें होतीं. उसने शहर में कव्वालों को देखा था और उसकी दिली ख्वाहिश थी कि वह कव्वाल बन जाए, लेकिन जी-तोड क़ोशिश करने के बाद भी ़ ़''हमें तो लूट लिया मिल के हुस्नवालों ने'' के अलावा और दूसरी कोई कव्वाली उसे याद ही नहीं हुई.
बाद में अब्बी ने अपनी दाढी-मूंछ बिल्कुल सफाचट कर दी और बाल बढा लिए. चेहरे पर मुरदाशंख पोतने लगा. गांव के धोबी का लडक़ा जियावन उसके साथ-साथ डोलने लगा और दोनों गांव-गांव जाकर गाना-बजाना करने लगे. अब्बी इस काम को आर्ट कहता था, लेकिन गांव के लोग कहते थे, ''ससुर, भडैती कर रहा है.'' अब्बी इतनी कमाई कर लेता था कि उसकी बीवी खा-पहन सके.
टेपचू इसी अब्बी का लडक़ा था.टेपचू जब दो साल का था, तभी अब्बी की अचानक मौत हो गई.
अब्बी की मृत्यु भी बडी अजीबो-गरीब दुर्घटना में हुई. आषाढ क़े दिन थे. सोन उमड रही थी. सफेद फेन और लकडी क़े सडे हुए लठ्ठे-पटरे धार में उतरा रहे थे. पानी मटैला हो गया था, चाय के रंग जैसा, और उसमें कचरा, काई, घास-फूस बह रहे थे. यह बाढ क़ी पूर्व सूचना थी. घंटे-दो घंटे के भीतर सोन नदी में पानी बढ ज़ाने वाला था. अब्बी और जियावन को जल्दी थी, इसलिए वे बाढ से पहले नदी पार कर लेना चाहते थे. जब तक वे पार जाने का फैसला करें और पानी में पांव दे तब तक सोन में कमर तक पानी हो गया था. जहां कहीं गांव के लोगों ने कुइयां खोदी थीं, वहां छाती तक पानी पहुंच गया था. कहते हैं कि जियावन और अब्बी बहुत इत्मीनान से नदी पार कर रहे थे. नदी के दूसरे तट पर गांव की औरतें घडा लिए खडी थीं. अब्बी उन्हें देखकर मौज में आ गया. जियावन ने परदेसिया की लंबी तान खींची. अब्बी भी सुर मिलाने लगा. गीत कुछ गुदगुदीवाला था. औरतें खुश थीं और खिलखिला रही थीं. अब्बी कुछ और मस्ती में आ गया. जियावन के गले में अंगोछे से बंधा हारमोनियम झूल रहा था. अब्बी ने हारमोनियम उससे लेकर अपने गले में लटका लिया और रसदार साल्हो गाने लगा. दूसरे किनारे पर खडी हुई औरतें खिलखिला ही रही थीं कि उनके गले से चीख निकल गई. जियावन अवाक होकर खडा ही रह गया. अब्बी का पैर शायद धोखे से किसी कुइयां या गङ्ढे में पड ग़या था. वह बीच धार में गिर पडा. गले में लटके हुए हारमोनियम ने उसको हाथ पांव मारने तक का मौका न दिया. हुआ यह था कि अब्बी किसी फिल्म में देखे हुए वैजयंती माला के नृत्य की नकल उतारने में लगा हुआ था और इसी नृत्य के दौरान उसका पैर किसी कुइयां में पड ग़या. कुछ लोग कहते हैं कि नदी में चोर बालू भी होता है. ऊपर-ऊपर से देखने पर रेत की सतह बराबर लगती है, लेकिन उसके नीचे अतल गहराई होती है ़ ़पैर रखते ही आदमी उसमें समा सकता है.
अब्बी की लाश और हारमोनियम, दोनों को ढूंढने की बहुत कोशिश की गई. मलंगा जैसा मशहूर मल्लाह गोते लगाता रहा, लेकिन सब बेकार. कुछ पता ही नहीं चला.
अब्बी की औरत फिरोजा जवान थी. अब्बी के मर जाने के बाद फिरोज़ा के सिर पर मुसीबतों के पहाड टूट पडे. वह घर-घर जाकर दाल-चावल फटकने लगी. खेतों में मजदूरी शुरू की. बगीचों की तकवानी का काम करना शुरू किया, तब कहीं जाकर दो रोटी मिल पाती. दिन भर वह ढेंकी कूटती, सोन नदी से मटके भर-भरकर पानी ढोती, घर का सारा काम काज करना पडता, रात खेतों की तकवानी में निकल जाती. घर में एक बकरी थी, जिसकी देखभाल भी उसे ही करनी पडती. इतने सारे कामों के दौरान टेपचू उसके पेट पर, एक पुरानी साडी में बंधा हुआ चमगादड क़ी तरह झूलता रहता.
फिरोजा को अकेला जानकर गांव के कई खाते-पीते घरानों के छोकरों ने उसे पकडने की कोशिश की, लेकिन टेपचू हर वक्त अपनी मां के पास कवच की तरह होता. दूसरी बात, वह इतना घिनौना था कि फिरोजा की जवानी पर गोबर की तरह लिथडा हुआ लगता था. पतले-पतले सूखे हुए झुर्रीदार हाथ-पैर, कद्दू की तरह फूला हुआ पेट, फोडाें से भरा हुआ शरीर. लोग टेपचू के मरने का इंतजार करते रहे. एक साल गुजरते-गुजरते हाड-तोड मेहनत ने फिरोजा की देह को झिंझोडक़र रख दिया. वह बुढा गई. उसके बाल उलझे हुए सूखे और गंदे रहते. कपडाें से बदबू आती. शरीर मैल पसीने और गर्द से चीकट रहा करता. वह लगातार काम करती रही. लोगों को उससे घिन होने लगी.
टेपचू जब सात-आठ साल का हुआ, गांव के लोगों की दिलचस्पी उसमें पैदा हुई.हमारे गांव के बाहर, दूर तक फैले धान के खेतों के पार आम का एक घना बगीचा था. कहा जाता है कि गांव के संभ्रांत किसान घरानों, ठाकुरों-ब्राह्मणों की कुलीन कन्याएं उसी बगीचे के अंधेरे कोनों में अपने अपने यारों से मिलतीं. हर तीसरे-चौथे साल उस बगीचे के किसी कोने में अलस्सुबह कोई नवजात शिशु रोता हुआ लावारिस मिल जाता था. इस तरह के ज्यादातर बच्चे स्वस्थ, सुंदर और गोरे होते थे. निश्चित ही गांव के आदिवासी कोल-गोंडों के बच्चे वे नहीं कहे जा सकते थे. हर बार पुलिस आती. दरोगा ठाकुर साहब के घर में बैठा रहता. पूरी पुलिस पलटन का खाना वहां पकता. मुर्गे गांव से पकडवा लिए जाते. शराब आती. शाम को पान चबाते, मुस्कराते और गांव की लडक़ियों से चुहलबाजी करते पुलिस वाले लौट जाया करते. मामला हमेशा रफा-दफा हो जाता था.
इस बगीचे का पुराना नाम मुखियाजी का बगीचा था. वर्षों पहले चौधरी बालकिशन सिंह ने यह बगीचा लगाया था. मंशा यह थी कि खाली पडी हुई सरकारी जमीन को धीरे-धीरे अपने कब्ज़े में कर लिया जाए. अब तो वहां आम के दो-ढाई सौ पेड थे, लेकिन इस बगीचे का नाम अब बदल गया था. इसे लोग भुतहा बगीचा कहते थे, क्योंकि मुखिया बालकिशन सिंह का भूत उसमें बसने लगा था. रात-बिरात उधर जाने वाले लोगों की घिग्घी बंध जाती थी. बालकिशन सिंह के बडे बेटे चौधरी किशनपाल सिंह एक बार उधर से जा रहे थे तो उनको किसी स्त्री के रोने की आवाज सुनाई पडी. ज़ाकर देखा ़ ़झाडियों, झुरमुटों को तलाशा तो कुछ नहीं. उनके सिर तक के बाल खडे हो गए. धोती का फेंटा खुल गया और वे हनुमान-हनुमान करते भाग खडे हुए.
तब से वहां अक्सर रात में किसी स्त्री की कराहने या रोने की करुण आवाज सुनी जाने लगी. दिन में जानवरों की हड्डियां, जबडे या चूडियों के टुकडे वहां बिखरे दिखाई देते. गांव के कुछ लफंगों का कहना था कि उस बगीचे में भूत-ऊत कुछ नहीं रहता. सब मुखिया के घराने द्वारा फैलाई गई अफवाह है. साले ने उस बगीचे को ऐशगाह बना रखा है.
एक बार मैं पडाेस के गांव में शादी के न्यौते में गया था. लौटते हुए रात हो गई. बारह बजे होंगे. संग में राधे, संभारू और बालदेव थे. रास्ता बगीचे के बीच से गुजरता था. हम लोगों ने हाथ में डंडा ले रखा था. अचानक एक तरफ सूखे पत्तों की चरमराहट सुनाई पडी. लगा, जैसे कोई जंगली सूअर बेफिक्री से पत्तियों को रौंदता हुआ हमारी ओर ही चला आ रहा है. हम लोग रूककर आहट लेने लगे. गर्मी की रात थी. जेठ का महीना. अचानक आवाज ज़ैसे ठिठक गई. सन्नाटा खिंच गया. हम टोह लेने लगे. भीतर से डर भी लग रहा था. बालदेव आगे बढा, कौन है, बे, छोह-छोह. उसने जमीन पर लाठी पटकी हालांकि उसकी नसें ढीली पड रही थीं. कहीं मुखिया का जिन्न हुआ तो? मैंने किसी तरह हिम्मत जुटाई, ''अबे, होह, होह.'' बालदेव को आगे बढा देखा संभारू भी तिडी हो गया. पगलेटों की तरह दाएं-बाएं ऊपर-नीचे लाठियां भांजता वह उसी ओर लपका.
तभी एक बारीक और तटस्थ सी आवाज सुनाई पडी, ''हम हन भइया, हम.''''तू कौन है बे?''बालदेव कडक़ा.अंधेरे से बाहर निकलकर टेपचू आया, ''काका, हम हन टेपचू.'' वह बगीचे के बनते-मिटते घने अंधेरे में धुंधला सा खडा था. हाथ में थैला था. मुझे ताज्जुब हुआ. ''इतनी रात को इधर क्या कर रहा है कटुए?''
थोडी देर टेपचू चुप रहा. फिर डरता हुआ बोला, ''अम्मा को लू लग गई थी. दोपहर मुखिया के खेत की तकवानी में गई थी, घाम खा गई. उसने कहा कि कच्ची अमिया का पना मिल जाए तो जुडा जाएगी. बडा तेज जर था.''''भूत-डाइन का डर नहीं लगा तुझे मुए? किसी दिन साले की लाश मिलेगी किसी झाड-झंखाड में.'' राधे ने कहा. टेपचू हमारे साथ ही गांव लौटा. रास्ते भर चुपचाप चलता रहा. जब उसके घर जाने वाली गली का मोड अाया तो बोला, ''काका, मुखिया से मत खोलना यह बात नहीं तो मार-मार कर भरकस बना देगा हमें.''
टेपचू की उम्र उस समय मुश्किल से सात-आठ साल की रही होगी.दूसरी बार यों हुआ कि टेपचू अपनी अम्मा फिरोजा से लडक़र घर से भाग गया. फिरोजा ने उसे जलती हुई चूल्हे की लकडी से पीटा था. सारी दोपहर, चिनचिनाती धूप में टेपचू जंगल में ढोर-ढंगरों के साथ फिरता रहा. फिर किसी पेड क़े नीचे छांह में लेट गया. थका हुआ था. आंख लग गई. नींद खुली तो आंतों में खालीपन था. पेट में हल्की-सी आंच थी भूख की. बहुत देर तक वह यों ही पडा रहा, टुकुर-टुकुर आसमान ताकता. फिर भूख की आंच में जब कान के लवे तक गर्म होने लगे तो सूस्त-सा उठकर सोचने लगा कि अब क्या जुगाड क़िया जाए. उसे याद आया कि सरई के पेडाें के पार जंगल के बीच एक मैदान है. वहीं पर पुरनिहा तालाब है.
वह तालाब पहुंचा. इस तालाब में, दिन में गांव की भैंसें और रात में बनैले सूअर लोटा करते थे. पानी स्याह-हरा सा दिखाई दे रहा था. पूरी सतह पर कमल और कुई के फूल और पुरईन फैले हुए थे. काई की मोटी पर्त बीच में थी. टेपचू तालाब में घुस गया. वह कमल गट्टे और पुरइन की कांद निकालना चाहता था. तैरना वह जानता था.
बीच तालाब में पहुंचकर वह कमलगट्टे बटोरने लगा एक हाथ में ढेर सारे कमलगट्टे उसने खसोट रखे थे. लौटने के लिए मुडा, तो तैरने में दिक्कत होने लगी. जिस रास्ते से पानी काटता हुआ वह लौटना चाहता था, वहां पुरइन की घनी नालें आपस में उलझी हुई थीं. उसका पैर नालों में उलझ गया और तालाब के बीचों-बीच वह ''बक-बक'' करने लगा.
परमेसुरा जब भैंस को पानी पिलाने तालाब आया तो उसने ''गुडप ़ ़ग़ुडप'' की आवाज सुनी. उसे लगा, कोई बहुत बडी सौर मछली तालाब में मस्त होकर ऐंठ रही है. जेठ के महीने में वैसे भी मछलियों में गर्मी चढ ज़ाती है. उसने कपडे उतारे और पानी में हेल गया. जहां पर मछली तडप रही थी वहां उसने गोता लगाकर मछली के गलफडाें को अपने पंजों में दबोच लेना चाहा तो उसके हाथ में टेपचू की गर्दन आई. वह पहले तो डरा, फिर उसे खींचकर बाहर निकाल लाया. टेपचू अब मरा हुआ सा पडा था. पेट गुब्बारे की तरह फूल गया था और नाक-कान से पानी की धार लगी हुई थी. टेपचूं नंगा था और उसकी पेशाब निकल रही थी. परमेसुरा ने उसकी टांगे पकडक़र उसे लटकाकर पेट में ठेहुना मारा तो ''भल-भल'' करके पानी मुंह से निकला.
एक बाल्टी पानी की उल्टी करने के बाद टेपचू मुस्कराया. उठा और बोला ''काका, थोडे-से कमलगट्टे तालाब से खींच दोगे क्या? मैंने इत्ता सारा तोडा था, साला सब छूट गया. बडी भूख लगी है.''
परमेसुरा ने भैंस हांकने वाले डंडे से टेपचू के चूतड में चार-पांच डंडे जमाए और गालियां देता हुआ लौट गया.
गांव के बाहर, कस्बे की ओर जाने वाली सडक़ के किनारे सरकारी नर्सरी थी. वहां पर प्लांटेशन का काम चल रहा था. बिडला के पेपर मिल के लिए बांस, सागौन और यूक्लिप्टस के पेड लगाए गए थे. उसी नर्सरी में, काफी भीतर ताड क़े भी पेड थे. गांव में ताडी पीने वालों की अच्छी-खासी तादाद थी. ज्यादातर आदिवासी मजदूर, जो पी.डब्ल्यू.डी. में सडक़ बनाने तथा राखड गिट्टी बिछाने का काम करते थे, दिन-भर की थकान के बाद रात में ताडी पीकर धुत हो जाते थे. पहले वे लोग सांझ का झुटपुटा होते ही मटका ले जाकर पेड में बांध देते थे. ताड क़ा पेड बिल्कुल सीधा होता है. उस पर चढने की हिम्मत या तो छिपकली कर सकती है या फिर मजदूर. सुबह तक मटके में ताडी ज़मा हो जाती थी. लोग उसे उतार लाते.
ताड पर चढने के लिए लोग बांस की पंक्सियां बनाते थे और उस पर पैर फंसा कर चढते थे. इसमें गिरने का खतरा कम होता. अगर उतनी ऊंचाई से कोई आदमी गिर जाता तो उसकी हड्डियां बिखर सकती थीं.
अब ताड क़े उन पेडाें पर किशनपालसिंह की मिल्कियत हो गई थी. पटवारी ने उस सरकारी नर्सरी के भीतर भी उस जमीन को किशनपालसिंह के पट्टे में निकाल दिया था. अब ताडी निकलवाने का काम वही करते थे. ग्राम पंचायत भवन के बैठकी वाले कमरे में, जहां महात्मा गांधी की तस्वीर टंगी हुई थी, उसी के नीचे शाम को ताडी बांटी जाती. कमरे के भीतर और बाहर ताडीख़ोर मजदूरों की अच्छी-खासी जमात इकठ्ठा हो जाती थी. किशनपालसिंह को भारी आमदनी होती थी.
एक बार टेपचू ने भी ताडी चखनी चाही. उसने देखा था कि जब गांव के लोग ताडी पीते तो उनकी आंखें आह्लाद से भर जातीं. चेहरे से सुख टपकने लगता. मुस्कान कानों तक चौडी हो जाती, मंद-मंद. आनंद और मस्ती में डूबे लोग साल्हो-दादर गाते, ठहाके लगाते और एक-दूसरे की मां-बहन की ऐसी तैसी करते. कोई बुरा नहीं मानता था. लगता जैसे लोग प्यार के अथाह समुंदर में एक साथ तैर रहे हो.
टेपचू को लगा कि ताडी ज़रूर कोई बहुत ऊंची चीज है. सवाल यह था कि ताडी पी कैसे जाए. काका लोगों से मांगने का मतलब था, पिट जाना. पिटने से टेपचू को सख्त नफरत थी. उसने जुगाड ज़माया और एक दिन बिल्कुल तडक़े, जब सुबह ठीक से हो भी नहीं पाई थी, आकाश में इक्का-दुक्का तारे छितरे हुए थे, वह झाडा फिरने के बहाने घर से निकल गया.
ताड क़ी ऊंचाई और उस ऊंचाई पर टंगे हुए पके नींबू के आकार के मटके उसे डरा नहीं रहे थे, बल्कि अदृश्य उंगलियों से इशारा कर उसे आमंत्रित कर रहे थे. ताड क़े हिलते हुए डैने ताडी क़े स्वाद के बारे में सिर हिला-हिलाकर बतला रहे थे. टेपचू को मालूम था कि छपरा जिले का लठ्ठबाज मदना सिंह ताडी क़ी रखवाली के लिए तैनात था. वह जानता था कि मदना सिंह अभी ताडी की खुमारी में कहीं खर्राटें भर रहा होगा. टेपचू के दिमाग में डर की कोई हल्की सी खरोंच तक नहीं थी.
वह गिलहरी की तरह ताड क़े एकसार सीधे तने से लिपट गया और ऊपर सरकने लगा. पैरों में न तो बांस की पक्सियां थी और न कोई रस्सी ही. पंजों के सहारे वह ऊपर सरकता गया. उसने देखा, मदना सिंह दूर एक आम के पेड क़े नीचे अंगोछा बिछाकर सोया हुआ है. टेपचू अब काफी ऊंचाई पर था. आम, महुए बहेडा और सागौन के गबदू से पेड उसे और ठिंगने नजर आ रहे थे. ''अगर मैं गीध की तरह उड सकता तो कित्ता मजा आता.'' टेपचू ने सोचा. उस ने देखा, उसकी कुहनी के पास एक लाल चींटी रेंग रही थी, ''ससुरी'' उसने एक भद्दी गाली बकी और मटके की ओर सरकने लगा.
मदना सिंह जमुहाइयां लेने लगा था और हिल-डुलकर जतला रहा था कि उसकी नींद अब टूटने वाली है. धुंधलका भी अब उतना नहीं रह गया था. सारा काम फुर्ती से निपटाना पडेग़ा. टेपचू ने मटके को हिलाया. ताडी चौथाई मटके तक इकठ्ठी हो गई थी. उसने मटके में हाथ डालकर ताडी क़ी थाह लेनी चाही ़ ़
और बस, यहीं सारी गडबड हो गई.मटके में फनियल करैत सांप घुसा हुआ था. असल नाग. ताडी पीकर वह भी धुत था. टेपचू का हाथ अंदर गया तो वह उसके हाथ में बौडक़र लिपट गया. टेपचू का चेहरा राख की तरह सफेद हो गया. गीध की तरह उडने जैसी हरकत उसने की. ताड क़ा पेड एक तरफ हो गया और उसके समानांतर टेपचू वजनी पत्थर की तरह नींचे को जा रहा था. मटका उसके पीछे था.
जमीन पर टेपचू गिरा तो धप्प की आवाज के साथ एक मरते हुए आदमी की अंतिम कराह भी उसमें शामिल थी. इसके बाद मटका गिरा और उसके हिज्जे-हिज्जे बिखर गए. काला सांप एक ओर पडा हुआ ऐंठ रहा था. उसकी रीढ क़ी हड्डियां टूट गई थीं.
मदना सिंह दौडा. उसने आकर देखा तो उसकी हवा खिसक गई. उसने ताड क़ी फुनगी से मटके समेत टेपचू को गिरते हुए देखा था. बचने की कोई संभावना नहीं थी. उसने एक-दो बार टेपचू को हिलाया-डुलाया. फिर गांव की ओर हादसे की खबर देने दौड ग़या.
धाड मार-मारकर रोती, छाती कूटती फिरोजा लगभग सारे गांव के साथ वहां पहुंची. मदना सिंह उन्हें मौके की ओर ले गया, लेकिन मदना सिंह बक्क रह गया. ऐसा नहीं हो सकता - यही ताड क़ा पेड था, इसी के नीचे टेपचू की लाश थी. उसने ताडी क़े नशे में सपना तो नहीं देखा था? लेकिन फूटा हुआ मटका अब भी वहीं पडा हुआ था. सांप का सिर किसी ने पत्थर के टुकडे से अच्छी तरह थुर दिया था. लेकिन टेपचू का कहीं अता-पता नहीं था. आसपास खोज की गई, लेकिन टेपचू मियां गायब थे.
गांववालों को उसी दिन विश्वास हो गया कि हों न हों टेपचू साला जिन्न है, वह कभी मर नहीं सकता.
फिरोजा की सेहत लगातार बिगड रही थी. गले के दोनों ओर की हडिडयां उभर आई थीं. स्तन सूखकर खाली थैलियों की तरह लटक गए थे. पसलियां गिनी जा सकती थीं. टेपचू को वह बहुत अधिक प्यार करती थी. उसी के कारण उसने दसूरा निकाह नहीं किया था.
टेपचू की हरकतों से फिरोजा को लगने लगा कि वह कहीं बहेतू और आवारा होकर न रह जाए. इसीलिए उसने एक दिन गांव के पंडित भगवानदीन के पैर पकडे. पंडित भगवानदीन के घर में दो भैंसें थीं और खेती पानी के अलावा दूध पानी बेचने का धंधा भी करते थे. उनको चरवाहे की जरूरत थी इसलिए पन्द्रह रूपए महीने और खाना खुराक पर टेपचू रख लिया गया. भगवानदीन असल काइयां थे. खाने के नाम पर रात का बचा-खुचा खाना या मक्के की जली-भूनी रोटियां टेपचू को मिलतीं. करार तो यह था कि सिर्फ भैसों की देखभाल टेपचू को करनी पडेग़ी, लेकिन वास्तव में भैसों के अलावा टेपचू को पंडित के घर से लेकर खेत-खलिहान तक का सारा काम करना पडता था. सुबह चार बजे उसे जगा दिया जाता और रात में सोते-सोते बारह बज जाते. एक महीने में ही टेपचू की हालत देखकर फिरोजा पिघल गई. छाती में भीतर से रूलाई का जोरदार भभका उठा. उसने टेपचू से कहा भी कि बेटा इस पंडित का द्वार छोड दे. कहीं और देख लेंगे. यह तो मुआ कसाई है पूरा, लेकिन टेपचू ने इंकार कर दिया.
टेपचू ने यहां भी जुगाड ज़मा लिया. भैसों को जंगल में ले जाकर वह छुट्टा छोड देता और किसी पेड क़े नीचे रात की नींद पूरी करता. इसके बाद उठता. सोन नदी में भैसों को नहलाता, कुल्ला वगैरह करता. फिर इधर-उधर अच्छी तरह से देख-ताककर डालडा के खाली डिब्बे में एक किलो भैंस का ताजा दूध दुहकर चढा लेता. उसकी सेहत सुधरने लगी.
एक बार पंडिताइन ने उसे किसी बात पर गाली बकी और खाने के लिए सडा हुआ बासी भात दे दिया. उस दिन टेपचू को पंडित के खेत की निराई भी करनी पडी थी और थकान और भूख से वह बेचैन था. भात का कौर मुंह में रखते ही पहले तो खटास का स्वाद मिला, फिर उबकाई आने लगी. उसने सारा खाना भैसों की नांद में डाल दिया और भैसों को हांककर जंगल ले गया.
शाम को जब भैसें दुही जाने लगीं तो छटांक भर भी दूध नहीं निकला. पंडित भगवानदीन को शक पड ग़या और उन्होंने टेपचू की जूतों से पिटाई की. देर तक मुर्गा बनाए रखा, दीवाल पर उकडू बैठाया, थप्पड चलाए और काम से उसे निकाल दिया.
इसके बाद टेपचू पी.डब्ल्यू.डी. में काम करने लगा. राखड मुरम, बजरी बिछाने का काम. सडक़ पर डामर बिछाने का काम. बडे-बडे मर्दों के लायक काम. चिलचिलाती धूप में. फिरोजा मकई के आटे में मसाला - नमक मिलाकर रोटियां सेंक देती. टेपचू काम के बीच में, दोपहर उन्हें खाकर दो लोटा पानी सडक़ लेता.
ताज्जुब था कि इतनी कडी मेहनत के बावजूद टेपचू सिझ-पककर मजबूत होता चला गया. काठी कढने लगी. उसकी कलाई की हड्डियां चौडी होती गईं, पेशियों में मछलियां मचलने लगीं. आंखों में एक अक्खड रौब और गुस्सा झलकने लगा. पंजे लोहे की माफिक कडे होते गए.
एक दिन टेपचू एक भरपूर आदमी बन गया. जवान.पसीने, मेहनत, भूख, अपमान, दुर्घटनाओं और मुसीबतों की विकट धार को चीरकर वह निकल आया था. कभी उसके चेहरे पर पस्त होने, टूटने या हार जाने का गम नहीं उभरा.
उसकी भौहों को देखकर एक चीज हमेशा अपनी मौजूदगी का अहसास कराती-गुस्सा, या शायद घृणा की थरथराती हुई रोशन पर्त.
मैंने इस बीच गांव छोड दिया और बैलाडिला के आयरन ओर मिल में नौकरी करने लगा. इस बीच फिरोजा की मौत हो गई. बालदेव, संभारू और राधे के अलावा गांव के कई और लोग बैलाडिला में मजदूरी करने लगे. पंडित भगवानदीन को हैजा हो गया और वे मर गए. हां, किशनपाल सिंह उसी तरह ताडी उतरवाने का धंधा करते रहे. वे कई सालों से लगातार सरपंच बन रहे थे. कस्बे में उनकी पक्की हवेली खडी हो गई और बाद में वे एम.एल.ए. हो गए.
लंबा अर्सा गुजर गया. टेपचू की खबर मुझे बहुत दिनों तक नहीं मिली लेकिन यह निश्चित था कि जिन हालात में टेपचू काम कर रहा था, अपना खून निचोड रहा था, अपनी नसों की ताकत चट्टानों में तोड रहा था - वे हालात किसी के लिए भी जानलेवा हो सकते थे.
टेपचू से मेरी मुलाकात पर तब हुई, जब वह बैलाडिला आया. पता लगा कि किशनपाल सिंह ने गुंडों से उसे बुरी तरह पिटवाया था. गुंडों ने उसे मरा हुआ जानकर सोन नदी में फेंक दिया था, लेकिन वह सही सलामत बच गया और उसी रात किशनपाल सिंह की पुआल में आग लगाकर बैलाडिला आ गया. मैंने उसकी सिफारिश की और वह मजदूरी में भर्ती कर लिया गया.
वह सन अठहत्तर का साल था.हमारा कारखाना जापान की मदद से चल रहा था. हम जितना कच्चा लोहा तैयार करते, उसका बहुत बडा हिस्सा जापान भेज दिया जाता. मजदूरों को दिन-रात खदान में काम करना पडता.
टेपचू इस बीच अपने साथियों से पूरी तरह घुल-मिल गया था. लोग उसे प्यार करते. मैंने वैसा बेधडक़, निडर और मुंहफट आदमी और नहीं देखा. एक दिन उसने कहा था, ''काका, मैंने अकेले लडाइयां लडी है. हर बार मैं पिटा हूं. हर बार हारा हूं. अब अकेले नहीं, सबके साथ मिलकर देखूंगा कि सालों में कितना जोर है.''
इन्हीं दिनों एक घटना हुई. जापान ने हमारे कारखाने से लोहा खरीदना बंद कर दिया, जिसकी वजह से सरकारी आदेश मिला कि अब हमें कच्चे लोहे का उत्पादन कम करना चाहिए. मजदूरों की बडी तादाद में छंटनी करने का सरकारी फरमान जारी हुआ. मजदूरों की तरफ से मांग की गई कि पहले उनकी नौकरी का कोई दूसरा बंदोबस्त कर दिया जाए तभी उनकी छंटनी की जाए. इस मांग पर बिना कोई ध्यान दिए मैनेजमेंट ने छंटनी पर फौरन अमल शुरू कर दिया. मजदूर यूनियन ने विरोध में हडताल का नारा दिया. सारे मजदूर अपनी झुग्गियों में बैठ गए. कोई काम पर नहीं गया.
चारों तरफ पुलिस तैनात कर दी गई. कुछ गश्ती टुकडियां भी रखी गई, जो घूम-घूमकर स्थिति को कुत्तों की तरह सूंघने का काम करती थीं. टेपचू से मेरी भेंट उन्हीं दिनों शेरे पंजाब होटल के सामने पडी लकडी क़ी बेंच पर बैठे हुए हुई. वह बीडी पी रहा था. काले रंग की निकर पर उसने खादी का एक कुर्ता पहन रखा था.
मुझे देखकर वह मुस्कराया, ''सलाम काका, लाल सलाम.'' फिर अपने कत्थे-चूने से रंगे मैले दांत निकालकर हंस पडा, ''मनेजमेंट की गांड में हमने मोटा डंडा घुसेड रखा है. साले बिलबिला रहे हैं, लेकिन निकाले निकलता नहीं काका, दस हजार मजदूरों को भुक्खड बनाकर ढोरों की माफिक हांक देना कोई हंसी-ठठ्ठा नहीं है. छंटनी ऊपर की तरफ से होनी चाहिए. जो पचास मजदूरों के बराबर पगार लेता हो, निकालो सबसे पहले उसे, छांटो अजमानी साहब को पहले.''
टेपचू बहुत बदल गया था. मैंने गौर से देखा उसकी हंसी के पीछे घृणा, वितृष्णा और गुस्से का विशाल समुंदर पछाडे मार रहा था. उसकी छाती उघडी हुई थी. कुर्ते के बटन टूटे हुए थे. कारखाने के विशालकाय फाटक की तरह खुले हुए कुर्ते के गले के भीतर उसकी छाती के बाल हिल रहे थे, असंख्य मजदूरों की तरह, कारखाने के मेन गेट पर बैठे हुए. टेपचू ने अपने कंधे पर लटकते हुए झोले से पर्चे निकाले और मुझे थमाकर तीर की तरह चला गया.
कहते हैं, तीसरी रात यूनियन ऑफिस पर पुलिस ने छापा मारा. टेपचू वहीं था. साथ में और भी कई मजदूर थे. यूनियन ऑफिस शहर से बिल्कुल बाहर दूसरी छोर पर था. आस-पास कोई आबादी नहीं थी. इसके बाद जंगल शुरू हो जाता था. जंगल लगभग दस मील तक के इलाके में फैला हुआ था.
मजदूरों ने पुलिस को रोका, लेकिन दरोगा करीम बख्श तीन-चार कांस्टेबुलों के साथ जबर्दस्ती अंदर घुस गया. उसने फाइलों, रजिस्टरों, पर्चों को बटोरना शुरू किया. तभी टेपचू सिपाहियों को धकियाते हुए अंदर पहुंचा और चीखा, ''कागज-पत्तर पर हाथ मत लगाना दरोगाजी, हमारी डूटी आज यूनियन की तकवानी में हैं. हम कहे दे रहे हैं. आगा-पीछा हम नहीं सोचते, पर तुम सोच लो, ठीक तरह से.''
दरोगा चौंका. फिर गुस्से में उसकी आंखें गोल हो गई, और नथुने सांढ की तरह फडक़ने लगे, ''कौन है मादर ़ ़तूफानी सिंह, लगाओ साले को दस डंडे.''
सिपाही तूफानी सिंह आगे बढा तो टेपचू की लंगडी ने उसे दरवाजे के आधा बाहर और आधा भीतर मुर्दा छिपकली की तरह ज़मीन पर पसरा दिया. दरोगा करीम बख्श ने इधर-उधर देखा. सिपाही मुस्तैद थे, लेकिन कम पड रहे थे. उन्होंने इशारा किया लेकिन तब तक उनकी गर्दन टेपचू की भुजाओं में फंस चुकी थी.
मजदूरों का जत्था अंदर आ गया और तडातड लाठियां चलने लगीं. कई सिपाहियों के सिर फूटे. वे रो रहे थे और गिडग़िडा रहे थे. टेपचू ने दरोगा को नंगा कर दिया था.
पिटी हुई पुलिस पलटन का जुलूस निकाला गया. आगे-आगे दरोगाजी, फिर तूफानी सिंह, लाइन से पांच सिपाहियों के साथ. पीछे-पीछे मजदूरों का हुजूम ठहाके लगाता हुआ. पुलिस वालों की बुरी गत बनी थी. यूनियन ऑफिस से निकलकर जुलूस कारखाने के गेट तक गया, फिर सिपाहियों को छोडक़र मस्ती और गर्व में डूबे हुए लोग लौट गए. टेपचू की गर्दन अकडी हुई थी और वह साल्हो दादर गाने लगा था.
अगले दिन सबेरे टेपचू झुग्गी से निकलकर टट्टी करने जा रहा था कि पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया. और भी बहुत से लोग पकडे ग़ए थे. चारों तरफ गिरफ्तारियां चल रही थीं.
टेपचू को जब पकडा गया तो उसने टट्टीवाला लोटा खींचकर तूफानीसिंह को मारा. लोटा माथे के बीचोंबीच बैठा और गाढा गंदा खून छलछला आया. टेपचू ने भागने की कोशिश की, लेकिन वह घेर लिया गया. गुस्से में पागल तूफानी सिंह ने तडातड ड़ंडे चलाए. मुंह से बेतहाशा गालियां फूट रही थीं.
सिपाहियों ने उसे जूते से ठोकर मारी. घूंसे-लात चलाए. दरोगा करीम बख्श भी जीप से उतर आए. यूनियन ऑफिस में की गई अपनी बेइज्जती उन्हें भूली नहीं थी.
दरोगा करीम बख्श ने तूफानी सिंह से कहा कि टेपचू को नंगा किया जाए और गांड में एक लकडी ठोंक दी जाए. तूफानी सिंह ने यह काम सिपाही गजाधर शर्मा के सुपुर्द किया.
गजाधर शर्मा ने टेपचू का निकर खींचा तो दरोगा करीम बख्श का चेहरा फक हो गया. फिरोजा ने टेपचू की बाकायदा खतौनी कराई थी. टेपचू दरोगा का नाम तो नही जानता था, लेकिन उसका चेहरा देखकर जात जरूर जान गया. दरोगा करीम बख्श ने टेपचू की कनपटी पर एक डंडा जमाया, ''मादर ़ ़नाम क्या है तेरा?''
टेपचू ने कुर्ता उतारकर फेंक दिया और मादरजाद अवस्था में खडा हो गया, ''अल्ला बख्श बलद अब्दुल्ला बख्श साकिन मडर मौजा पौंडी, तहसील सोहागपुर, थाना जैतहरी, पेशा मजदूरी - ''इसके बाद उसने टांगे चौडी क़ीं, घूमा और गजाधर शर्मा, जो नीचे की ओर झुका हुआ था, उसके कंधे पर पेशाब की धार छोड दी, ''जिला शहडोल, हाल बासिंदा बैलाडिला ़ ़''
टेपचू को जीप के पीछे रस्सी से बांधकर डेढ मील तक घसीटा गया. सडक़ पर बिछी हुई बजड़ी अौर मुरम ने उसकी पीठ की पर्त निकाल दी. लाल टमाटर की तरह जगह-जगह उसका गोश्त बाहर झांकने लगा.
जीप कस्बे के पार आखिरी चुंगी नाके पर रूकी. पुलिस पलटन का चेहरा खूंखार जानवरों की तरह दहक रहा था. चुंगी नाकेपर एक ढाबा था. पुलिस वाले वहीं चाय पीने लगे.
टेपचू को भी चाय पीने की तलब महसूस हुई, ''एक चा इधर मारना छोकडे, क़डक़.'' वह चीखा. पुलिस वाले एक-दूसरे की ओर कनखियों से देखकर मुस्कराए. टेपचू को चाय पिलाई गई. उसकी कनपटी पर गूमड उठ आया था और पूरा शरीर लोथ हो रहा था. जगह-जगह से लहू चुहचुहा रहा था.
जीप लगभग दस मील बाद जंगल के बीच रूकी. जगह बिलकुल सुनसान थी. टेपचू को नीचे उतारा गया. गजाधर शर्मा ने एक दो डंडे और चलाए. दरोगा करीम बख्श भी जीप से उतरे और उन्होंने टेपचू से कहा, ''अल्ला बख्श उर्फ टेपचू, तुम्हें दस सेकेंड का टाइम दिया जाता है. सरकारी हुकुम मिला है कि तुम्हारा जिला बदल कर दिया जाए. सामने की ओर सडक़ पर तुम जितनी जल्द दूर-से-दूर भाग सकते हो, भागो. हम दस तक गिनती गिनेंगे.''
टेपचू लंगडाता-डगमगाता चल पडा. करीम बख्श खुद गिनती गिन रहे थे. एक-दो-तीन-चार-पांच.
लंगडे, बुढे, बीमार बैल की तरह खून में नहाया हुआ टेपचू अपने शरीर को घसीट रहा था. वह खडा तक नहीं हो पा रहा था, चलने और भागने की तो बात दूर थी.
अचानक दस की गिनती खत्म हो गई. तूफानी सिंह ने निशाना साधकर पहला फायर किया धांय.
गोली टेपचू की कमर में लगी और वह रेत के बोरे की तरह जमीन पर गिर पडा. कुछ सिपाही उसके पास पहुंचे. कनपटी पर बूट मारी. टेपचू कराह रहा था, ''हरामजादो.''
गजाधर शर्मा ने दरोगा से कहा, ''साब अभी थोडा बहुत बाकी है.'' दरोगा करीम बख्श ने तूफानी सिंह को इशारा किया. तूफानी सिंह ने करीब जाकर टेपचू के दोनों कंधों के पास, दो-दो इंच नीचे दो गोलियां और मारीं, बंदूक की नाल लगभग सटाकर. नीचे की जमीन तक उधड ग़ई.
टेपचू धीमे-धीमे फडफ़डाया. मुंह से खून और झाग के थक्के निकले. जीभ बाहर आई. आंखें उलटकर बुझीं. फिर वह ठंडा पड ग़या.
उसकी लाश को जंगल के भीतर महुए की एक डाल से बांधकर लटका दिया गया था. मौके की तस्वीर ली गई पुलिस ने दर्ज किया कि मजदूरों के दो गुटों में हथियारबंद लडाई हुई. टेपचू उर्फ अल्ला बख्श को मारकर पेड में लटका दिया गया था. पुलिस ने लाश बरामद की. मुजरिमों की तलाश जारी है.
इसके बाद टेपचू की लाश को सफेद चादर से ढककर संदूक में बंद कर दिया गया और जीप में लादकर पुलिस चौकी लाया गया.
रायगढ बस्तर, भोपाल सभी जगह से पुलिस की टुकडियां आ गई थीं. सी.आर.पी.वाले गश्त लगा रहे थे. चारों ओर धुंआ उठ रहा था. झुग्गियां जला दी गई थीं. पचासों मजदूर मारे गए. पता नहीं क्या-क्या हुआ था.
सुबह टेपचू की लाश को पोस्टमार्टम के लिए जिला अस्पताल भेजा गया. डॉ.एडविन वर्गिस ऑपरेटर थिएटर में थे. वे बडे धार्मिक किस्म के ईसाई थे. ट्राली-स्ट्रेचर में टेपचू की लाश अंदर लाई गई. डॉ.वर्गिस ने लाश की हालत देखी. जगह-जगह थ्री-नॉट-थ्री की गोलियां धंसी हुई थीं. पूरी लाश में एक सूत जगह नहीं थी, जहां चोट न हो.
उन्होंने अपना मास्क ठीक किया, फिर उस्तरा उठाया. झुके और तभी टेपचू ने अपनी आंखें खोलीं. धीरे से कराहा और बोला, ''डॉक्टर साहब, ये सारी गोलियां निकाल दो. मुझे बचा लो. मुझे इन्हीं कुत्तों ने मारने की कोशिश की है.''
डॉक्टर वर्गिस के हाथ से उस्तरा छूटकर गिर गया. एक घिघियाई हुई चीख उनके कंठ से निकली और वे ऑपरेशन रूम से बाहर की ओर भागे.
आप कहेंगे कि ऐसी अनहोनी और असंभव बातें सुनाकर मैं आपका समय खराब कर रहा हूं. आप कह सकते हें कि इस पूरी कहानी में सिवा सफेद झूठ के और कुछ नहीं है.
मैंने भी पहले ही अर्ज किया था कि यह कहानी नहीं है, सच्चाई है. आप स्वीकार क्यों नहीं कर लेते कि जीवन की वास्तविकता किसी भी काल्पनिक साहित्यिक कहानी से ज्यादा हैरत अंगेज होती है. और फिर ऐसी वास्तविकता जो किसी मजदूर के जीवन से जुडी हुई हो.
हमारे गांव मडर के अलावा जितने भी लोग टेपचू को जानते हैं वे यह मानते हैं कि टेपचू कभी मरेगा नहीं - साला जिन्न है.
आपको अब भी विश्वास न होता हो तो जहां, जब, जिस वक्त आप चाहें, मैं आपको टेपचू से मिलवा सकता हूं.
उदय प्रकाश

8 टिप्‍पणियां:

  1. उदय प्रकाश की श्रेष्ठ कहानियों में से एक यह कहानी। यहां देने के लिए बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  2. उफ़ !! अद्वितीय. जीवंत लोमहर्षक कथा. इतनी दिलचस्प लगी कि बस उसमे खो ही गयी....

    शब्द नहीं मेरे पास इसकी प्रशंशा को...

    जवाब देंहटाएं
  3. सेव करके सुरक्षित कर लिया है.. समय मिलते ही पढूंगा

    जवाब देंहटाएं
  4. इतनी दिलचस्प कहानी पढ़वाने के लिए शुक्रिया ...मज़ा आ गया

    मेरी कलम -मेरी अभिव्यक्ति

    जवाब देंहटाएं

Post Labels