गुरुवार, 12 फ़रवरी 2009

आओ, अपने प्यार को अभिव्यक्ति दें



डॉ. महेश परिमल /भारती परिमल
आओ, प्यारी-प्यारी बातें करें। युवाओं की दीपावली यानी वेलेंटाइन डे। अपने प्रेम की अभिव्यक्ति करने का दिन। कई बार दिल की गहराइयों से शब्द फूटते हैं। कई बार शब्द साथ नहीं देते, उस वक्त जब इन शब्दों की विशेष आवश्यकता होती है। ऐसे ही क्षणों के लिए शब्दों का दिल से लिखने की कोशिश की है। ये मेरी ही नहीं, हम सबकी अभिव्यक्ति का माध्यम बन जाए, यही मेरा कामना है। इन शब्दों में से जिसे जो भी अच्छा लगे, वह अपने लिए प्रयोग में ले आए, तो हमेंे खुशी ही होगी।

वेलेंटाइन-डे

प्रिय, तुम्हारे नेह से भीगी बाती का दीया
आज भी मेरे हृदय में प्रकाशवान है।
स्नेह पुष्प रूपी पत्र उसकी लौ को
अकम्पित रखेंगे।
विश्वास है, तुम्हारा सहयोग बना रहेगा।

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तुम्हारी पलकों के पीछे छिपा
भावों का अथाह समन्दर
मुझे डूब जाने को प्रेरित करता है।
पागल हूँ, डूब कर भी डूबने की चाहत रखता हूँ।

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कल शाम, तुम्हारी पलकों से फिसल कर जो बूँद मेरे हृदय-सीप पर पड़ी, वह प्यार का मोती मेरे पास सुरक्षित है। अब तुम्हीं बताओ, तुम्हारे पास मेरी यादों का कुछ है?

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हमारे प्यार के फूलों की सुगंध
अब दूर-दूर तक फैलने लगी है।
चलो ऐसा करें, भावों के मन मंदिर में
उसे छुपा आएँ।

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मत पूछो कि क्यों उदास हूँ मैं
तुम खुद ही से सवाल करो
कि क्या तुम्हारे पास हूँ मैं?
ंगर ऑंखो में तुम्हारी जुदाई का अहसास है,
तो समझ लो कि क्यों उदास हूँ मैं।

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चलने को तो सभी कहते हैं,
पर दो कदम भी कोई साथ चलता नहीं।
रूलाती है यादें, तो रोता है दिल
यूँ तो कोई हँस के खुद को रूलाता नहीं।

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हम ऍंधेरे में थे, इसीलिए तो अकेले थे।
उजाले में आए, तो देखो हमारी परछाई
हमारे साथ है।
हमारा आज-कल का नहीं,
पल-पल का साथ है।
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तुम कल-कल करती नदिया सी
मेरे अंतर्मन में आई।
लहर-लहर लहरा कर
मेरे सूने जीवन में समाई।
कभी इठलाकर, कभी बलखाकर
जीवन की शाम सजाई।

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तुम्हारी हथेलियों से होकर
रेखाओं का जंगल
मेरी अंजुरी में सिमट गया है
इनसे झाँकता किस्मत का सूरज
निश्चय ही हमारा आने वाला कल होगा
इसी विश्वास के साथ ..........

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यादों के गाँव में
वादों का बांजार सजाकर
दो पल का बसेरा कर
पलकों में सपनों का काफिला समेटे
हम काफी दूर निकल जाएँगे।
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तुमने मुझे सिर्फ एक बार प्यार से देखा था। यह शायद मेरा भ्रम था, पर सच मानों इसी खूबसूरत भ्रम के सहारे मैं पूरी ंजिदगी गुजार लूँगा और तुमसे कुछ न कहूँगा।
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जब-जब तुम्हारे करीब आया हूँ, तुम्हारी ऑंखो से छलक ही पड़ा है मेरे लिए ढेर सारा प्यार ........। अब नहीं चाहिए, नहीं चाहिए मुझे यह छलकता हुआ प्यार। इसे अपनी ऑंखो में ही रहने दो। नहीं देख सकता मैं यह छलकता सागर...... जो कि हकींकत में खारे पानी के सिवा कुछ भी नहीं।
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मेरी हथेलियों में तुम्हारे लिए कोई लकीर नहीं है, यह मैं जानता हूँ, पर कल ही गर्म चाकू से मैंने हथेली पर एक नई लकीर बनाई है, यही है मेरे जीने का आधार........।

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तुम आई, एक नहीं, दो नहीं, पूरी 22 सीढ़ियाँ तय कर। आते ही झुका ली नजरें डाली की तरह और मैंने चूम लिया पत्ते-पत्ते को।
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उस दिन हवाओें से पूछना चाहा था तुम्हारे घर का रास्ता, मगर फूलों के पीछे तुम्हारी खिलखिलाती हँसी ने इरादा बदल दिया। एक फूल तोड़ कर चूमा और कमींज में टाँंक लिया।

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पागल था जो चाँद के पास के सितारे की ख्वाहिश रखता था। नहीं जानता था कि जमीं पर ही एक सितारा मेरे ंकरीब है, बहुत ंकरीब........। क्यों सच है ना?
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यह सच है कि तुम बिन जीवन उदास लगता है, पर यकींन मानो यह उदासी ही जब यादों की चादर तान लेती है, तो लमहा-लमहा रंगीन हो जाता है।
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मौत का कोई पल नहीं होता, वह तो कभी भी आ जाती है और अपने आगोश में ले लेती है, पर चाहत यही है कि ंजिदगी का संफर इन पलों को भी कुछ पल के लिए ओझल कर दें और हथेलियों की रेखाओं में वह लकीर खींच दे, जो जाते हुए लमहों को भी खुशगवार बना दे।

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डॉ. महेश परिमल/भारती परिमल

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