मंगलवार, 10 फ़रवरी 2009

बेहतर शिक्षा स्कूल में नहीं, जीवन की शाला में


डॉ. महेश परिमल
एक बार एक व्यक्ति अपनी पाँच वर्षीय पुत्री के साथ एक दोस्त की बनाई फिल्म देख रहे थे। स्क्रीन पर जब मनीष आए, तो उनकी बिटिया ने कहा कि ये तो मेरा दोस्त है। दूसरे ही क्षण स्क्रीन पर जब एक लड़की आई, तो वह रो रही थी। अरे! ये तो मेरी फ्रेंड है। उसके पापा ने पूछा-कैसे? तो उसका कहना था कि वह बहुत दु:खी है, मैं उसका हाथ पकड़कर कहूँगी कि दु:खी होने की आवश्यकता नहीं है। सोचो, क्या इस तरह की शिक्षा किसी स्कूल में बच्चों को मिल सकती है?
क्या बच्चों को बिना शाला भेजे उन्हें पूरी तरह से शिक्षित किया जा सकता है? कुछ समय पहले तक इस प्रश्न का उत्तर शायद ठीक से बता न पाते हों, पर आज यह सच साबित हो रहा है कि बच्चों को स्कूल भेजे बिना ही न केवल शिक्षित बनाया जा सकता है, बल्कि उन्हें सारी विद्याओं में पारंगत भी किया जा सकता है। इसे साकार करने के लिए बेंगलोर, मसूरी, लखनऊ और उदयपुर में बिलकुल गुरुकुल की तरह बच्चों को शिक्षित किया जा रहा है। यहाँ से निकलने वाले बच्चे न केवल मेधावी होते हैं, बल्कि दुनियादारी को पूरी तरह से समझने वाले होते हैं।
आज की शिक्षा को लेकर एक बार फिर बहस छिड़ गई है। मुद्दा यह है कि क्या आज शालाओं में दी जा रही शिक्षा क्या बच्चों के लिए उपयोगी है? आखिर शाला जाकर बच्चे सीखते क्या हैं? क्या आज की शिक्षा उन्हें एक ही दिशा में सोचने वाली मशीन के रूप में तो तब्दील नहीं कर रही है। आज की शिक्षा बच्चों की नैसर्गिक शक्तिओं को कुचलने का प्रयास कर रही है। इसके अलावा वे शालाओं में किसी कला में तो पारंगत नहीं हो पाते। तो फिर मतलब है इस शिक्षा का? इस दिशा में किसी नए विचार को स्वीकार करने के लिए नई पीढ़ी क्यों आगे नहीं आ रही है। आखिर क्या बात है कि लोग मौलिक रूप से विचार करने की शक्ति क्यों गुमाने लगे हैं?
हार्वर्ड बिजनेस स्कूल में पढ़े-लिखे मैनेजमेंट कंसल्टेंट और इन दिनों बेंगलोर में रहने वाले क्रिश मुरली ईश्वर को एक दिन विचार आया कि हमें नौकरी करने के बजाए किसी मौलिक प्रोजेक्ट पर काम करना चाहिए। इस प्रोजेक्ट पर काम करने के लिए उसने अपने बीस वर्ष के केरियर छोड़ दिया। उन्होंने अनेक शिक्षित लोगों को अपने साथ जोड़ने की कोशिश की। कुछ उनसे जुड़े भी, पर कुछ समय बाद उन्हें खयाल आया कि इन लोगों में काम करने का उत्साह नहीं है। वे सभी परंपरावादी निकले, कुछ नया करने का माद्दा उनमें नहीं था। उन्हें विचार आया कि लोग अपनी मौलिक शक्ति आखिर कहाँ गुमा रहे हैं। इसके लिए उन्होंने शालाओं में जाकर वहाँ की शिक्षण पध्दाति का बारीकी से निरीक्षण किया। तब उन्हें महसूस किया कि इन बच्चों की नैसर्गिक शक्ति को कुचल डाला गया है, इसके अलावा इन्हें कोई कला तो सिखाई ही नहीं जा रही है।
क्रिश ने पाया कि नर्सरी में पढ़ने वाले बच्चे खूब सवाल करते हैं, पर बाद भी सवाल करने की उनकी यह शक्ति क्षीण हो जाती है। इसके पीछे उन्होंने यही पाया कि हम आज भी मैकाले की शिक्षा पध्दति को पूरी मूर्खता के साथ अपनाए हुए हैं। तभी क्रिश ने फैसला लिया, उन्होंने पत्नी से विचार-विमर्श कर अपने तीनों बच्चों को स्कूल से निकालकर घर पर ही पढ़ाने का निश्चय किया। अब वे बेंगलोर छोड़कर कोयंबटूर के एक छोटे से गाँव में जाकर रह रहे हैं। इससे वे अपने बच्चों को यह बताना चाहते हैं कि गाँव का जीवन कैसा होता है, इसे बच्चे अच्छी तरह से समझ सकें। अब वे अपने बच्चों को स्कूल की पढ़ाई के अलावा बागवानी, खेती, रसोई, साफ-सफाई आदि काम सीखा रहे हैं। उन्होंने तय किया है कि अब गाँव में रहने के लिए जो घर बनाया जाएगा, उसे वे स्वयं ही बच्चों के साथ मिलकर बनाएँगे। इस तरह की पढ़ाई में बच्चों को इतना अधिक मजा आ रहा है कि उन्होंने टीवी देखना ही छोड़ दिया है।
हमारे बीच बहुत से ऐसे लोग हैं, जो यह तो सोचते हैं कि स्कूलों में पढ़ाई के नाम पर जो कुछ भी हो रहा है, उसे पढ़ाई तो कतई नहीं कहा जा सकता। लेकिन वे केवल सोचकर ही रह जाते हैं। दूसरी ओर कुछ ऐसे लोग भी है, जिन्होंने अपने बच्चों को स्कूल से निकालकर घर पर पढ़ा रहे हैं। अब वैकल्पिक रूप से ऐसी स्कूल खुल रही हैं, जहाँ सामान्य स्कूलों की तरह पढ़ाई न कराकर घर के माहौल के अनुसार पढ़ाई करवाई जा रही है। बेंगलोर के पास 'सेंटर फॉर लर्निंग' एक ऐसी ही संस्था है। इस संस्था में क्रिश की योजना की तरह से बच्चों को शिक्षित किया जाता है। पूरे 40 किलोमीटर के क्षेत्र में फैली विशाल वन-संपदा के बीच स्कूलों की पढ़ाई के अलावा, शारीरिक शिक्षा, संगीत, नृत्य, बागवानी, आध्यात्म आदि विषयों की जानकारी दी जा रही है।
सेंटर फॉर लर्निंग में दसवी कक्षा तक किसी प्रकार की परीक्षा नहीं ली जाती। यहाँ के विद्यार्थी दसवीं के बाद सीधो केम्ब्रिज बोर्ड की आइजीसीएसई परीक्षा देते हैं। इसके बाद 12 वीं में सीधो आईबी डिप्लोमा की परीक्षा देते हैं। ऐसी बात नहीं है कि यहाँ विद्यार्थियों का मूल्यांकन होता ही नहीं। मूल्यांकन एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है। यहाँ रहकर विद्यार्थी अपने तरीके से नई-नई चीजों को सीखते हैं। यहाँ किसी सवाल का जवाब रेडीमेड तरीके से नहीं दिया जाता, बल्कि विद्यार्थी स्वयं अपने तरीके से सवाल का जवाब खोजते हैं।
आईआईटी में ग्रेज्युएट होने के बाद पवन गुप्ता नाम के इंजीनियर ने दो दशक पहले हिल स्टेशन मसूरी के पास 'सिंह' नामक संस्था की स्थापना की। श्री गुप्ता ने जब इस क्षेत्र का सर्वेक्षण किया, तब उन्होंने पाया कि यहाँ के लोग अपने बच्चों को ईमानदारी से स्कूल तो भेजते हैं, पर उसका अपेक्षाकृत परिणाम सामने नहीं आता। इन स्कूलों से पढ़ने वाले विद्यार्थियों को नौकरी नहीं मिलती। पुश्तैनी व्यवसाय खेती को वे अपनाना नहीं चाहते। उनकी पुष्टि में खेती करना ओछा काम है। इन अनुभवों के आधार पर पवन गुप्ता ने सोसायटी फॉर इंटिग्रेटेड डेवलपमेंट ऑफ हिमालय नामक संस्था की स्थापना की। इसे ही लोग 'सिंह' के नाम से जानते हैं। इस संस्था में सबसे पहले तो बच्चों ने जो कुछ खोटी या बेकार की शिक्षा प्राप्त की है, उसे भूल जाने को कहा जाता है। इसके लिए उन्हें भारी मशक्कत भी की जाती है। यहाँ परीक्षा से अधिक महत्व पढ़ाई को दिया जाता है। साथ ही रट्टू तोता बनाने की अपेक्षा समझ को बढ़ाने पर जोर दिया जाता है।
यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया से इंजीनियरिंग में डॉक्टरेट की डिग्री प्राप्त करने वाले संदीप पांडे लखनऊ में 'आशा आश्रम' के नाम से एक संस्था चलाते हें। उनका मानना है कि आज की शिक्षा बहुत ही कम विद्यार्थियों को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है। हमारे देश में फैक्टरी की तरह शिक्षा दी जा रही है। इसमें सभी विद्यार्थियों की जरूरतों को पूरा करने में यह शिक्षा विफल साबित होती है। इस कारण इसमें सर्वांगीण पद्यति की आवश्यकता है। आशा आश्रम में तीन घंटे तक नियमित पढ़ाई के बाद ईंट भट्टे पर काम करने वाले बच्चों के लिए विशेष रूप से पढ़ाई की व्यवस्था की जाती है। इस स्कूल में परीक्षा से अधिक महत्व पढ़ाई को दिया जाता है।
उदयपुर में रहने वाले हार्वर्ड से ग्रेजुएट मनीष जैन ने शिक्षांतर नामक एक संस्था की स्थापना की है। इसमें बच्चों को स्कूल की चारदीवारी में कैद किए बिना ही अनेक तरह की कलाओं की शिक्षा दी जाती है। ये कला उनके दैनिक जीवन में उपयोगी साबित होती है। मनीष के अनुसार बच्चे जो कुछ स्कूल में पढ़ते हैं, उससे अधिक तो वे दुनिया की शाला में पढ़ते हैं। हमारा 90 प्रतिशत ज्ञान तो स्कूल के बाहर से ही प्राप्त होता है। स्कूल का पढ़ा हुआ तो बहुत ही कम काम आता है। दूसरी ओर जीवन की पाठशाला से प्राप्त किया हुआ ज्ञान हर जगह काम आता है। इन्होंने भी अपने बच्चों को स्कूल से निकालकर अपने तरीके से पढ़ाना शुरू कर दिया है।
आज स्कूलों में जो शिक्षा दी जा रही है। उसका उद्देश्य स्वतंत्र रूप से विचार कर सके, ऐसे नागरिक तैयार करने का नहीं है। आज उन्हें जो कुछ पढ़ाया जा रहा है, उसे बच्चे ऑंख बंदकर स्वीकार रहे हैं। शिक्षा के नाम पर एक तरह से चावी के खिलौने तैयार करने का काम हो रहा है। आज नागरिकों में मौलिक विचार करने की शक्ति समाप्त हो गई है। इसके अलावा जो विचार उसे योग्य नहीं लगते, उसका विरोध करना भी आज की शिक्षा नहीं सिखाती। संसद में शोरगुल के बीच जो कुछ भी विधोयक पास होता है, मूक जनता उसे सहजता से स्वीकार कर लेती है। जिस दिन नागरिकों को भयमुक्त बनाने और अत्याचार के सामने आवाजा उठाने की शिक्षा दी जाएगी, उसी दिन हम सच्चे अर्थों में स्वतंत्र भारत के नागरिक बनेंगे। ये तय है।
डॉ. महेश परिमल

2 टिप्‍पणियां:

  1. आज शिक्षा केवल रोजगार उन्मुख है. इंजीनिअर बनने के लिए बच्चे नवीं दसवीं कक्षा से ही कोचिंग लेने लगते हैं.छोटे बच्चों पर बस्तों का बोझ और प्रतियोगिता का तनाव है. इससे उनका बचपन छिन गया है. इस बारे में चर्चाएं तो होती हैं लेकिन कोई सार्थक समाधान नहीं निकलता. जिस प्रकार की शिक्षा का आपने जिक्र किया है. देखना है वह कितना लोकप्रिय और फलदायी होती है.

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