गुरुवार, 19 फ़रवरी 2009

मान्यताओं, धारणाओं को झुठलाने की साजिश


डॉ. महेश परिमल
क्या आपने यह महसूस किया कि आजकल कई रेल्वे स्टेशनों में ऐसी मशीनें लग गई हैं, जो इंसान का वजन नापने के अलावा यह भी बताती हैं कि किस ऊँचाई के व्यक्ति का वजन कितना होना चाहिए। उसके टेबल में यदि जरा भी हेर-फेर है, तो यह चिंता की बात है। ठीक ऐसा उस समय भी होता है,जब अस्पताल में डिलीवरी के बाद यह कहा जाता है कि बच्चे की हाइट के अनुसार उसका वजन कम है, अतएव आप उसे इस तरह की अतिरिक्त खुराक दें। यानी अब तक जो यह कहा जा रहा था कि छह माह तक बच्चे के लिए माँ का दूध ही सर्वोपरि है। इस धारणा को एक साजिश के तहत झुठलाने की कोशिश की जा रही है। इसमें अनजाने में विश्व स्वास्थ्य संगठन भी जुड़ा हुआ है। आशय यही कि अब वह भी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों की कठपुतली बनकर रह गया है।
40 वर्ष पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एक चार्ट तैयार किया था। जिसमें यह बताने की कोशिश की गई थी कि बच्चे की ऊँचाई, वजन और उम्र का रेशो क्या होना चाहिए। इस चार्ट के आधार पर विश्व के 40 देशों की माताएँ अपने बच्चों को अतिरिक्त खुराक के रूप में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पाद बेबी फूड के रूप में देती आ रही हैं। अब विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा है कि उक्त चार्ट में कुछ खामियाँ रह गई हैं। सोचो, कितना बड़ा धोखा पिछले चालीस वर्षों से विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा किया जा रहा था। इसके कारण न जाने कितनी माताओं ने अपने बच्चों को अतिरिक्त खुराक दी और बच्चों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ किया। पिछले चालीस वर्षों से हो रहे इस घालमेल की जानकारी अभी तक बहुत ही कम लोगों को है। इस तरह से विश्व स्वास्थ्य संगठन ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बेबी फूड के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
इस मिलीभगत से न जाने कितने मासूमों की अतिरिक्त खुराक के कारण जीवनलीला ही समाप्त हो गई। इसके कारण यह मान्यता भी झूठी साबित हो गई कि छह माह तक बच्चे के लिए माँ का दूध ही सब-कुछ है। बेबी फूड के कारण न जाने कितनी माताओं ने आधुनिक बनने के चक्कर में शिशु को स्तनपान कराना ही बंद कर दिया। बच्चे बेबी फूड के सहारे ही बड़े होने लगे। इसका असर बच्चों के स्वास्थ्य पर पड़ा। अपनी सफाई में विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि 'पेडियाट्रिक ग्रोथ चार्ट' के नाम से जाने जाने वाले इस चार्ट को तैयार करने के लिए अमेरिका के बच्चों की उम्र और वजन का इस्तेमाल प्रामाणिकता के रूप में किया गया। गलती यही हो गई। अमेरिका के बच्चे वैसे भी बेबी फूड के सहारे बड़े होते हैं, इसलिए उनका वजन बढ़ना स्वाभाविक है। अमेरिका के शिशुओं के हिसाब से तैयार चार्ट तो भारत या अन्य विकासशील देशों के शिशुओं पर लागू नहीं किया जा सकता। लेकिन विकासशील देशों की माताओं ने अपने आप को आधुनिक बताने के लिए अपने बच्चों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ किया।
बेबी फूड से बच्चे मोटे होते हैं और भविष्य में हृदय रोग के शिकार हो सकते हैं। इसकी जानकारी पूरे चालीस साल तक विश्व स्वास्थ्य संगठन को न हो, यह बात गले नहीं उतरती। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हम इतने खुश हो गए कि हमें देश की स्वास्थ्य नीतियाँ बनाने का खयाल ही नहीं रहा। हम तो विश्व स्वास्थ्य संगठन ने जो कहा, उसे कर दिखाने के लिए तैयार रहे। तमाम देशों की सरकारों द्वारा स्वास्थ्य को लेकर जो आंदोलन चलाकर अरबों रुपए खर्च किए जा रहे हैं, वे विश्व स्वास्थ्य संगठन के सुझावों को देखते हुए किए जा रहे हैं। अब हमें सचेत हो जाना चाहिए कि विश्व स्वास्थ्य संगठन जिस तरह से हमें मलेरिया, फाइलेरिया, टीबी, एड्स, पोलियो, डायबिटीस, हृदय रोग, कुष्ठ रोग, डेंगू आदि रोगों से लड़ने के लिए जो सुझाव देता है, उसमें बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों के उत्पाद को बढ़ावा देने की योजना होती है।
इन दिनों हमारे देश में पल्स पोलियो और एड्स को लेकर जागरूकता का अभियान चलाया जा रहा है। इस दिशा में पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता है। इसकी जाँच में यदि यह पाया जाता है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के कहने पर हमारे देश के बच्चों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ किया गया है, तो हमें बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पादों का बहिष्कार करना चाहिए। इसके लिए एक स्वदेशी विशेषज्ञों की समिति बनाई जानी चाहिए। आयोडिनयुक्त नमक के मामले में भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। नमक में आयोडिन का होना आवश्यक बताकर नमक जैसी अतिआवश्यक चीज को भी महँगा कर दिया गया। इसका पूरा लाभ उद्योगों को ही मिला है। परिवार नियोजन का नारा देकर जो दवाएँ विदेशों से हमारे देश में आ रही हैं, वे भी कम खतरनाक नहीं हैं। लेकिन स्वास्थ्य पर कोई स्पष्ट नीति न होने के कारण भारत समेट कई देश बहुराष्ट्रीय कंपनियों के गुलाम बनकर रह गए हैं।
हमारे देश में हर वर्ष करीब 20 हजार करोड़ रुपए की एलोपैथिक दवाओं का विक्रय होता है। इसमें से अधिकांश दवाएँ अनावश्यक और हानिकारक हैं, जो हमारे विश्वासपात्र डॉक्टर द्वारा लिखी जाती है। इन दवाओं की बिक्री से देशी और विदेशी कंपनियाँ बेशुमार दौलत इकट्ठा कर रही हैं। अनजाने में हमारा विश्व प्रसिद्ध आयुर्वेर्दिक ज्ञान अपनी जन्मभूमि भारत में ही पिछड़ता जा रहा है। जबकि विदेशों में इसका बोलबाला है। आयुर्वेद को पीछे करने की एक साजिश बरसों से बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा की जा रही है और हम उसके चंगुल में फँसते जा रहे हैं। बेहतर होगा कि समय रहते हम सचेत हो जाएँ, नहीं तो हो सकता है कि गुलामी हमारी मस्तिष्क के बाद अब शरीर पर ही हावी हो जाए।
डॉ. महेश परिमल

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Post Labels