सोमवार, 16 फ़रवरी 2009
ग्राम विकास ही सच्चा विकास
अलांगो रंगास्वामी ने शहर की तरफ पलायन और गरीबी दूर करने का उपाय बताया हैमल्लिका साराभाई
भले ही इसे आधुनिक कहा जाए, पर बात है यह नीति, मूल्यों और मानवता के विकास की।
चेन्नई से दक्षिण में 75 कि.मी. दूर एक गांव है कुथाम्बकम। एक दशक पहले तक यह गांव एकदम अविकसित था। वहां चारों तरफ जातिवाद के झगड़े, गरीबी और शराबियों के ही दर्शन होते थे। इसी गांव के एक व्यक्ति ने गांधीजी के नियमों को अपनाकर इस गांव की कायाकल्प ही कर दी।
दलित परिवार में जन्म लेने वाले अलांगो रंगास्वामी का जीवन इन्हीं झगड़ालू, छुआछूत से भरे वातावरण के बीच ही बीता। मानवता के कोई लक्षण यहां नहीं दिखते थे। जहां यह व्यक्ति रहता था, वहां पुरुष, स्त्रियों से मारपीट करते रहते। दूसरी ओर उच्च वर्ग के लोग दलितों पर अत्याचार करते। इस गांव में रहने वाले अधिकांश लोग अनपढ़ और शराबी थे। इन हालात में भी अलांगों ने मन लगाकर शिक्षा प्राप्त की। हाईस्कूल पास कर इंजीनियरिंग कॉलेज में जाने वाला अलांगो पहला दलित बना। तेजस्वी और मेधावी होने के कारण ग्रेजुएशन के तुरंत बाद उसे अच्छे वेतन की नौकरी भी मिल गई। इसे नौकरी को स्वीकारने के पहले उसने सोचा कि एक बार अपने परिवार से मिल लिया जाए। फिर भी मिलने में 5 वर्ष लग गए। 5 वर्ष बाद जब वह अपने गांव पहुंचा, तब वहां की स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया था। सभी कुछ पहले जैसा ही था। यह स्थिति देखकर उसे आघात लगा। उसने सोचा कि यदि मैं अपनी शिक्षा का उपयोग अपनों के लिए नहीं करता, तो लानत है मुझ पर। यदि मेरी शिक्षा से गांव वालों का विकास नहीं होता, तो मेरी शिक्षा व्यर्थ है।
ग्रामीणों के उत्कर्ष का सपना आंखों में पालकर अलांगो ने सबसे पहले गांव की गरीबी के कारण को समझने की कोशिश की। देश के अन्य गांवों की तरह यहां भी किसान और मजदूर रहते थे। ये लोग खेतों में अनाज तो बोते, पर केवल अपनी ही पूर्ति के लिए। अलांगों ने अपनी शिक्षा का उपयोग कर अपने ही नहीं, बल्कि आसपास के गांवों का बारीकी से अध्ययन किया। इसमें उसने पाया कि इस क्षेत्र के लोग अपनी जरूरतों की छोटी-बड़ी चीजें खरीदने में ही 60 लाख रुपए खर्च कर देते हैं। यहां की गरीबी का मुख्य कारण भी यही था। उसने सोचा कि अब इन ग्रामीणों को सही दिशा किस तरह से दी जाए, ताकि गरीबी से छुटकारा मिल सके। इसके बाद रंगास्वामी सबसे पहले तो गांव के सरपंच बने। इसके बाद गांव-गांव में विभिन्न सभाओं का आयोजन कर लोगों को आदर्श गांव की कल्पना के संबंध में बताया। इन्हें समझाते हुए रंगास्वामी ने कहा 'यदि आप सभी सहयोग दें, तो हर गांव में अलग-अलग समूह बनाकर छोटी-बड़ी वस्तुओं का उत्पादन किया जा सकता है। इन उत्पादित वस्तुओं की बिक्री गांव में ही की जाएगी।'
अलांगों की मुश्किलभरे दिन अब शुरू हुए। पहले तो ग्रामीणों को उनकी बातें रहस्यपूर्ण लगी। भला ऐसे कैसे हो सकता है? यही प्रश्न सभी के दिमाग में था। पर अलांगो ने जो ठान लिया था, उसके लिए वे पूरी तरह से समर्पित थे। अंतत: उन्हें सफलता मिली। शुरुआत में इन समूहों ने मिलकर करीब 40 जीवनोपयोगी वस्तुओं का उत्पादन करने का निश्चय किया। इसके बाद गांव में अन्य कई सेवाएं शुरू की गई। इसमें दूध उत्पादन, अनाज, बुनकर, सिलाई काम और साबुन-डिटजर्ेंट का समावेश किया गया। इसके कुछ महीनों में परिश्रम का फल दिखने लगा। लोगों को यह समझ में आ गया कि उनके 60 लाख रुपए गांव में ही खर्च हो गए। अब तक उन्हें न जाने कितनी कार्पोरेट कंपनियों के उत्पाद उन्होंने खरीदे थे। इस प्रगति से गांव वालों का आत्मविश्वास बढ़ गया। वे दोगुने उत्साह से अपना काम करने लगे। दूसरी ओर गांव की सूरत बदलने वाले रंगास्वामी की ख्याति दूर-दूर तक फैलने लगी।
इसके बाद जब गांवों में नए मकान बनाने की बारी आई, तो रंगास्वामी ने समझाया कि लोग अब भेदभाव भूलकर एक दूसरे का सहयोग करें। सब साथ रहेेंगे, तो विकास तेज गति से होगा। कुछ समझाइश के बाद लोग मिलकर रहने को तैयार हो गए। नए विचारों के अनुसार मकान बने, जिसमें ब्राह्मण के बाजू में दलित जाति के लोगों का मकान बना। धीरे-धीरे गांवों की परिस्थितियां बदली, तो लोगों का दृष्टिकोण भी बदला। अब गांव के बच्चे स्कूल जाने लगे। शाला में भी बच्चों के साथ किसी तरह का भेदभाव नहीं होने के कारण शिक्षा बेहतर मिलने लगी। इस समृध्दि से एक नई बात सामने आई। अब गांव के युवाओं को लगने लगा कि शहर में उनके लिए नौकरी और मकान बनाने के अच्छे अवसर हैं, तो वे युवा शहर जाकर अपने पांव पर खड़े होने लगे।
अलांगों का मॉडल आज पूरे विश्व के विकासशील देशों में खास चर्चा में है। वजह साफ है, उन्होंने गांव से शहर की तरफ पलायन और गांव की गरीबी दूर करने का उपाय बताया है। कितने ही भ्रष्टाचारी अधिकारियों और गलत तरीके से धन कमाने का विरोध किए बिना यह परिवर्तन सहज नहीं था। यद्यपि अलांगो अपने क्षेत्र में लगातार विकास करते रहे।
कहावत है 'गांव का जोगी जोगड़ा, आन गांव का सिध्द' यह बात आज अलांगों के बारे में कही जा रही है। उसके मॉडल को कई विकासशील देश अपना रहे हैं, पर हमारे ही देश में उन्हें तरजीह नहीं दी जा रही है। भारत के 64 प्रतिशत गांवों की स्थिति आज ठीक नहीं कही जा सकती। वहां से लगातार पलायन हो रहा है। फलस्वरूप शहरों की हालत और भी अधिक खराब होती जा रही है। योजना आयोग और आईआईएम जैसी संस्थाओं के विद्यार्थी इन गांवों में जाकर गहराई से अध्ययन करें, तो वे भी देश के पिछड़े गांवों के विकास में मील का पत्थर साबित हो सकते हैं।
मल्लिका साराभाई प्रतिष्ठित अदाकारा और समाजसेवी हैं।
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अभिमत
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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