बुधवार, 11 फ़रवरी 2009
हिंसा का प्यारा समाधान
ये वेलेंटाइन डे क्या है? एक समस्या या उपाय!
दीपक सोलिया
विवेकानंद जी की प्रसिध्द उक्ति है कि यदि मुझे मुट्ठीभर युवा मिल जाएं, तो मैेंं देश की सूरत ही बदल दूं। युवाशक्ति के उपयोग की विवेकानंद जैसी (किंतु निगेटिव) स्मार्टनेस कई नेताओं के पास भी है। बंगाल की ममता बनर्जी ने कुछ जोशीले युवाओं के बल पर टाटा को बंगाल छोड़ने के लिए विवश कर दिया। विहिप-बजरंग दल के नेता भले ही प्रौढ़ या वृध्द हों, पर हाथ में नंगी तलवार लेकर घूमने वाले तो युवा ही हैं। बेंगलोर के पब में युवतियों को मारने वाले युवा ही थे। नक्सलियों की बेपनाह ताकत केवल युवाओं के कारण ही है। महाराष्ट्र में उत्तर प्रदेश-बिहार के लोगों को पीटने वाले तो युवा ही हैं। कर्नाटक में बेलगाम के मुद्दे पर कन्नड़भाषी युवाओं के तेवर देखने लायक हैं। मुंबई पर हमला करने वाला कसाब कितना युवा है, इसे बताने की आवश्यकता नहीं है।
इसमें नई बात नहीं है कि युवा शक्ति के बल पर ही प्रौढ़ और वृध्द अपना स्वार्थ सिध्द करते आए हैं। बात है सचेत होने की। विशेषकर जब विश्व में मंदी छाई हो, दूसरी ओर बेकारी, अन्याय और सांस्कृतिक बंधनों में जकड़े युवा, इन दोनों का कॉम्बिनेशन चिंताजनक है। मंदी के कारण होने वाली हड़ताल और प्रदर्शन का परचा फ्रांस, रशिया, और ब्रिटेन में देखने को मिल रहा है। इसके पहले 1930 की मंदी में ही यूरोप में फासीवाद का बिगुल बजा था। इन सबको देखते हुए भारत को इस बात के लिए सचेत होना होगा कि उग्रवाद, नक्सलवाद, प्रांतवाद, संस्कृतिवाद-भाषावाद आदि अनेक वादों की लड़ाई के लिए बेशुमार युवाशक्ति भारतभर में बिखरी पड़ी है। 'द फ्लेश ऑफ सिविलाइजेशन' में सेम्युअल हंटिंगटन ने लिखा है-भारत आज युवाओं का देश है। एक अनुमान के मुताबिक 2020 तक 15 से 30 तक की आयु वाले युवाओं की संख्या भारत में हर वर्ष एक से 2 प्रतिशत की दर से बढ़ती रहेगी।
इस अपार युवाशक्ति को सही दिशा देने के लिए एक प्रभावशाली नेतृत्व की आवश्यकता है। आज विवेकानंद या गांधी जैसे नेता हमारे पास नहीं है, तो फिर इस युवाशक्ति को सही दिशा आखिर किस तरह से मिले? इस दिशा में मुझे तो एक ही विचार आ रहा है, यह विचार थोड़ा हास्यास्पद लग सकता है। फिर भी बात निकली है, तो फिर बताने में क्या हर्ज? आज युवाओं को अंकुश में रख सकता है, तो वह वर्ग है युवतियों का! जी हाँ, युवतियों का। आप ही बताएं, एक जोशीला युवा शिक्षकों या घर के बुजुर्गों की बात भले ही न माने, पर उसकी सहपाठी, गर्लफ्रेंड या फिर पड़ोस में रहने वाली को युवती यदि उसे धीमे से कुछ कह दे, तो वह तुरंत ही उसे करने के लिए तैयार हो जाता है। युवाओं की शक्ति को विस्फोटक बनने से रोकने की शक्ति केवल युवतियों के पास ही है। लोहा ही लोहे को काटता है। शोले का संवाद याद है ना आपको, जिसमें गब्बर सिंह कहता है 'गब्बर से तुम्हें एक ही आदमी बचा सकता है, एक ही आदमी, खुद गब्बर।' इस तरह से यौवन पर अंकुश रखने के लिए एक ही शक्ति है, वह है स्वयं यौवन।
इसका सार यही है कि आजकल के युवक-युवतियों को अकारण ही परेशान न किया जाए। उन्हें ऐसा करने दो, उनकी दोस्ती और प्रेम को पनपने दो, बहुत से माता-पिता को यह चिंता होती है कि उनकी लड़की किसी झूठे व्यक्ति के प्रेम में पड़ गई तो? बहुत अच्छा, यदि आप ऐसा सोच रहे हैं, तो लड़कियों के तेज दिमाग और व्यक्ति को पहचानने की प्रतिभा को नजरअंदाज कर रहे हैं। माता-पिता तो पुराने जमाने की बात कर रहे हैं, उस समय तो युवक-युवती 15-20 वर्ष की आयु तक पहुंचते-पहुंचते विवाह के बंधन में बंध जाते थे। तो क्या पुरानी पीढ़ी ने जो विजातीय निकटता छोटी उम्र में प्राप्त कर ली थी, क्या उससे आज की पीढ़ी को वंचित रखा जाए? स्वयं तो प्रेम में नहीं पड़े, तो क्या दूसरों को प्रेम करने का अधिकार नहीं है? दूसरी ओर अश्लीलता और अनैतिकता के मामले में आज के कुँवारे युवाओं की अपेक्षा प्रौढ़ कितने आगे हैं, यह सभी जानते हैं।
यौवन यदि आगरा है, तो प्रेम ताजमहल है। इंसान यदि आगरा जाए और ताजमहल न देखे, तो फिर क्या देखा? यौवन आता है और चला भी जाता है। इस बीच यदि एक बार भी किसी से प्रेम नहीं हुआ, तो ऐसे कैसे चलेगा? इसलिए जिंदाबाद.... जिंदाबाद.... अय मुहब्बत जिंदाबाद। वो जवानी जवानी नहीं, जिसकी कोई कहानी नहीं। इस तरह की कहानी गढ़ने वाले प्रेमी युवक को आतंकवादी बनाना कोई सरल काम नहीं है। वह अपनी प्रेमिका को इतनी सहजता से छोड़ने के लिए तैयार नहीं होगा। स्वार्र्थी नेताओं के जाल में अपने प्रेमी को फंसने से रोकने का काम प्रेमिका जितनी अच्छी तरह से कर सकती है, उतने अच्छे से और कोई नहीं कर सकता। ये सभी काम जबर्दस्ती के बजाए प्यार-मोहब्बत से बेहतर हो सकते हैं। इसलिए विजातीय आकर्षण के मामले में युवा पीढ़ी को नैतिकता, आदर्श, संस्कृति के मोटे-मोटे उपदेशों की आवश्यकता नहीं है। इसकी विपरीत उन्हें आवश्यकता है, ऐसे स्थलों की, जहां वे बैठकर शांति के साथ बातचीत कर सकें। ऐसा कोई एकांत नहीं मिलने के कारण ही वे युवा पब या गंदे रेस्टॉरेंट में बैठकर खुलेआम अपने प्रेम का प्रदर्शन करते हैें। क्या करें, उम्र का तकाजा है और दुश्मन जमाना है। इसके बजाए नाना-नानी, दादा-दादी जिस तरह से पार्क में बैठकर बातें करते हैं, ठीक वैसे ही ऐसे पार्क भी होने चाहिए, जो केवल ओर केवल प्रेमी-युगल के लिए हों। जहां बैठकर दोनों दिल-खोलकर बातें कर सकें।
तो, साथियो, प्रेम को खिलने दो और हे युवतियों, इस बार वेलेंटाइन डे पर अपने प्रेमी के सामने यह शर्त अवश्य रखें 'यदि तुमने किसी समाज विरोधी गतिविधि में भाग लिया, तो हमारे संबंध समाप्त हो जाएंगे।' इस तरह का 'मुलायम अंकुश' युवाओं को उग्र या देशद्रोही बनने से रोक देगा, तो वेलेंटाइन डे एक निजी और सार्थक उत्सव बन जाएगा, इसमें शक नहीं।
दीपक सोलिया, जाने -माने पत्रकार और स्तंभकार हैं।
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आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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जी बहुत सही कहा आपने... "प्रेम को खिलने दो"
जवाब देंहटाएंटकराव सिर्फ़ विचारों का है परन्तु जो तरीके बदलने के लिये इस्तमाल किये जा रहे हैं वह गलत हैं..
हिंसा किसी भी मुद्दे का समाधान नहीं है.. सब अपना भला बुरा समझते हैं.. संवाद ही सही रास्ता है..