गुरुवार, 26 फ़रवरी 2009

अनाथ आश्रम से वृद्धाश्रम तक


डॉ. महेश परिमल
इन दिनों युवाओं में एक अजीब तरह का जुनून देखने में आ रहा है, जिसमें कुछ नया करने की ललक दिखाई दे रही है। लोग हमेशा युवाओं को दोष देते हैं। सच है आज के कानफाड़ संगीत के शोर में कदम थिरकाते युवाओं को देखकर तो यही कहा जा सकता है कि आज की पीढ़ी दिशाहीन है। ऐसा हमेशा से कहा जाता रहा है। ऊँगली हमेशा युवाओं की ओर ही उठती है। पर इसके दूसरी ओर भी देखने का साहस जिनमें है, वे अच्छी तरह से जानते हैं कि उन पर गलत आरोप लगाया जाना उचित नहीं है। बुजुर्गों की स्थिति समाज में कभी भी सम्माननीय नहीं रही। अब भला किस पीढ़ी ने सोचा होगा कि वृद्धाश्रमों से माता-पिता लाएँ जाएँ। कहाँ तो खून के रिश्ते भी आज खोखले होने लगे हैं और कहाँ तो लोग नए तरह के रिश्ते बनाने लगे हैं, जिन्हें नई परिभाषा की आवश्यकता है।
हाल ही कुछ घटनाओं ने मुझे चौंका दिया। मेरा मानना था कि आज के युवा पश्चिमी सभ्यता के मोह में फँसकर भागे जा रहे हैं। इन्हें किसी की चिंता नहीं है। ये तो बस शार्टकट से किसी भी तरह अपना जीवन काट लेना चाहत हैं। अपने से बड़ों की इात करना तो इन्होंने सीखा ही नहीं। ये पीढ़ी कुछ भी समझने को तैयार नहीं है। लेकिन कुछ घटनाओं से वाकिफ होने पर लगा कि सचमुच इस पीढ़ी में सोचने-समझने की ताकत है। वह अपनी शक्ति और सोच को बखूबी जानती है। इस पर किसी तरह का लांछन लगाना उचित नहीं। यह पीढ़ी तो भावी भारत को दिशा देने में पूरी तरह से सक्षम है।
हुआ यूँ कि अनाथ आश्रम में पले-बढ़े दो युवाओं ने आपसी समझ दिखाते हुए शादी कर ली। इनकी शादी में बहुत से लोगों ने नवदम्पति को हृदय की गहराइयों से आशीर्वाद दिया। इसी आशीर्वाद का प्रभाव था कि शादी के बाद दोनों को लगा कि हम अनाथ हैं, तो क्या हुआ। क्या अब हमारे माता-पिता नहीं हो सकते। स्वयं माता-पिता बनने के पहले दोनों ने अपने सर पर छाँव के लिए वृद्धाश्रम की दौड़ लगाई और वहां से अपने माता-पिता खोज लाए। अब उनका जीवन सुखमय हो गया। परिवार पूरा हो गया। यह जानने के बाद सचमुच हर किसी ने उस नवविवाहित की प्रशंसा ही की।
इसी तरह की एक और घटना गुजरात में हुई। इसे भी अनोखी घटना कहा जा सकता है। खबर यह थी कि अपनी विधवा माँ के लिए जीवनसाथी की खोज में हैं भाई-बहन। पीर पराई समझने की ओर कदम बढ़ाते आज के युवाओं की यह एक बेहतर सोच है। इसके लिए उन्हें बधाई दी जानी चाहिए। इसमें युवा पुत्र का कहना था कि माँ ने केवल सात वर्ष तक ही वैवाहिक जीवन जीया। उसके बाद हम दो भाई-बहन ही रहे। एक दुर्घटना में पिता की असामयिक मौत हो गई। माँ ने एक स्कूल में पढ़ाना शुरू कर दिया। इसके बाद हमारे लालन-पालन में वह इतनी व्यस्त हो गई कि उन्हें अपने अकेलेपन का अहसास ही नहीं हुआ। बहन की शादी हो गई। मैं नौकरी के लए शहर से दूर हो गया और माँ सेवानिवृत्त हो गई। अब अकेली माँ क्या करे? मुझे लगा कि अब माँ को एक जीवनसाथी की आवश्यकता है। हालांकि इस उम्र में ऐसा सोचना एक तरह से पाप ही है। लेकिन मेरा मानना है कि माँ को अब एक ऐसा साथी मिल ही जाना चाहिए, जो उसके सुख-दु:ख में काम आ सके। पीर पराई का यह सिलसिला यहीं खत्म नहीं होता। जिस मैरिज ब्यूरो में बेटे ने माँ के लिए जीवनसाथी की खोज का आवेदन दिया, उसी में माँ ने अपने बेटे के लिए एक सुशील जीवनसाथी के लिए आवेदन किया। जब यह बात खुली, तब माँ ने बेटे की प्रशंसा करते हुए कहा कि यह अच्छी बात हे कि बेटे ने मेरे लिए कुछ बेहतर सोचने की कोशिश की। पर मैं अपने बारे में तभी कुछ सोचूँगी, जब मेरे बेटे का घर सँवर जाए। इसे कहते हैं विचारों का बेहतर तालमेल।
युवा जो एक ओर दिशाहीन होकर आतंकवाद की ओर बढ़ने में संकोच नहीं करते, वही आज कुछ नया करने की चाहत में समाज में अपना नया स्थान बनाने जा रहे हैं। बहुत मुश्किल है दूसरों के दु:ख को समझना। अक्सर युवाओं से यह शिकायत रहती है कि ये पीढ़ी सुनती नहीं है। ऐसे जुमले हर पीढ़ी के युवाओं को सुनने पड़ते हैं। लेकिन हर पीढ़ी के युवाओं ने कुछ न कुछ तो ऐसा किया ही है, जिससे उसकी अलग ही पहचान कायम हुई है। ऊपर की घटनाओं को जानकर युवाओं पर इस तरह का आरोप लगाना बेमानी होगा। युवा हमेशा से ही कुछ अलग सोचते ही हैं, पर उनकी सोच को अक्सर दिशा नहीं मिल पाती, इसलिए वे कुछ ऐसा कर जाते हैं, जिससे उनकी छबि धूमिल हो जाती है। जिन्हें दिशा मिल जाती है, वे कुछ नया करने मे सक्षम होते हैं।
देखा जाए, तो इसके पीछे कुछ संस्कार हैं, जो अनजाने में युवाओं को माता-पिता से प्राप्त होते हैं। पर अनाथ आश्रम में किस तरह के संस्कार मिलते हैं, जो वहाँ पल-बढक़र युवा कुछ नया सोच रहे हैं, यह एक शोध का विषय है। निश्चित रूप से उन अनाथ आश्रमों का वातावरण एक परिवार की तरह होगा, जहाँ बिना किसी भेदभाव के बच्चों का लालन-पालन होता होगा। धन्य हैं वे अनाथ आश्रम और उनके संचालक। दूसरी ओर यदि एक युवा अपनी विधवा माँ के लिए जीवनसाथी की खोज करता है, तो इसे भी संस्कार ही कहा जाएगा। कहीं तो कुछ ऐसा है, जो इन युवाओं को आज के युवाओं से अलग करता है। आखिर क्या है वह चीज? कोई बता सकता है?
डॉ. महेश परिमल

4 टिप्‍पणियां:

  1. विचारपरक लेख।
    सोचना-समझना दोनों को ही चाहिए। यह फर्क पीढ़ी के अंतर का भी है।

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  2. बहुत ही सलीक़े से सुन्दर शब्दों में ऐसी अच्छी पोस्ट लिखी है आपने!

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  3. ह्रदय हर्ष से भर गया....गदगद हो गया.......

    ऐसी बातों को प्रकाश में लाने हेतु आपका बहुत बहुत aabhaar ....
    iishwar ऐसे uddatt vichar और susanskaarwaan लोगों से यह manav samaaj भर दें,यही prarthna है.

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