शनिवार, 18 जुलाई 2009

कश्मीर पर यह नासमझी क्यों


नीरज नैयर
अमेरिकी नेतृत्व की पाक पसंदगी का पैमाना इस कदर भर गया है कि उसके राजनेता-अधिकारी अब हमारे पड़ोसी मुल्क के नुमाइंदों की तरह ज्यादा पेश आने लगे हैं, हाल ही में अमेरिकी विदेश उप मंत्री विलियम बन्र्स के दिए बयान से तो यही प्रतीत होता है. बन्र्स ने अपनी भारत यात्रा के दौरानबहुत कुछ ऐसा कहा जिसकी उम्मीद नई दिल्ली ने भी नहीं की होगी. अमेरिकी मंत्री ने भारत को पाक के साथ बिना शर्त बातचीत की समझाइश तो दी ही साथ ही कश्मीर पर यह कहते हुए नया शिगूफा छोड़ दिया कि समस्या के समाधान के लिए कश्मीरियों की इच्छा का भी ध्यान रखा जाना चाहिए. कश्मीर भले ही भारत-पाक का आपसी मसला हो मगर उसमें अमेरिका की दखलंदाजी हमेशा से ही रही है, इसका एक कारणदोनों देशों का बार-बार अमेरिका पर निर्भरता जाहिर करना भी है. पाकिस्तान शुरू से अमेरिका के सहारे कश्मीर फतेह की नापाक कोशिशों को अंजाम देता रहा है और भारत महज जुबानजमाखर्ची के वाशिंगटन को अब तक कोई सख्त संदेश देने में नाकाम रहा है. बन्र्स के मौजूदा बयान पर भी भारतीय नेतृत्व ने कोई ऐसी प्रतिक्रिया नहीं दी जिससे अमेरिका को भविष्य के लिए सबक मिल सके. बराक हुसैन ओबामा के सत्ता संभालने से पहले ही यह स्पष्ट हो गया था कि कश्मीर पर उनका रुख पाक के पक्ष में ही जाएगा, ओबामा ने चुनाव प्रचार के दौरान ही कश्मीर के समाधान के लिए एक विशेष दूत नियुक्त करने की बात कही थी और वो अब इसी दिशा में बढ़ते दिखाई दे रहे हैं.
कश्मीर को लेकर पाक की पैंतरेबाजी को ऐसे कथित बुद्धिजीवियों के कथनों से भी बल मिला है जो घाटी को आजाद रूप में देखने की हसरत रखते हैं. प्रख्यात लेखिका अरुन्धति राय भी ऐसे ही बुद्धिजीवियों की जमात में शामिल हैं. कुछ वक्त पूर्व जब कश्मीर में आजादी की मांग को लेकर प्रदर्शन चल रहे थे उस वक्त आउटलुक में उनका एक लेख प्रकाशित हुआ था जिसमें उन्होंने कश्मीर को स्वतंत्र करने पर बल दिया था. उनका मानना था कि घाटी में जो आक्रोश व्याप्त है वो केवल अलगाववादियों की ही देन नहीं बल्कि आम कश्मीरियों का वो गुस्सा है जो कई वर्षों से भारतीय प्रशासन के खिलाफ पनप रहा है. उनके मुताबिक कश्मीरियों में अब यह धारणा घर कर चुकी है कि उनका हित भारत से अलग होने में ही है. अरुन्धति राय ने महज बुजुर्गों-नौजवानों और महिलाओं की भीड़ से निकलकर आ रहे भारत विरोधी नारों से यह अंदाजा लगा लिया कि घाटी का आवाम 1947 की तरह ही स्वतंत्रता के लिए आंदोलित है. पर वो शायद भूल गईं कि भीड़ में शामिल होने वाले हर शख्स का उद्देश्य उसकी अगुवाई करने वाले से मेल खाए ऐसा जरूरी नहीं होता. राम मंदिर आंदोलन के वक्त सैंकड़ों लोग भीड़ का हिस्सा बने पर क्या सभी मस्जिद तोडऩा चाहते थे, अगर ऐसा होता तो शायद एक भी मस्जिद आज सुरक्षित नहीं बचती. राजनेताओं की रैलियों में हजारों लोग बढ़-चढ़कर सम्मलित होते हैं तो यह मान लिया जाए कि सब एक ही विचारधारा से हैं, अगर ऐसा होता तो भीड़ ही जीत का आधार मानी जाती. भीड़ का हिस्सा बनना महज क्षणिक भर का जोश मात्र भी हो सकता है, जिसका नशा पलभर में ही काफुर हो जाता है. लिहाजा प्रदर्शन करने वालों की तादाद देखकर यह समझ लेना कि पूरी की पूरी जमात ही इसमें शामिल है, सरासर ग़लत है. लालचौक से लेकर सोनमर्ग-गुलमर्ग तक पत्रकार और आम पर्यटक की तरह जब मैने लोगों के दिलों को टटोलने की कोशिश की तो मुझे कहीं से भी उनके भीतर दबे हुए उस गुस्से का अहसास नहीं हुआ जिसका जिक्र अरुन्धति राय ने किया था. जहां तक बात रही थोड़ी बहुत शिकन की तो वह मुल्क के हर नागरिक के चेहरे पर किसी न किसी बात को लेकर दिखाई पड़ ही जाती है. कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा मिला हुआ है, केंद्र में आने वाली हर सरकार के एजेंडे में कश्मीर सबसे ऊपर होता है. हर साल एक मोटी रकम घाटी के विकास के लिए स्वीकृत की जाती है. इतने सब के बाद भी अलग होने की भावना कैसे जागृत हो सकती है, दरअसल पाक की जुबान बोलने वाले हुर्रियत जैसे संगठन कश्मीरियों को लंबे वक्त से बरगलाने में लगे हैं, वह उन्हें सुनहरे सपने दिखाकर अपनी तरफ करने की कोशिश करते हैं, मगर आम कश्मीरियों को शायद इस बात का इल्म है कि अगर भारत से अलग हुए तो उनका हाल भी पाक अधिकृत कश्मीर में रहने वाले उनके भाई-बंधुओं की माफिक हो जाएगा. यही वजह है कि आजादी की मांग वाले प्रदर्शन यदा-कदा ही होते हैं, अगर ऐसा नहीं होता तो घाटी हर रोज शोर में डूबी रहती. इस लिहाज से देखा जाए तो न तो अमेरिका और न ही कथित बुद्धजीवियों के लिए यह तर्कसंगत है कि वो कश्मीर पर भारत के रुख को कमजोर करने की कोशिश करें, खासकर अमेरिका के लिए तो बिल्कुल नहीं. ओबामा खुद को बड़ा साबित करने की चाह में उसी स्टैंड पर कायम हैं जिसपर पूर्ववर्ती अमेरिकी शासक चलते रहे हैं. 1947-48 में भारत और पाकिस्तान के बीच जम्मू कश्मीर मुद्दे पर पहला युद्ध हुआ था जिसके बाद संयुक्त राष्ट्र की निगरानी में युद्धविराम समझौता हुआ. इसके तहत एक युद्धविराम सीमा रेखा तय हुई, जिसके मुताबिक जम्मू कश्मीर का लगभग एक तिहाई हिस्सा पाकिस्तान के पास रहा जिसे पाकिस्तान आज़ाद कश्मीर कहते हैं. और लगभग दो तिहाई हिस्सा भारत के पास है जिसमें जम्मू, कश्मीर घाटी और लद्दाख शामिल हैं. 1972 के युद्ध के बाद हुए शिमला समझौते के तहत युद्धविराम रेखा को नियंत्रण रेखा का नाम दिया गया. हालाकि भारत पूरे जम्मू कश्मीर को अपना हिस्सा बताता है, लेकिन कुछ पर्यवेक्षक यह भी कहते हैं कि वह कुछ बदलावों के साथ नियंत्रण रेखा को अंतरराष्ट्रीय सीमा
के रूप में स्वीकार करने के पक्ष में है. अमेरिका और ब्रिटेन भी नियंत्रण रेखा को अंतरराष्ट्रीय सीमा बनाने के हिमायती रहे. पर पाकिस्तान इसका विरोध करता है क्योंकि नियंत्रण रेखा को अंतरराष्ट्रीय सीमा बनाने से मुस्लिम-बहुल कश्मीर घाटी भी भारत के ही पास रह जाएगी. अमेरिका ने कश्मीर में पूर्णरूप से 1950 के दौरान ही दिलचस्पी लेना शुरू कर दिया था, और 1990 तक आते-आते उसमें पाक की हिमायती का पक्ष साफ-साफ दिखाई देने लगा. अमेरिका कहीं न कहीं ये चाहता है कि कश्मीर को स्वतंत्र घोषित कर दिया जाए ताकि वो अफगानिस्तान और इराक की तरह अपनी सेना को वहां बैठाकर एशिया में मौजूदगी दर्ज करवा सके, शायद इसी लिए उसके दिल में कश्मीरियों के प्रति दर्द उमड़ रहा है. अमेरिका के इस तरह के हिमायत भरे कदम पाकिस्तान और कश्मीर में बैठे उसके खिदमतगारों के लिए पावर बूस्टर का काम करते हैं. इसलिए भारत सरकार को अमेरिकी दबाव में आकर नासमझ व्यवहार करने की बजाए बन्र्स के बयानों की गंभीरता को भांपते हुए माकूल जवाब देने की दिशा में कदम उठाना चाहिए.
नीरज नैयर

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Post Labels