सोमवार, 13 जुलाई 2009
समस्त धाराओं को बौना साबित करते दलितों पर अत्याचार
डॉ. महेश परिमल
हमारे देश में दलित उद्धार की बातें बहुत सुनी जाती हैं। सरकारी घोषणाओं को सुनकर ऐसा लगता है कि अब दलितों पर अत्याचार होना बंद हो जाएगा। दलित उद्धार के जुमले नेताओं के लिए वाणी विलास बनकर रह गए हैं। देखने में तो यहाँ तक आ रहा है, जो नेता जितनी जोर से दलितों पर अत्याचार खत्म करने की दुहाई देता है, उसी के राज में दलितों पर अत्याचार होते हैं। देश के दो बड़े राज्य उत्तर प्रदेश और बिहार में दलितों पर जिस तरह से अत्याचार बढ़ रहे हैं, उससे तो यही लगता है कि अपराध की सारी धाराएँ वहाँ जाकर खामोश हो जाती हैं।
जिस देश में सत्तारुढ़ दल की नेता एक महिला हो, जिस देश की प्रथम नागरिक एक महिला हो, जिस देश में लोकसभा अध्यक्ष एक महिला हो, वह भी दलित, इसका लाभ सत्तारुढ़ दल से खूब उठाया, इसके बाद भी उस देश में महिलाओं पर होने वाले अत्याचार की सूची लंबी से लंबी होती हो, उस देश का क्या कहना? सबसे बड़ी बात तो यह है कि दलितों के उद्धार के नाम पर मुख्यमंत्री बनने वाली मायावती के राज में ही महिलाओं पर होने वाले अत्याचार लगातार बढ़ रहे हों, तो उस देश को क्या कहा जाए। विदेश में संभ्रांत परिवारों के बच्चों पर होने वाले हमले को लेकर चिंताग्रस्त होने वाली सरकार अपने ही देश की महिलाओं पर होने वाले अत्याचार पर किस तरह से खामोश हो जाती है। समझ में नहीं आता कि चुनाव जीत जाने के बाद दलितों पर होने वाले अत्याचार क्यों दिखाई नहीं देते? या इस पर गंभीरता से विचार क्यों नहीं होते?
अब आते हैं सच्चे आँकड़ों की दुनिया में। नेशल क्राइम ब्यूरो के अनुसार 2008 में दलितों पर सबसे अधिक अत्याचार उत्तर प्रदेश में हुए। यह शायद बहन जी मायावती को नहीं मालूम कि 2007 में उत्तर प्रदेश में दलितों पर अत्याचार की 6628 घटनाएँ हुई। 2008 में यह आँकड़ा बढ़कर 6942 हो गया। यदि प्रधानमंत्री बनने का मायावती का सपना पूरा हो जाता, तो देश दलितों के अत्याचार के मामले में कितना आगे बढ़ जाता। नेशनल ह्यूमन राइट्स कमिशन यानी मानवाधिकार आयोग के अनुसार उत्तर प्रदेश की कुल आबादी का 21 प्रतिशत भाग दलितों के हिस्से है। यहाँ अधिकांश झगड़े जमीन को लेकर होते हैं। वहाँ के सवर्ण लोग को यह अच्छा नहीं लगता कि एक दलित किसी तरह भी जमीन का मालिक बने। भले ही उसकी जमीन काफी छोटी हो या फिर बंजर ही क्यों न हो। दूसरी ओर यदि कोई दलित व्यक्ति सवर्ण के इलाके में सज-धजकर कहीं निकलता है, तो यह भी सवर्णों को गवारा नहीं। बात यहाँ तक होती, तो समझ में आ सकता है। इस प्रजातांत्रिक देश में ऐसा बहुत कुछ हो रहा है, जिस ओर ध्यान दिया जाना चाहिए। यदि किसी दलित की शादी ाहे रही हो, तो उसकी बरात सवर्णों के इलाके से नहीं गुजर सकती। यही नहीं, उस इलाके में दलित डांस नहीं कर सकते। वहाँ पटाखे नहीं चला सकते। उस स्थान पर खुशियाँ नहीं मना सकते। इसके बाद भी सरकार की ओर से कभी कोई ऐसी कार्रवाई नहीं होती, जिससे लोगों को सबक मिले। हद तो तब हो गई, जब एक दलित विद्यार्थी प्रतियोगी परीक्षा में पूरे जिले में प्रथम आया। माता-पिता खुशी से झूम उठे। यह खुशी तब और दोगुनी हो गई, जब यह पता चला कि समीप के जिले में उनका बेटा कलेक्टर हो गया है। तब वे मिठाई लेकर लोगों का मुँह मीठा करने निकल पड़े। खुशी के मारे वे वहाँ के जमींदार के घर पहुँच गए। जिनके खेत में जिसने कभी मजदूरी की हो, वही मजदूर आज उनके सामने मिठाई का डिब्बा लेकर उनका मुँह मीठा करने के लिए आए हों, तो यह एक जमींदार के लिए शर्म की बात थी। बस फिर क्या था... हवेली में मिठाई देने की तेरी हिम्मत कैसे हुई? अपनी औकात तो देख लेते। इस जुमले के साथ मिठाई का डिब्बा तो फेंका ही, उसके बाद उन दलितों की जो धुनाई हुई, उससे किसी फिल्मी जमींदार के अत्याचार जीवंत हो उठे। ऐसे मिली उस दलित माता-पिता को खुशियाँ बाँटने की सजा!
ऐसा केवल उत्तर प्रदेश में ही होता है, ऐसी बात नहीं है। बिहार की स्थिति भी काफी भयावह है। वहाँ नीतिश कुमार के राज में भी अत्याचारों का सिलसिला थमा नहीं है। 2008 में वहाँ दलितों पर अत्याचार के 2786 हुए। उत्तर प्रदेश हो या फिर बिहार। इंडियन पेनल कोड की सभा धाराएँ यहाँ के अपराध के आगे खामोश हो जाती हैं। हत्या, बलात्कार, मारपीट, लूटपाट, झोपड़े जलाना, जल आपूर्ति रोक देना, इतने अधिक ब्याज पर कर्ज देना कि पीढिय़ों तक न चुका सके। इस संबंध में बिहार महादलित संघ के अध्यक्ष विश्वनाथ ऋषि कहते हैं कि सामान्य रूप से दलितों पर जो अत्याचार होते हैं, तब अत्याचार निवारण की धारा 1989 के तहत एफआईआर दर्ज होनी चाहिए, पर पुलिस के तटस्थ न रहने से वह इसमें फेरबदल कर देती है और मामला साधारण बन जाता है। यदि सब कुछ सही तरीके से हो, तो अत्याचारी को उस कानून के तहत अत्याचार सहन करने वाले को मुआवजा दिया जाना चाहिए। पर पुलिस ऐसा होने कहाँ देती है।
उत्तर प्रदेश और बिहार के बाद यदि आंध्र प्रदेश चला जाए, तो वहाँ तो पूरा इतिहास ही काला है। सन 2007 में वहाँ दलितों पर होने वाले अत्याचारों का आँकड़ा 3383 था, इसमें 103 बलात्कार के और 46 हत्या के मामले थे। यहाँ याद रखने वाली बात यह है कि ये आँकड़े नेशनल क्राइम ब्यूरो के रिकॉर्ड के अनुसार हैं। पुलिस की डायरी में जो गुनाह दर्ज हैं, उसका जिक्र इसमें नहीं है। कई मामले तो पुलिस अपने तईं ही रफा-दफा कर देती है। इस मामले में पुलिस की भूमिका अहम है। अत्याचार के मामले में वह भी कम नहीं है। फिर बिहार की पुलिस का क्या कहना। दलितों के पास सहन करने के सिवाय और कोई दूसरा रास्ता नहीं है। जिस दिन दलित अत्याचारों के सही आँकड़े संसद में रख दिए जाएँगे, तो एक प्रलयंकारी स्थिति पैदा हो जाएगी। खामोश हो जाएगा, नेताओं का वाणी विलास। मौन हो जाएगी, मानवता। विशाल से विशालतम हो जाएगी, दरिंदगी। इतना कुछ होने पर भी क्या हम गर्व से कह पाएँगे, मेरा भारत महान्!
डॉ. महेश परिमल
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आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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डॉ. साहब आपने सही मुद्दा उठाया है। कहने को तो हम आज़ाद हो गए हैं और भारत एक लोकतंत्र है। लेकिन भारतीय में पूंजीवाद का आगमन किसी क्रांति के जरिए नहीं बल्कि धीमे, कष्टदायी और क्रमिक विकास से हुआ। और यहां पूंजीवादी विकास के साथ साथ सामंती मूल्य मान्यताएं भी अक्षुण्ण रहीं। यही कारण है कि कहने को लोकतंत्र है लेकिन वास्तव में सामंती मूल्य मान्यताएं भारतीय समाज में जड़े जमाये हुए हैं। और आज भी दलितों पर हो रहे अत्याचार लोकतंत्र के इस पाखंड की पोल खोलते हैं। जो दलित आर्थिक रूप से समृद्ध हो गए उन्हें भी व्यापक दलित आबादी की चिंता नहीं है, बस उनकी चिंता तो यही है कि आर्थिक समृद्धि के बाद उन्हें औरों के बराबर स्थान नहीं दिया जाता। ये लोग दलित-दलित का हल्ला भी सिर्फ अपने हित में मचाते हैं, व्यापक दलित आबादी के हित में नहीं। उस पर से चंद्रभान प्रसाद जैसे दलित बुद्धिजीवी भी हैं, जिन्हें अमेरिकी पूंजीवाद का मॉडल आदर्श लगता है और वे यह भूल जाते हैं कि नस्लीय हिंसा और भेदभाव में अमेरिका भी पीछे नहीं है।
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