मंगलवार, 21 जुलाई 2009
जहर उगलती मशीनें हमारे आसपास
डॉ. महेश परिमल
बचपन में 'विज्ञान: वरदान या अभिशापÓ पर निबंध लिखने को कहा जाता था। जिसमें हमें विज्ञान से मिलने वाली सुविधाओं के बाद उससे होने वाली हानियों के बारे में बताना होता था। निबंध की शैली ही हमें अधिक अंक मिलते थे। बाकी तथ्य तो वही रहते थे। उस समय विज्ञान की हानियों पर भी विचार किया जाता था। आज जब इसी विज्ञान को नए सिरे से समझने की कोशिश की, तब पता चलता है कि आज विज्ञान निश्चित रूप से हमारे ही लाभकारी है, पर इसके विनाशक रूप पर चर्चा तक नहीं होती। हर कोई इसे सहजता से स्वीकार कर रहा है। पर इसके विनाशक रूप को अनदेखा कर रहा है। अब कितने लोगों को यह पता है कि फोटो कॉपी मशीन, ए.सी.,फेक्स मशीन, लेजर प्रिंटर ये सब स्वास्थ्य के लिए अत्यंत हानिकारक हैं। इसे समझते हुए ऑफिस का कोई कर्मचारी अपने बॉस से यह कहे कि सर ऑफिस से इस जेराक्स मशीन से मेरी आँखों में जलन होती है, सर दर्द करता है, आप इस मशीन को यहाँ से हटा दें, तो क्या बॉस उस कर्मचारी की बात मानेंगे? निश्चित रूप से इस तरह की शिकायत करने वाले कर्मचारी की छुट्टी हो जाएगी। पर यह सच है कि यदि एक कर्मचारी को इस तरह की शिकायत है, तो निश्चित रूप से उस ऑफिस का वातावरण ऐसा है, जिसमें हवा बाहर जाने की व्यवस्था नहीं होगी।
हाल ही में अँगरेजी पत्रिका 'सेमिनारÓ द्वारा विज्ञान के तमाम शोधों के विपरीत असर पर एक परिसंवाद आयोजित किया गया। इस परिसंवाद में यह विचार किया गया कि विज्ञान के नए-नए शोध विश्व में किस तरह से समस्याएँ पैदा कर रहे हैं। विज्ञान की न जाने कितने अविष्कार ऐसे हैं, जो पहली नजर में हमें अत्यंत लाभकारी दिखाई देते हैं। उससे होने वाली हानियाँ तो उसके इस्तेमाल के बाद ही पता चलती हैं। आज मोबाइल से होने वाली हानियों के बारे में लोग सतर्क हुए हैं। अब वे इससे होने वाली नुकसान से बचने की कोशिश भी करने लगे हैं। अब मोबाइल कंपनियाँ ऐसे फोन बाजार में ला रही हैं, जिससे शरीर पर कम से कम नुकसान होता है। पर क्या एक-एक व्यक्ति को यह बताने जाना होगा कि उनके आसपास जो वातावरण है,उससे भी उसके शरीर को नुकसान पहुंच रहा है। अब शायद ही कोई ऐसा ऑफिस होगा, जहाँ फेक्स मशीन और लेजर प्रिंटर का इस्तेमाल न होता हो। अब तो यह सामान्य बात हो गई है। पर इससे होने वाले नुकसान की बात सामान्य नहीं है। यह मशीनें हमारे शरीर को किस तरह से नुकसान पहुँचाती हैं, आइए जानें:-
पहले हम प्लेन पेपर फोटोकॉपियर की बात करें। इस मशीन में ओरिजनल दस्तावेज के ऊपर लाइट फेंकी जाती है, इस प्रतिबिम्ब फोटोरिसेप्टर पर पड़ता है, जो विद्युत चार्जयुक्त ड्रम के बेल्ट के स्वरूप में होता है। इस ड्रम का निचला भाग प्रकाश के प्रति संवेदनशील होता है। उस पर जब कोई प्रतिबिम्ब पड़ता है, तब उसके ऊपर विद्युत के चार्ज के पेटर्न में बदलाव होता है, जिससे आकृति उत्पन्न होती है। यह आकृति इलेक्ट्रॉनिक चार्ज टोनर को आकर्षित करती है। जो उष्णता और दबाव के साथ कागज पर उसकी छाप छोड़ती है।
फोटो कॉपियर, एक्स रे मशीन, वेल्डिंग मशीन जब काम करती हैं, तब ओजोन नामक जहरीली गैस पैदा करती हैं। ऑक्सीजन वायु में ऑक्सीजन के दो परमाणु होते हैं, जबकि ओजोन में तीन परमाणु होते हैं। ओजोन बहुत ही अस्थायी वायु है और ऑफिस के वातावरण में उसकी हाफ लाइफ 6 मिनट ही होती है। अर्थात 6 मिनट में ही ओजोन के आधे अणुओं का विघटन हो जाता है। ओजोन वायु की सुगंध बहुत ही मीठी होती है। यह वायु ऑफिस या घर के वातावरण में हर दस लाख अणुओं के एक से अधिक होती है। इससे स्वास्थ्य के लिए खतरा उत्पन्न होता है। फोटोकॉपियर में ही अल्ट्रावायलेट बल्व होता है, उसके कारण ड्रम के चार्जिंग और डिस्चार्जिंग की प्रक्रिया के कारण ओजोन गैस पैदा होती है। आकृति ड्रम में से टोनर में जाती है, तब ओजोन पैदा होती है।
यदि बरामदे में फोटोकॉपियर मशीन है और वहाँ हवा के आने-जाने की समुचित व्यवस्था नहीं है, तो वहाँ पर ओजोन गैस की मात्रा बढ़ जाती है। हवा में ओजोन की मात्रा 25 पीपीएम (दस लाख अणुओं में ओजोन का अणु) जितना बढ़ जाए, तो उससे आँखों में जलन होने लगती है, यही नहीं गले, साँस की नली और फेफड़ों को भी नुकसान पहुँच सकता है। दूसरे अन्य नुकसानों में सरदर्द, साँस लेने में तकलीफ, बेचैनी भी हो सकती है। कुछ समय के लिए हृदयगति पर भी असर होता है। ओजोन गैस की मात्रा 10 पीपीएम के ऊपर पहँुच जाए, तो भी स्वास्थ्य को गंभीर नुकसान पहुँच सकता है।
हमारे देश में कई स्थानों पर जेराक्स मशीन ऐसे स्थानों पर रखी गई हैं, जहाँ जगह छोटी है, सामान फैला हुआ है, हवा के आने-जाने की समुचित व्यवस्था नहीं है, ऐसे स्थानों पर ओजोन की मात्रा अधिक हो जाती है, जो वहाँ पर उपस्थित लोगों के स्वास्थ्य को गंभीर रूप से प्रभावित करती है। मशीन के पास खड़े रहने वाले व्यक्ति को यह ओजोन गैस बुरी तरह से प्रभावित करती है। ऐसे लोग अल्पायु होते हैं। इन्हें त्वचा कैंसर का भी खतरा बढ़ जाता है। ड्रायकॉपियर में पॉवरयुक्त टोनर का इस्तेमाल किया जाता है। यह पावडर अनेक प्रकार के कार्बन में से बनाया जाता है। इस पावडर में 10 प्रतिशत कार्बन ब्लेक होता हैऔर उसे पोलिस्टर रेजिन के साथ मिलाया जाता है। फोटो कॉपियर यदि पूरी तरह से सुरक्षित न हो, तो उसका पावडर बाहर आकर हवा में फैल जाता है, जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। टोनर के बारीक कण साँस नली में जाकर अटक जाते है, जिससे खाँसी शुरू हो जाती है और जलन होने लगती है, छीकें आने लगती हैं। कुछ टोनरों में नाइट्रोपाइरिंस और ट्राइनाइट्रोफ्लोरीन जैसे जहरीले रसायन होते हैं। ऐसे रसायनों के सम्पर्क में आने वाले व्यक्ति को कैंसर की संभावना बढ़ जाती है। इन दिनों जिस तरह के टोनर इस्तेमाल में लाए जा रहे हैं, उसमें पॉलिमर प्रकार का प्लास्टिक रेजिन का इस्तेमाल होता है। इन रसायनों के कारण चमड़ी पर फफोले पड़ जाते हैं और आँखों में जलन होने लगती है।
फोटो कापियर में लाइट के लिए फ्लोरोसेंट बल्व या क्वाट्र्ज लेम्प का इस्तेमाल किया जाता है, यदि इस प्रकाश को सीधा देखा जाए, तो आँखों में जलन होने लगती है, सर दर्द भी हो सकता है। इस मशीन से गर्मी भी निकलती है। यदि इस गर्मी को बाहर निकालने की समुचित व्यवस्था न हो, तो उस क्षेत्र का तापमान बढ़ सकता है। कई बार पेपर फँस जाने पर जब मशीन को खोला जाता है, तो उसकी गर्मी से खोलने वाला जल भी जाता है। यही हाल फेक्स मशीन, लेजर प्रिंटर का है, इसमें भी टोनर, बल्व का उपयोग होने से ओजोन गैस, कार्बन के रजकण, अल्ट्रावाइलेट लाइट, गर्मी आदि की समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। आखिर इन समस्याओं को लेकर हम कितने जाग्रत हैं। यह सोचने की बात है। कितने लोग हैं, जो इन तमाम मशीनों के उपयोग के बाद उससे होने वाले नुकसान से वाकिफ हैं। कितने लोग ऐसे हैं, जो इन मशीनों पर कुशलता के साथ काम कर सकते हैं? किसी भी मशीन के पास खड़े होकर इसका अंदाजा आराम से लगाया जा सकता है।
इस तरह से देखा जाए, तो हमारे आसपास न जाने कितनी ही चीजें ऐसी हैं, जिनसे हमारे स्वास्थ्य को गंभीर खतरा है, पर उस खतरे से अभी तो हम वाकिफ नहीं हैं, पर यदि हम इस दिशा में सचेत नहीं हुए, तो निश्चित रूप से ये विज्ञान के ये तमाम अविष्कार हमें और अधिक नुकसान पहुँचाएँगे, इसमें कोई शक नहीं।
डॉ. महेश परिमल
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आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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सच में आपके इस लेख को पढ़कर मैं डर गई हूँ। मेरा ऑफ़िस बेसमेन्ट में है और हम दिन भर यही एसी में बैठे रहते हैं। ऐसे में क्या ये हमारे स्वास्थय के लिए नुक्सानदायक है।
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