गुरुवार, 30 जुलाई 2009
छत्तीसगढ़ की संस्कृति
विनोद वर्मा
पांच हजार वर्षों के इतिहास में छत्तीसगढ़ का निर्माण अलग-अलग जातियों, जनों और संस्कृतियों से हुआ. कालखंडों के हिसाब से देखें तो ३५०० ईसा पूर्व ऑस्ट्रिक समूह के लोग छत्तीसगढ़ पहुंचे. यह समूह ऑस्ट्रेलिया से आया. ये लोग पूर्वी भारत से होकर यहां पहुंचे. इसके बाद यानी २५०० ई.पूर्व द्रविड़ समूह के लोग आए. ये लोग सिन्धु क्षेत्र से यहां आए थे. इतिहासकार १५०० ईसा पूर्व को आर्यों के आगमन का समय मानते हैं. इन सबने मिलकर छत्तीसगढ़ का समाज तैयार किया.
ऑस्ट्रिक व द्रविड़ समूह के जो लोग बस्तर व सरगुजा के जंगलों में रह गए वे जनजाति के रूप में वर्ग विहीन समाज में रह गए. जो मैदानी हिस्सों में पहुंच गए, वे वर्ग विभाजित समाज में आ गए. इस सभ्यता में अपनी विसंगतियां थीं, अपने विरोधाभास थे. धार्मिक या जातीय कट्टरवाद छत्तीसगढ़ की संस्कृति का हिस्सा कभी नहीं रहा. वह आमतौर पर बाहरी तत्वों को आत्मसात करने की सहज प्रवृत्ति में रहा है.
इस खुलेपन का असर संस्कृति पर साफ़ दिखाई देता है. छत्तीसगढ़ में जैसी सांस्कृतिक विविधता है वैसी कम ही जगह दिखाई देती है. एक ओर जनजातीय सांस्कृतिक विरासत है तो दूसरी ओर जनजातियों से इतर जातियों के बीच पनपी संस्कृति है. एक ओर घोटुल है तो दूसरी ओर पंडवानी है, नाचा है, रहस है और पंथी नृत्य है. कबीर से लेकर गुरुघासीदास तक की एक समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा भी यहीं हैं.
छत्तीसगढ़ का समाज आमतौर पर एक नाचता गाता समाज है जो अपनी ज़िम्मेदारियों को भी इसी नाच-गाने के बीच सामूहिक रुप से उठाता रहा है. गीत इस समाज के लिए जीवन का हिस्सा है और नाच किसी अनुष्ठान की तरह पवित्र कार्य.
आमतौर पर छत्तीसगढ़ में ऐसी सांस्कृतिक गतिविधियाँ कम हैं जिनमें स्त्री और पुरुषों की भागीदारी बराबरी की न हो. संकोची प्रवृत्ति के होने के बावजूद आदिवासी भी हर गतिविधि में महिलाओं की भागीदारी को बराबर बनाए रखते हैं. मैदानी इलाक़ों में स्वाभाविक रुप से थोड़ा बदलाव आया है लेकिन स्त्रियाँ अभी नेपथ्य में नहीं गई हैं. राजस्थान, बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे हिंदी भाषी प्रदेशों की तुलना में छत्तीसगढ़ में महिलाओं को लेकर ज़्यादा खुलापन है और उन्हें बराबरी के स्वाभाविक अधिकार कमोबेश मिले हुए हैं. वह घूंघट में रहने और अपनी बात न कह पाने जैसी मजबूरियों में नहीं होती.
खान-पान में ऐसी विविधता है कि आश्चर्य होता है. हालांकि ये स्वाभाविक दिखता है क्योंकि एक बड़ा हिस्सा अभी भी जंगल के इलाक़ों में रहता है. आमतौर पर चावल और चावल से बने व्यंजनों से ही जीवन चलता है.आत्मसात करने वाला समाज
लोक कलाओं व लोक परंपराओं के बीच छत्तीसगढ़ की अपनी एक अलग सांस्कृतिक छवि है. इस छवि में वह जनजातियों के बीच शहर से आने वाले प्रजातियों को आत्मसात करता रहा है. आक्रांताओंठ ने इसे बार-बार दबाया, कुचला, उसकी छवि को बदलने की कोशिश की, परन्तु छत्तीसगढ़ ने अपना विरोध अत्याचार के विरोध तक सीमित रखा. आदिवासियों के भूमकाल को छोड़ दें तो कभी इस धरती से किसी को हटाने का प्रयास नहीं किया. चाहे वे दक्षिण से आए लोग हों या उत्तर से, जो आया उसे छत्तीसगढ़ने आत्मसात कर लिया.बहुत सी जातियां तो यहां की होकर रह गईं और कुछ ने आग्रह पूर्वक अपनी पुरानी पहचान बनाई रखी. यही कारण है कि छत्तीसगढ़की परंपराओं व खान-पान का संबंध देश के कई हिस्सों से जुड़ता है.
इन सबके बीच यह ज़रुर हुआ कि छत्तीसगढ़ के लोगों में निजता का भाव कभी पैदा न हो पाया और इसके चलते वे अपनी धरती से जुड़े होने का गौरव कभी नहीं हासिल कर सके. इससे वे अपने आपको शोषण का शिकार पाते रहे और उनमें हीनता की भावना आ गई. छत्तीसगढ़राज्य का आंदोलन जितनी बार उभरा चाहे वो 1967 हो या 1999 हर बार यह “छत्तीसगढ़िया” और “गैर-छत्तीसगढ़िया” के सवाल पर अटका. आज जब छत्तीसगढ़राज्य बन चुका है यह सवाल फिर समाज के सामने मुंह बाए खड़ा है. इसके पीछे राजनीतिक समीकरण भी हैं पर यदि राजनीतिक समाज ने सामाजिक समाज के समीकरणों को बदला तो यह कोई अच्छा परिवर्तन तो नहीं ही होगा.
विनोद वर्मा
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दृष्टिकोण
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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