
डॉ. महेश परिमल
हमारे आसपास ऐसे बहुत से विधायक मिल जाएँगे, जो कभी साधारण-सी नौकरी करते थे। किंतु विधायक बनने के बाद नौकरी तो दूर उन्होंने कुछ भी करने की नहीं सोची। इसके विपरीत उनके ठाट-बाट देखने लायक हैं। कई विधायक तो बड़ी-बड़ी नौकरियाँ छोड़कर विधायक और सांसद बन गए हैं। अब उन्हें ही नहीं, बल्कि उनके कई पुश्तों को नौकरी की आवश्यकता नहीं है, क्यांेकि वे काफी कुछ बटोर चुके हैं। यह एक चित्र है, लेकिन दूसरा चित्र बड़ा ही विचित्र है। राजस्थान में एक विधायक ने अपनी सीट खाली करने का फैसला किया है। धौलपुर के बसेड़ी के विधायक सुखराम कोली शिक्षक बनकर स्कूल में पढ़ाना चाहते हैं।
सुखराम कोली के घर के बेडरूम में कूलर नहीं है। मनोरंजन के लिए एक छोटा सा ब्लैक एंड व्हाइट टीवी है। विधायक को आवास के रिनोवेशन के लिए लाखों रुपए मिलते हैं लेकिन सुखराम ने एक पाई भी खर्च नहीं की। 2008 में धौलपुर के बसेड़ी से पहली बार विधायक बने कोली दो साल में ही राजनीति से आजीज आ गए। उन्होंने स्कूल में शिक्षक बनने के लिए इम्तिहान भी दिया है। सुखराम कोली के मुताबिक उन्हें विधायक बनने के बाद समझ में आया कि विधानसभा में जनता की समस्याओं का समाधान नहीं होता, इसलिए उन्हें लगा कि ये पद छोड़ देना चाहिए। वे मानते हैं कि विधानसभा में जनता की समस्याओं पर कोई बात नहीं होती। एक विधायक के नाते यदि वे जनता की समस्याओं पर कुछ कहना चाहते हैं, तो उन्हें बोलने का अवसर ही नहीं दिया जाता। मात्र आधा बीघा जमीन के मालिक सुखराम कोली कहते हैं कि एक शिक्षक बन जाने के बाद यदि मैं 100 लोगों को शिक्षित कर पाऊँ, तो मेरी सबसे बड़ी सफलता होगी। विधायक रहते हुए मैं किसी का भला नहीं कर सकता। यह मेरा विश्वास है।
आज जहाँ विधायक केवल धन बटोरने के लिए ही जाने जाते हों, वहाँ सुखराम कोली एक ऐसी मिसाल के रूप में हमारे सामने आए हैं, जिन्होंने राजनीति का घिनौना चेहरा देख लिया है। सचमुच आज राजनीति का चेहरा दिनों-दिन बदरंग होता जा रहा है। ये एक ऐसी काजल की कोठरी है, जहाँ से कोई बेदाग नहीं निकल सकता। लेकिन सुखराम कोली जैसे मात्र कुछ ही लोग होंगे, जिन्हें राजनीति रास नहीं आई। सुखराम ने तो अपना मत बताकर अपना रास्ता चुन भी लिया। दूसरे रास्ते पर जाने के लिए वे प्रयासरत हैं। दूसरी ओर ऐसे अनेक विधायक इसे अच्छी तरह से समझते हैं, फिर भी इस दलदल से नहीं निकल पा रहे हैं। उन्हें सुविधाएँ रोक रहीं हैं। ऐसी सुविधाएँ भला किस नौकरी में है? कई चाहते तो होंगे, पर निकलने का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं।
राजनीति का दलदल बहुत ही फिसलनभरा है। यहाँ एक कदम आगे बढ़ने के लिए दो कदम पीछे भी हटना पड़ता है। जिन संकल्पों के साथ इस क्षेत्र में प्रवेश होता है, वे धरे के धरे रह जाते हैं। सारे वादे और आश्वासन बेमानी लगने लगते हैं। विधायक-सांसद होकर जनता से दूर रहना उनकी विवशता हो जाती है। जिन समस्याओं को हल करने का वादा लेकर उन्होंने जनता का विश्वास जीता, वे समस्याएँ उन्हें अपनी समस्याओं से काफी छोटी लगने लगती हैं। बस चुनाव की घोषणा होते ही सब कुछ बदलने लगता है। फिर वही समस्याएँ विकराल रूप धारण कर लेती हैं। इनके निराकरण का संकल्प याद आने लगता है। भूले हुए वादे याद आने लगते हैं। अपने आपको एक आम आदमी माना जाने लगता है। यह अभिनय कुछ समय तक चलता हे। इसमें जिसने अच्छा अभिनय किया, उसे फिर पाँच साल का अभयदान मिल जाता है। यही सिलसिला चलता रहता है। बरसों से चल रहा है। जनता मूर्ख है, यह इसी से सिद्ध होता है। बार-बार छले जाने के बाद भी कोई आखिर कितना बेवकूफ हो सकता है, यह भारत की राजनीति से ही जाना जा सकता है।
राजनीति में कोई किसी का अपना नहीं होता। पर एक बात सच है। जब भी विधायकों-सांसदों के वेतन-भत्ते बढ़ने की बात आती है, सब एक हो जाते हैं। अपना वेतन-भत्ता बढ़ाने का अधिकार इन्हीं के पास है। यही तय करते हैं कि एक कर्मचारी को कितने साल में रिटायर्ड होना चाहिए। भले ही इनकी आयु कितनी भी हो। एक कर्मचारी की सेवानिवृत्ति की आयु तय करने वाले कभी स्वयं की सेवानिवृत्ति की आयु तय नहीं कर पाते। शरीर जीर्ण-शीर्ण हो जाता है, फिर भी पद से चिपके रहते हैं। हाथ-पाँव काम करना बंद कर देते हैं, फिर भी न तो विधायकी छूटती है, न सांसदी। मरणोपरांत भी सुविधाएँ तो मिलती ही रहती हैं, उन्हें न सही परिवार वालों को ही सही। राजनीति के इस मोहपाश से हर कोई छूट नहीं सकता। बिना किसी जिम्मेदारी के काम के साथ इतनी सारी सुविधाएँ भला किसे रास नहीं आएँगी। प्रत्येक संस्थान में जब कर्मचारियों का वेतन बढ़ता है, तो उनकी जवाबदारी भी बढ़ जाती है। लेकिन यही एक ऐसा पद है, जिसमें जिम्मेदारी तो तय नहीं है, लेकिन वेतन-भत्तों के रूप में मिलने वाली राशि बेशुमार है। सुखराम कोली के साहस को सलाम। ताकि दूसरे भी समझ सकें, आम आदमी का दर्द। जो न समझें, उनकी बला से। रहें सुख-सुविधाओं के बीच। करते रहें देश को बरबाद। क्या फर्क पड़ता है?
डॉ. महेश परिमल