सोमवार, 7 दिसंबर 2009

जनता कौन-सा तरीका अपनाये ?

सुधीर मोता
राजनेताओं पर जूता फेंकने की घटनाओं पर यह एक बहुत विलंबित प्रतिक्र्रिया हो सकती है , मगर इस नये प्रक्षेपास्त्र पर बहुत धीरज और बारीक नजर से सोचने देखने की जरुरत है । इन घटनाओं की वैसे अधिकतर निंदा ही की गई है और लोकतंत्र और षालीनता के दृष्टिकोण से सोचने पर सामान्यतः कोई भी इनके पक्ष में खड़ा नहीं होगा । प्रष्न यह उपस्थित होता है कि अपनी बात को पुरजोर रखने और यदि वह नैतिक और प्रजातांत्रिक तरीके से सही है तो उसे मनवाने के लिये जनता कौन-सा तरीका अपनाये ?
हमारे चुनाव जातिगत और सांप्रदायिक संतुलन का खेल भर हो कर रह गये हैं और इसीलिये जनप्रतिनिधियों को जनता की नाराजगी का कोई भय नहीं रह गया है । सड़क पानी बिजली की समस्यायें जितना विकराल रुप ले रहीं हैं हमारे राजनेता और अफसर उतने ही ढीठ और संवेदना षून्य होते जा रहे हैं। आप आये दिन परेषान होते हैं रेलवे फाटक पर लगने वाले जाम से । प्रषासन को कोई जल्दी नहीं वहां अंडरब्रिज बनवाने की । जबकि सारी योजना स्वीकृत है । इस मार्ग से आम जनता , विद्यार्थी , मरीज गुजरते हैं , वे रोज परेषान होते हैं , कोई चिंता करने देखने सुनने वाला नहीं है। आप सड़क पर चक्का जाम कर दीजिये , हजारों लोग परेषान होंगे प्रेस का जमघट पहुंच जायेगा तब प्रषासन वहां खुद चल कर आयेगा , तुरंत आपकी समस्या का हल ढूंढ भी लेगा और निराकरण भी हो जायेगा। बच्चे के रोये बिना मां दूध नहीं पिलाती - यह कहावत न जाने कितनी बार दोहराई गई होगी । हमारा प्रषासन तब तक नहीं जागता जब तक आम जनता का आक्रोष लावा बन कर नहीं फूटता । हमारे पास जो मषीनरी है उसके पास ऐसी कोई आंख नहीं है जो स्वयं निरंतर देखती रहे और स्वतः चलती रहे । वह ज्यादातर रुकी रहने की अभ्यस्त है । उसके सर पर हथौड़ा मारिये वह मषीन चलने लगेगी ।
दरअसल में हमारे राजनेता और अफसर उस जीवन से बहुत दूर चले गये हैं जो आम जनता जी रही है । न उन्हें सामान्य दर्जे में सफर करना होता है न उनके लिये बिजली पानी की कोई समस्या है । नौकर चाकरों की लम्बी फौज और मुफ्त मिल रही सुविधायें उन के संवेदना चक्षुओं को षून्य कर चुकी हैं। दंगे फसादों के समय भी प्रायः वे उन सारे र्मािर्मक एवं दारुण अनुभवों से बचे रह जाते हैं जिन्हें आम जन सामने रह कर भोगता है । जन समस्याओं से सम्बंधित फरियादें भी उन पर असर डालना छोड़ चुकी हैं । फिर किस तरह से हम उन्हें नींद से जगायें
और वाह रे हमारे लोकतंत्र ! जगदीष टाइटलर 1984 के बाद भी निरंतर अपनी पार्टी की आंख का तारा बने रहे । जबकि उन्हें कानूनी तौर पर कोई क्लीन चिट नहीं मिली थी । एक व्यक्ति द्वारा जूता फेंके जाने पर वे आंख की किरकिरी बन गये , जबकि सी बी आई उन्हें गेटपास दे चुकी थी । क्या जूता मारे जाने का इंतजार किया जा रहा था ? मीडिया में प्रकाषित लेखों और इलेक्टृानिक मीडिया में चर्चाओं में बेहद चतुराई से इस घटना पर प्रतिक्रिया दी गई । गोया षालीनता के पहरुये जाग गये। मैं व्यक्तिगत तौर पर इस नये प्रक्षेपास्त्र का स्वागत करता हूं , जिसमें एक बूंद खून की नहीं बही और काम हो गया । काष यह राह पहले मिल गई होती तो हम राजनीतिक हत्याओं और उनके बाद की घटनाओं से बच जाते । नक्सलवाद जैसे आंदोलन भी यदि ऐसी ही कोई राह पकड़ लें तो जाने कितने बेकसूरों की जानें बच जायेंगी । बंदूक के घोड़े के बरक्स इस जोड़े (जूते) से यदि काम चलता है तो यही सही । जब तक हमारे राजनेता और अफसर इसके प्रति भी निर्लज्ज नहीं हो जाते तब तक यही सही ।
सुधीर मोता

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