गुरुवार, 31 दिसंबर 2009
ठंड का समाजवाद
डॉ महेश परिमल
बारिश का ठंड से गहरा नाता है। कहते हैं कि जब बारिश अच्छी होती है, तब ठंड भी अधिक पड़ती है। इस बार तो बारिश अच्छी हुई है, तो फिर कैसे कटेगा किटकिटाती ठंड का सफर? इस बार तो कोई सहायता करने वाला भी नहीं है। पिछली बार माँ की साड़ी थी, जिसमें वह हमें हमारे ठंड का हिस्सा बाँट देती थी। एक कथरी ठंड हम दो भाइयों के बीच बँट जाती थी। पिछली बार ठंड ने तो नहीं, पर तेज बारिश ने माँ को हमसे जुदा कर दिया। पर इस बार कैसे बच पाएँगे हम दोनों भाई?
ये मेरे नहीं, उस मासूम के शब्द हैं, जो उसने कुछ दिनों पहले ही पुलिस थाने में अपने छोटे भाई के साथ बातचीत करते हुए व्यक्त किए थे। उस मासूम को स्टेशन में आवारा लड़कों के साथ चोरी करते हुए पकड़ा गया था। वह अपनी माँ के साथ मुरादाबाद से आया हुआ था। उसकी माँ बमुश्किल ही उन दोनों भाइयों को पाल रही थी। इस छोटी-सी उम्र में ही उसने मौत का मतलब जान लिया था। माँ मर गई, कहने में उसे ज़रा भी संकोच नहीं होता था। साल भर से वे दोनों रेल्वे स्टेशन पर ही पल-बढ़ रहे थे। सारी गंदी आदतों के साथ। उसका छोटा भाई भी अब दुनियादारी समझने लगा था। चोरी के आरोप में उन दोनों मासूमों को पुलिस ने पकड़ लिया था। वे यहाँ आकर इसीलिए खुश थे कि उन्हें आज के खाने के लिए मेहनत नहीं करनी पड़ेगी।
यह एक खतरनाक सच है। हमारे आसपास ही मँडराने वाला सच। 'स्कूल चलें हम के नारे को समझे बिना ये मासूम पूरी दुनियादारी का ककहरा समझ लेते हैं। गरीबी में रहते हुए ये अपनी आँखों में अमीर होने का सपना तो पाल लेते हैं, उसे पूरा करने के लिए स्टेशन जैसी सार्वजनिक जगहों पर आकर हर तरह के बुरे कार्य करते हैं। पैसे मिलने पर कभी वीडियो गेम, तो कभी जुआ भी खेल लेते हैं। कभी दु:खी हुए तो गाँजे-भाँग का सुट्टा भी मार लेते हैं। पूरे संसार का समीकरण इन्हें मालूम होता है। भविष्य की कोई चिंता नहीं होती इन्हें। ये जीते हैं, पूरी शान से।
ऐसे लोगों का दिन तो किसी तरह निकल ही जाता है। कभी इन्हें रात गुजारते देखा है किसी ने। पिताजी हमें अक्सर कहा करते कि जब हमें हमारा दु:ख बहुत बड़ा लगने लगे, तब हमें उन लोगों की तरफ देख लेना चाहिए, जिनके दु:ख हमसे भी बड़े हैं। इसे जानना हो, तो कभी कड़कड़ाती ठंड में रेल्वे स्टेशन जैसी सार्वजनिक जगहों पर जाकर देख लो कि लोग किस तरह ठंड गु$जारते हैं। कोई माँ अपने बच्चों को अपनी साड़ी से लपेट लेती है। कोई किसी जानवर के पास सोया हुआ है, गोया जानवर की गर्मी उसे मिल रही हो। शायद ऐसा ही जानवर भी सोचता है कि मुझे इससे गर्मी मिल रही है। ठंड और गर्मी के इस झगड़े में रात कट जाती है। सुबह फिर वही जिंदगी मुस्कराती हुई सामने खड़ी होती है।
ये है उन मासूमों की टूटी-फूटी जिंदगी का एक टुकड़ा। ये टुकड़ा लिहाफों से दिखाई नहीं देता। बहुत गर्मी देता है, शायद यह लिहाफ। तभी तो इससे छुटकारा पाते ही लोग खुद को आग के सामने खड़ा पाते हैं या फिर किसी हीटर के सामने। ठंड में गर्मी बटोरते ये लोग यह भूल जाते हैं कि ठंड में एक समाजवाद होता है। ठंड सभी को उतनी ही लगती है, लिहाफ ओढ़ लो, तो भी ठंड लगेगी, एक जीर्ण-शीर्ण कथरी को चार लोग मिलकर ओढ़ लें, तो भी ठंड उतनी ही पड़ेगी। ठंड का स्वभाव भी बड़ा जिद्दी है, इसे जितना दूर भगाओ, उतनी ही करीब आती है। यदि इसके सामने सीना तानकर खड़े हो जाएँ, तो यह कोसों दूर भाग जाएगी। पर ठंड का आना हमेशा से ही डरावना रहा है। इस बार भी ठंड आ ही गई,अब दाँत भी खूब किटकिटाने लगे हैं।
ठंड में एक बात और है कि ये ठंड भाईचारा बढ़ा देती है। दोनों भाई दिन में कितना भी झगड़ें, पर रात में दोनों को एक-दूसरे का साथ चाहिए। छोटा भाई तो जब तक बड़े भाई के गरम पेट पर हाथ नहीं रखता, उसे नींद नहीं आती। यही नहीं स्टेशन पर सब लोग बहुत ही करीब होकर सोते हैं। उनमें किसी प्रकार का भेदभाव उस वक्त दिखाई नहीं देता। यही वह मौसम होता है, जो लोगों की दरियादिली को भी बताता है। ठिठुरते मासूम को कोई इंसान अपने कंबल या फिर कोट, स्वेटर आदि ओढ़ाकर आगे बढ़ जाता है। लोग उसे देखते हैं, भीतर-ही-भीतर उसकी इस हरकत पर हँस भी देते हैं। लेकिन उसे तो आगे बढऩा होता है, वह आगे बढ़ जाता है। लोग उसका नाम जानना चाहते हैं, पर वह तो निकल जाता है।
यही वह मौसम होता है, जब खेतों में फसल अपने पूरे श्रृंगार के साथ किसान को लुभाती है। कुछ समय के लिए ही सही किसान सपने देख लेता है। 'पूस की रातÓ का हल्कू अनायास याद आ जाता है। किसानों की तपस्या का यही मौसम है। रात भर जागकर खेतों की रखवाली करना और जागी आँखों से ही सपने देखना। जिसमें बिटिया की शादी है, बच्चों की पढ़ाई है, पत्नी का इलाज है, सरकारी टैक्स है और है बीज-खाद। इसी क्रियात्मक रचना-संसार में किसान की सुबह का रुपहला सूरज ऊगता है और इंद्रधनुषी संध्या ढलती है। इसी अवधि में वह जीवन में आगे बढऩे की ऊर्जा प्राप्त करता है और अपनी जीवटता का परिचय देता है।
ये थी ठंड की बात। पर जो सबसे अधिक महत्वपूर्ण है, वह है, हमारे भीतर की सिकुड़ती गर्मी, जो हमें यह अहसास ही नहीं कराना चाहती कि ठंड जानलेवा भी हो सकती है, इसे आपस में बाँट लें, तो शायद उन मासूमों की घिसटती $िजंदगी में कुछ पलों के लिए ही सही, गर्मी का अहसास होगा। ठंड बच्चों और बुजुर्गों को ज्यादा लगती है। क्या हम उन्हें अपने हिस्से की गर्मी नहीं दे सकते? जरूरी नहीं कि वह गर्म कपड़ों के रूप में हो। आशा और विश्वास के रूप में भी हो सकती है, यह गर्मी। हमारा प्यार भरा हाथ उन मासूमों के सर पर चला जाए, बस उनकी तो $िजंदगी ही सँवर गई। इसी तरह बुजुर्गों के पास जाकर केवल उनके दु:ख-दर्द ही सुन लें, उनसे प्यार से बातें ही कर लें, उनके लिए तो यही है, सिमटती जिंदगी का एक ठहरा हुआ सच... ।
डॉ महेश परिमल
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आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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