
डॉ. महेश परिमल
ईश्वर दु:ख से मुक्ति दिलाते हैं, तो डॉक्टर दर्द से। इसीलिए डॉक्टर को ईश्वर का दूसरा रूप कहा जाता है। पीड़ा से कराहता व्यक्ति डॉक्टर में ईश्वर के दर्शन करता है। उसे पूरा विश्वास होता है कि अब मैं डॉक्टर के पास आ गया हूँ, अब तो निश्चित ही दर्द से छुटकारा मिल जाएगा। डॉक्टर और मरीज का संबंध वर्षों से है और रहेगा। मरीज का विश्वास ही डॉक्टर को आत्मबल प्रदान करता है। इसी आत्मबल के कारण वह हमेशा मरीजों की सेवा के लिए तत्पर रहता है। लेकिन अब इस पवित्र संबंध पर दवा कंपनियों की नजर लग गई है, अब डॉक्टर अपने धर्म को भूलकर मरीजों को ऐसी गैरजरूरी दवाएँ लेने की हिदायत दे रहे हैं, जिसकी उसे दरकार ही नहीं है। इन दवाओं से मरीज की जेब तो हल्की होती ही है, साथ ही उसके स्वास्थ्य के साथ भी खिलवाड़ होता है। दूसरी ओर इन्हीं दवाओं से डॉक्टर का घर भरता है और वह उन दवा कंपनियों से महँगे उपहार लेता है, विदेश यात्राएँ करता है, फाइव स्टार होटलों में पार्टी का मजा लेता है, यहाँ तक कि अपने बच्चों की बर्थ डे पार्टी या फिर शादी के बाद हनीमून का खर्च भी इन्हीं दवा कंपनियों से लेता है। ऐसे में उस डॉक्टर को कैसे कहा जाए कि यह ईश्वर का दूसरा रूप है? 'फोरम फॉर मेडिकल एथिक्स' नामक एक एनजीओ ने इस संबंध में कुछ चौंकाने वाले तथ्य पेश किए हैं, जिसमें डॉक्टरों और फार्मास्यूटिकल्स कंपनी के बीच होने वाले लेन-देन की जानकारी दी गई है।
मुम्बई के एक डॉक्टर ने अपने चिरंजीव की शादी की, हनीमून के लिए उसे स्वीटजरलैंड भेजा, लेकिन इसका खर्च उठाया, एक दवा कंपनी ने। इसी तरह एक डॉक्टर के बेटे के जन्मदिन की पार्टी का पूरा खर्च उठाया, एक दवा कंपनी ने। आखिर दवा कंपनी उन डॉक्टरों पर इतनी मेहरबान क्यों थी, कारण स्पष्ट है, ये वे डॉक्टर हैं, जो मरीजों को उन्हीं कंपनियों की दवाएँ लेने की हिदायत देते हैं, साथ ही मरीज को जिन दवाओं की आवश्यकता ही नहीं है, वे दवाएँ भी मरीज के परचे पर लिख देते हैं। अमेरिका की दवा कंपनियाँ डॉक्टरों को रिश्वत के रूप में करीब दस अरब डॉलर का बजट रखती हैं। इतनी बड़ी रकम आखिर आएगी कैसे? उसी के लिए ही तो ये मरीज बनाए गए हैं और उन्हें दवाएँ सुझाने वाले डॉक्टर। आखिर मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव्ह डॉक्टर से मिलने क्यों आते हैं? बस यही कि डॉक्टर को अपनी गिरफ्त में लेने के लिए। वरना यदि डॉक्टर को किसी दवा के बारे में जानना हो, तो इंटरनेट से सस्ता आखिर कौन सा माध्यम हो सकता है। ये दोनों मिलते ही हैं सौदेबाजी के लिए। डॉक्टर मरीज के परचे पर अधिक से अधिक दवाएँ लिखें, इसके लिए डॉक्टर को रिझाने के लिए कई तरह की रिश्वत दी जाती है। यह रिश्वत कई रूपों में हो सकती है। कभी डॉक्टर अपनी प्रेयसी या फिर परिवार के साथ विदेश यात्रा पर निकल जाता है, तब उसकी टिकट और होटलों की बुकिंग का सारा जिम्मा यही दवा कंपनियाँ लेती हैं। कई बार तो पूरा टूर ही कंपनी वहन करती है। इस तरह से उपकृत होने वाले डॉक्टर निश्चित रूप से उस दवा कंपनी को याद रखते हैं और उनकी दवाएँ मरीज के परचे पर लिख देते हैं। इस तरह के टूर के बाद डॉक्टर द्वारा प्रिस्काइब की जाने वाले दवाएँ बिकने की संभावना 4.5 से 10 गुना बढ़ जाती है। यही हाल दीपावली के समय होता है, जिस डॉक्टर के पास जितने अधिक गिफ्ट आते हैं, समझ लो वह डॉक्टर उतने ही अधिक फर्जी दवाएँ मरीजों को लेने का सुझाव देता है।

ये दवा कंपनियाँ बहुत ही दूरंदेशी होती हैं, इनकी नजर तमाम मेडिकल कॉलेजों में शुरू से ही रहती है। भावी डॉक्टर जब मेडिकल कॉलेजों में पढ़ते रहते हैं, तब ये दवा कंपनियाँ उनके पीछे पड़ जाती हैं। इन कंपनियों के प्रतिनिधि इनसे महीने में चार बार मिलते हैं, इस दौरान वे अपनी नई दवाओं के बारे में पूरी जानकारी डॉक्टरों को दे देते हैं। वास्तव में प्रतिनिधि इन दवाओं की बिक्री के बाद डॉक्टर के कमीशन की बात करते हैं। इसीलिए प्रतिनिधि डॉक्टरों से बार-बार मुलाकात कर डॉक्टर को अपने वश में करने की कोशिश करते हैं। आखिर बार-बार मिलने का कुछ तो असर होगा ही। दवा कंपनियों और डॉक्टर के बीच होने वाली यह मुलाकात कहीं भ्रष्टाचार की जड़ों को ही पुख्ता करती हैं। यदि सरकार डॉक्टरों और दवा प्रतिनिधियों की मुलाकात पर ही प्रतिबंध लगा दे, तो इस पर थोड़ा सा अंकुश तो रखा ही जा सकता है। इन दवा कंपनियों की नीयत यदि सचमुच साफ है, तो डॉक्टरों तक अपनी दवाओं की जानकारी इंटरनेट के माध्यम से भी दे सकते हैं। आखिर मुलाकात की क्या आवश्यकता है? यही मुलाकात ही तो है, जो डॉक्टरों की रिश्वत तय करती है।
फार्मास्यूटिकल कंपनियाँ अक्सर डॉक्टरों के लिए फाइव स्टार होटलों में काकटेल पार्टियों का आयोजन करती हैं। दिन भर चलने वाली इस पार्टी में सभी सुविधाएँ डॉक्टरों को मुहैया कराई जाती हैं। डॉक्टर इन पार्टियों का भरपूर उपभोग करते हैं। पूरे परिवार का मनोरंजन होता है। तबीयत तर हो जाती है। पार्टी के बाद दवा कंपनियों की तरफ से डॉक्टरों को महँगे उपहार दिए जाते हैं। हाल ही में मुम्बई के एक डॉक्टर के बारे में पता चला है कि वे रोज एक लेडिस बार में जाकर शराब पीया करते थे, उनका बिल एक दवा कंपनी अदा करती थी। बाद में पता चला कि वे डॉक्टर अपने उस बिल से 50 प्रतिशत अधिक धन दवा कंपनी को उनकी दवाओं के एवज में अदा कर देते थे, जो वे अपने मरीजों के प्रिस्क्रिप्शन पर लिख देते थे। भले ही उन दवाओं की दरकार मरीजों को न भी हो, पर ये डॉक्टर अपना यह काम पूरी ईमानदारी से कंपनी के लिए करते थे।
अब तो कुछ डॉक्टर दवा कंपनियों के एजेंट के रूप में काम करने लगे हैं। वे एक निश्चित केमिस्ट के यहाँ जितने परचे भेजते हैं, उसे एक अलग डायरी में नोट कर लेते हैं, महीने के अंत में डॉक्टर को अपने परचों के अनुसार केमिस्ट और दवा कंपनियाँ अपना कमीशन दे देती हैं। मरीज के लिए परचे पर दवा लिखकर डॉक्टर उससे कहते हैं कि दवा खरीदने के बाद दवाएँ उसे दिखा दें। डॉक्टर के क्लिनिक के पास ही जो मेडिकल स्टोर होता है, मरीज वहीं से दवा खरीदता है। दवा खरीदने के बाद मरीज उन दवाओं को दिखाने के लिए फिर डॉक्टर के पास जाता है, दवाएँ देखकर एक अलग डायरी में कुछ नोट कर लेता है। यह सब मरीज की ऑंखों के सामने होता है, पर दवा के बारे में उसका ज्ञान शून्य होता है, इसलिए वह कुछ कर नहीं पाता और डॉक्टर-दवा कंपनियों के बीच कठपुतली बनकर रह जाता है। डॉक्टरों के कमीशन के कारण ही दो रुपए में मिलने वाली दवा मरीज को दस रुपए में मिलती है। कई छोटी कंपनियाँ भी हैं, जो उच्च कोटि की दवा बनाती हैं, पर अपना प्रचार नहीं करती, उन कंपनियों की दवाएँ यदि गलती से मरीज खरीद ले, तो डॉक्टर उसे वापस करवा देते हैं, क्योंकि उस कंपनी से उसे किसी तरह की सुविधा या कमीशन नहीं मिलता। मरीज को जिन दवाओं की आवश्यकता ही नहीं है, उन दवाओं को खरीदकर मरीज अपनी जेब हल्की करता ही है, साथ ही अपने स्वास्थ्य के साथ भी खिलवाड़ करता है।
इस तरह से दवा कंपनियों की कठपुतली बने डॉक्टर मरीजों के साथ विश्वासघात कर आखिर किस तरह से समाज की सेवा कर रहे हैं? मरीजों और ग्राहकों के अधिकार के लिए लड़ने वाली तमाम सामाजिक संस्थाओं को इस गोरखधंधे के प्रति सजग होकर सरकार को नींद से जगाना होगा। ताकि डॉक्टरों को दवा कंपनियों से मिलने वाली तमाम भेंट सौगातों पर अंकुश लग सके। ऐसे डॉक्टरों पर कानूनी कार्रवाई भी होनी चाहिए। ऐसे डॉक्टरों का समाज से बहिष्कार हो, तब तो बात ही कुछ और होगी। क्या आज का सोया हुआ समाज इस तरह की कार्रवाई करने के लिए आगे आ सकता है? आखिर यह हमारे स्वास्थ्य और धन का सवाल है।
डॉ. महेश परिमल