सोमवार, 17 नवंबर 2008

आखिर सुख है कहाँ ?


डॉ. महेश परिमल
पिछले महीने से शुरू हुई विश्व आर्थिक मंदी ने अनेक करोड़पतियों को रोडपति बना दिया है। इस दौरान भारतीय मूल के लक्ष्मी मित्तल के शेयर के मूल्य में 2500 अरब की कमी हुई। मित्तल के निजी शेयर का मूल्य 3300 अरब रुपए से घटकर 800 अरब रुपए हो गया। इतना बड़ा झटका लगने के बाद भी उनके चेहरे पर शिकन तक नहीं आई। इसे भी उन्होंने निर्लिप्त भाव से स्वीकारा। इस झटके पर अपनी प्रतिक्रिया में उन्होंने कहा कि धन से आप सुख कभी नहीं खरीद सकते, सुख एक आंतरिक अनुभूति है। मैं इसी सुख पर विश्वास रखता हूँ। मेरे बिजनेस में जब भी कोई बड़ा घाटा होता है, तब मैं आशावादी हो जाता हूँ और जो परिस्थितियाँ पैदा होती हैं, उसे स्वीकार कर सुख से रहता हूँ। हमारे ऋषि-मुनि भी यही कहते हैं कि अधिक से अधिक चीजों को इकट्ठी कर और उसका उपयोग करने से सुख की प्राप्ति नहीं होती, बल्कि इन सब चीजों को प्राप्त करने की इच्छा से मुक्ति पाने से ही सुख की प्राप्ति होती है। इसके बाद भी लोग सुख की प्राप्ति के लिए न जाने कहाँ-कहाँ भटककर अपने वास्तविक सुख को खो देते हैं। प्रश्न एक बार फिर सामने आ खड़ा होता है कि आखिर सुख कहाँ है और उसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है?

कबीर कहते हैं 'बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोय, जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय', कबीर जी की इस वाणी को यदि हम सुख के पैमाने से देखें, तो यही हाल होगा कि हमसे बड़ा दु:खी कोई नहीं मिलेगा, सभी सुखी दिखाई देंगे। आज हमारे समाज में वे सबसे अधिक दु:खी हैं, जो अपनी तुलना अपने से बड़े से करते हैं। सामने वाला क्यों सुखी है, यही हमारा सबसे बड़ा दु:ख है। इसके अलावा दिखावा ही इस दु:ख का मूल है। भला, वह हमसे अधिक सुखी कैसे रह सकता है? यह अहम् भाव ही उसे भीतर से दु:खी कर जाता है। अपनी तुलना यदि हम अपने से कम आय वाले से करें, तो हमारे दु:ख का कोई कारण ही दिखाई नहीं देगा। मनुष्य की यही प्रवृत्ति होती है कि उसे दूसरों की थाली में अधिक घी दिखाई देता है। यदि थोड़ी देर के लिए मानव यह सोचे कि सामने वाला धन की प्राप्ति के लिए कितना संघर्ष कर रहा है, उतना ही संघर्ष मैं करुँ, तो मैं भी सुखी हो सकता हूँ, इस बात को स्वीकारते हुए भी वह उस संघर्ष के लिए अपने आप को कभी तैयार नहीं कर पाता। वह चाहता है कि मैं जितनी मेहनत कर रहा हूँ, बस उसी से मैं सामने वाले से अधिक धन की प्राप्ति करुँ। यह कैसे संभव हो सकता है?सच हमेशा कड़वा होता है, यदि यह कहा जाए कि आप कामचोर हैं, काहिल हैं, बेईमान हैं, आलसी हैं, तो इस आरोप को स्वीकार नहीं करेंगे। इन आरोपों को सुनकर आप भीतर से दहल भी सकते हैं। पर जरा रुककर सोचें कि क्या ये आरोप सच नहीं हैं? जब आप अपनी तुलना किसी सुखी व्यक्ति से करने जा रहे हैं, तो यह अवश्य सोच लें कि वह हमारी अपेक्षा कितनार् कत्तव्यनिष्ठ है, कर्मशील है, ईमानदार है और चुस्त है? इन सबमें में आप अपने को कहाँ कमजोर पाते हैं? कारण स्पष्ट हो जाएगा कि कहीं न कहीं आप में ऐसी कमी है, जो सामने वाले में नहीं है। आपकी इसी कमी को उसने समझते हुए अपने पास उस कमी को फटकने नहीं दिया और धान कमाता चला गया। आप केवल परिस्थितियों को दोषी मानते हुए अपना पल्ला झाड़ते रहे। दूसरों के दोष देखने में जितना समय आपने गँवाया, उससे आधा समय भी आपने अपनी कमी को दूर करने में लगाया होता, तो निश्चित आप हालात के नहीं, बल्कि हालात आपके गुलाम होते। आप में हालात को बदलने की शक्ति होती।

जो देश जितना समृद्रधा होता है, आवश्यक नहीं कि वह उतना ही सुखी हो, होता यह है कि जो देश जितना गरीब होता है, वह आर्थिक रूप से भले से सुखी न हो, पर मानसिक रूप से अवश्य सुखी होता है। आर्थिक रूप से समृध्दा देश अब मानसिक रूप से अधिक अशांत होने लगे हैं। हाल ही में विश्व आर्थिक मंदी के दौरान कुछ लोगों ने आत्महत्या कर ली। निश्चित रूप से करोड़पति थे, जो थोड़ी-सी भी हानि बर्दाश्त नहीं कर पाए। अर्थशास्त्री अब किसी भी देश को धन से नहीं, बल्कि स्वास्थ्य, शिक्षण, अपराध और पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए उसकी समृद्धि का आकलन करने लगे हैं। प्रगति के सूचकांक में भी अब बदलाव आने लगा है। अमेरिका के 'रिडिफाइनिंग प्रोग्रेस' नाम के समूह ने तो कुल राष्ट्रीय आवक में से कानूनी खर्च, चिकित्सकीय खर्च, तलाक खर्च आदि पर होने वाले खर्च को काटकर जो शेष बचता है, उसके आधार पर प्रगति का इंडेक्स घोषित करने लगे हैं। दूसरी कई संस्थाएँ मित्रता, ईमानदारी, परोपकार आदि मापदंड तय करके उसके आधार पर देश की प्रगति तय करने की कोशिश कर रही हैं। इससे यह स्पष्ट हो गया है कि जो देश आर्थिक रूप से समृध्दा होता है, वह महान नहीं हो जाता।

पिछले 25 वर्षों में ब्रिटेन, नार्वे, जापान आदि देशों ने आर्थिक प्रगति की वार्षिक रिपोर्ट जारी करने की परंपरा शुरू की है। इसी रिपोर्ट के आधार पर यह कहा जा रहा है कि 1973 में जहाँ 77 प्रतिशत अमेरिकी सुखी थे, वहीं 1993 में यह घटकर 38 प्रतिशत रह गया, अर्थात तीन दशक में अमेरिका ने आर्थिक रूप से खूब प्रगति की, किंतु उसकी सामाजिक व्यवस्था का अधा:पतन हो गया। ऑंकड़ों की सच्चाई यही कहती है। आज का मानव यही सोचता है कि इंसान को यदि बहुत सारी दौलत मिल जाए, तो वह सुखी हो जाता है। दौलत मिलने पर सुख हमारे साथ लुकाछिपी का खेल खेलता रहता है। वह हमारे पास नहीं फटकता। जो दौलत में सुख खोजते हैं, वह कभी सुखी नहीं हो सकते। आज भारत की नई पीढ़ी अधिक धन को ही सुख प्राप्ति का मुख्य साधान मानती है। यह पीढ़ी यह सब एक साथ और बहुत ही जल्दी प्राप्त करना चाहती है। यह तय है कि अचानक बिना परिश्रम के हाथ लगने वाला धन अपने साथ तनाव लेकर आता है, साथ ही अपने जाने का रास्ता भी। इसलिए जितनी तेजी से वह आता है, उतनी ही तेजी से वह चला भी जाता है। यही आकर यह पीढ़ी दु:खी हो जाती है और डिप्रेशन का शिकार होती है।सुख धन प्राप्त करने में नहीं, बल्कि धन लुटाने में है। धान का सुख से कोई संबंध नहीं है। थोड़ी देर के लिए भले ही हम सुविधाभोगी बनकर धान से सुख प्राप्त करने की कोशिश करें, पर यह एक मृगतृष्णा ही साबित होगी। प्राप्त करने की अपेक्षा देने में विश्वास रखने वाले कभी दु:खी नहीं होते। देने वाला हमेशा बड़ा होता है, भले ही वह दुआएँ ही क्यों न दे रहा हो। पाने वाले का हाथ हमेशा नीचे होता है। उसकी ऑंखें भी नीची होती है, क्योंकि वह जो कुछ प्राप्त कर रहा है, उसे खोना नहीं चाहता, इसलिए वह यह देखता है कि कहीं प्राप्त की जाने वाली चीज गिर न जाए, बरबाद न हो जाए। उसका ध्यान देने वाले पर कतई नहीं होता। अगर देने वाले को देखा जाए, तो उसके चेहरे का परम संतोष देखो। तब आप पाएँगे कि सचमुच देने में ही सच्चा सुख है। अंत में एक बात, आप क्या लेकर आए थे, जो लेकर जाना चाहते हो? जब कुछ लेकर जाना ही नहीं है, तो फिर यह संचय क्यों, यह तनाव क्यों, केवल सुविधाभोगी बनकर आप ने क्या संकलित कर लिया? मौत के बाद आपको क्या नसीब होगा, जब आप यही नहीं जानते, तो फिर इतनी हाय तौबा क्यों? कुछ देकर आप जितने बड़े होते हैं, उतने ही छोटे कुछ पाकर होते हैं। अब यह आपको तय करना है कि आप कितने बड़े बनना चाहते हैं या कितने छोटे?
डॉ. महेश परिमल

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