बुधवार, 5 नवंबर 2008
आज की शिक्षा पद्धति के खिलाफ बजाया बगावती बिगुल
डॉ. महेश परिमल
पिछले महीने ही स्वर कोकिला लता मंगेशकर जी का जन्म दिन था। इस दौरान रेडियो-टीवी पर उनके कई गीते बजाए गए। ऐसे ही एक कार्यक्रम में बताया गया कि लता जी अपने जीवन में केवल एक दिन ही स्कूल जा पाई। उसके बाद उन्होंने शाला के देहरी पर कदम नहीं रखा। इसके बाद भी अपने आपको शिक्षा से दूर नहीं किया। घर पर ही उन्होंने सारी शिक्षाएँ ग्रहण की। आज वह कई भाषाओं की ज्ञाता भी है और संगीत साधना के बारे में क्या कहा जाए? वह आज भी रियाज करती हैं, इससे ही स्पष्ट है कि उन्होंने स्वयं को संगीत के लिए ही समर्पित कर दिया है। यदि वे शाला जाकर शिक्षा प्राप्त करती, तो संभवत: इतनी सफलता उन्हें नहीं मिलती। आज शिक्षा की जो स्थिति है, उसे देखकर यही लगता है कि अपने बच्चों को शाला भेजना ही बंद कर दिया जा॥
आजकल हर पालक अपने बच्चों की शिक्षा को लेकर च्ािंतित है। सभी ने अपने बच्चों पर अपेक्षाओं का बोझ लाद रखा है। इसके चलते स्कूलों के अपने नखरे, उस पर आज की शिक्षा पद्धति, जिसकी आलोचना हर कोई करता है, सुधार की बात भी करता है, पर इसकी आवश्यकता को समझते हुए भी कोई इसे पूरी तरह से अस्वीकार भी नहीं कर सकता। पालकों की इसी विवशता का पूरा फायदा उठा रहा है, आज का शिक्षा माफिया। आज की शिक्षा में आमूलचूल परर्िवत्तन की बात हर कोई कर रहा है, पर इसमें बदलाव किस तरह लाया जाए, इस पर कोई आगे नहीं आना चाहता। केंद्र और राय सरकारें अपने आप को बचाने में ही लगी हैं। इस दिशा में ध्यान देने के लिए शिक्षा के नाम पर खर्च होने वाले अरबों रुपए ही दिखाई देते हैं। इसी घोर अव्यवस्था को देखते हुए कुछ पालकों ने अपने बच्चों को स्कूल से निकालकर घर पर ही पढ़ाने का निश्चय किया है। यह एक आश्चर्यजनक निर्णय था, लेकिन आज की इस अव्यवस्था के खिलाफ कुछ तो कदम उठाना ही था, इसलिए उन लोगों ने हिम्मत की, उसके परिणाम भी अच्छे आए।
सूरत के 15 वर्षीय उत्कर्ष ने तीसरी कक्षा से स्कूल जाना छोड़ दिया। आज वह बड़े-बड़े प्रोफेसरों को ऍंगरेजी स्पीकिंग की शिक्षा दे रहा है। उत्कर्ष के पिता शिवकुमार गहलोत पर्सनल ट्रेइनर हैं और सूरत के बाद वापी में पर्सनालिटी डेवलपमेंट की क्लासेस चलाते हैं। स्कूल में तेजस्वी बच्चों के साथ अन्याय होने के कारण उन्होंने अपनी दोनों संतानों को घर पर ही शिक्षित करने का बीड़ा उठाया। अमेरिका तो इस मामले में बहुत ही आगे है, वहाँ 25 वर्ष पहले से ही 'ग्रोइंग विदाउट स्कूल्ािंग' नामक एक अभियान चलाया गया, जो सफल रहा। इस अभियान के अंतर्गत 20 लाख बच्चे आज अपने पालकों के बीच ही रहकर शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। इसके बाद भी वे सभी स्कूलों में शिक्षा प्राप्त करने वाले बच्चों से अधिक स्मार्ट और तेजस्वी हैं।
अमेरिका के एक शिक्षक जॉन हाल्ट ने अपने वर्षों के अनुभव के आधार पर यह माना कि आज की शिक्षा पद्धति बच्चों की प्रतिभा को खिलाने के बजाए मुरझाने का काम कर रही है। इस कारण उन्होंने 1977 में 'ग्रोइंग विदाउट स्कूलिंग' नाम मैगजीन शुरू की। जॉन का मानना था कि स्कूल का वातावरण खराब है, क्योंकि वहाँ पढ़ने के बाद बच्चा छोटी आयु में ही लोगों की दुनिया से अलग हो जाता है। विजेता और पराजित का भाव उत्पन्न कर देती है। शिक्षा को अनिवार्य बना देने से बाकी की जिंदगी के साथ का अनुसंधान तोड़ डालता है। इसे ध्यान में रखते हुए यह विचार आया कि बच्चों को अनिवार्य शिक्षा के त्रास से छुटकारा दिलाने के लिए कुछ अलग किया जाना चाहिए। 1985 में जॉन हाल्ट का देहांत हो गया, उसके बाद भी यह अभियान जारी है और अब इसकी जरुरत सभी महसूस कर रहे हैं।
जॉन हाल्ट को सबसे पहले जब यह विचार आया कि बच्चों को स्कूल में नहीं पढ़ाया जाना चाहिए, तो उन्होंने इस विचार वाले पालकों को खोजना शुरू किया। उन्हें आश्चर्य हुआ कि उनके विचार को समर्थन देने वाले कई पालक उनके साथ थे। ऐसे कई पालक मिले, जो तत्कालीन शिक्षा पद्धति से नाराज थे, इसलिए उन्होंने अपने बच्चों को घर पर ही पढ़ाने का निश्चय किया। अमेरिका में किसी बच्चे को स्कूली शिक्षा से वंचित रखना एक अपराध माना जाता है। तो इस काम को कई पालन चोरी-छिपे इसे अंजाम देते थे। इसे ध्यान में रखते हुए जॉन ने 1977 में चार पन्नों का न्यूसलेटर स्वरूप में 'ग्रोइंग विदाउट स्कूल' नामक मैगजीन शुरू की। अपने अनुभव के आधार पर जॉन हाल्ट ने बताया कि स्कूल में जब कोई बच्चा अच्छा प्रदर्शन नहीं करता या फिर गुमसुम-सा रहता, तो दूसरे शिक्षक यही समझते कि यह बच्चा आलसी है या दिमागी रूप से अस्वस्थ है। किंतु वे ऐसा नहीं सोचते, उनका मानना था कि बच्चा यदि अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पा रहा है, तो उसमें कुछ भी गलत नहीं है। उन्होंने देखा कि शाला में आने वाला हर बच्चा भयभीत रहता और आते ही परेशानी का अनुभव करता। इस कारण वे कुछ भी प्रसन्नता पूर्वक सीख नहीं पाता था। भय के कारण उनकी बुद्धि भी कुंठित हो गई थी। इस हालात को देखते हुए उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि भय विद्यार्थी का सबसे बड़ा दुश्मन है। दूसरी ओर शिक्षकों के मन में जब तक यह विचार नहीं आएगा कि बच्चों को क्या पढ़ाना है और कैसे पढ़ना है, जब तक यह बात साफ नहीं होगी, तब तक बच्चे कुछ भी नहीं सीखेंगे। इन्हीं विचारों से प्रेरित होकर उन्होंने किताब लिखी 'विद्यार्थी फेल क्यों होते हैं?' यह किताब प्रसिद्ध हुई और जाून हाल्ट की बातों को लोग और भी गंभीरता से लेने लगे।
होम स्कूलिंग अभियान के समर्थक मानते हैं कि बच्चा बोलना और चलना कैसे सीखता है? इस दो मुश्किल कामों के लिए क्या उसे किसी स्कूल में जाने की आवश्यकता पड़ती है? उसके बाद घर में रहकर वह भाषाएँ सीखता है, इसके लिए भी क्या उसे स्कूल जाने की जरुरत पड़ती है? इससे यह तो स्पष्ट हो जाता है कि बच्चे में अपने आप ही कुछ सीखने की प्रवृत्ति प्रकृति से मिली है। होम स्कूलिंग इसी प्राकृतिक शक्ति को खिलाने का काम करती है, जिससे बच्चा अपने आप ही कुछ नया सीख सके। होम स्कूलिंग में कक्षाएँ होती हें, टेक्स्ट बुक होती है, साथ ही परंपरागत शिक्षण पद्धति का भी उपयोग किया जाता है। पर कुछ भी विद्यार्थी पर थोपा नहीं जाता। विद्यार्थी स्वयं ही तय करते हैं कि इनमें से किसका, कब, कैसे उपयोग करना है। एक छोटे से उदाहरण से यह समझा जा सकता है कि शाला की परंपरागत शिक्षा और होमस्कूलिंग में क्या अंतर है। यदि क्लास में मकड़ी के बारे में कुछ बताना है, तो शिक्षक मकड़ी का चित्र ब्लेकबोर्ड पर बनाकर उसके बारे में तमाम जानकारी दे देगा, दूसरी ओर होमस्कूलिंग में इसे बच्चा खुद आगे आकर सीखता है। जैसे बच्चा अपने पिता के साथ भोजन कर रहा है। अचानक उसकी नजर कमरे के कोने पर जाती है, जहाँ पर मकड़ी जाले बुन रही है। बच्चा खाना छोड़कर मकड़ी की एक-एक गतिविधि को ध्यान से देखेगा। उसकी हरकतों को समझने की कोशिश करेगा, फिर इसके बारे में समझदार लोगों से चर्चा करेगा, फिर भी जिज्ञासा शांत नहीं होगी, तो वह किताबों का सहारा लेगा और मकड़ी के बारे में अधिक से अधिक जानकारी प्राप्त करेगा। इस तरह से कुछ ही समय बाद वह मकड़ी के बारे में बहुत कुछ जान लेगा। उसका ये प्रयास प्रामाणिक होगा साथ ही स्कूल में परंपरागत रूप से पढ़ने वाले बच्चों से हटकर होगा।
होम स्कूलिंग पर विश्वास रखने वाले लोग क्लबों की स्थापना करते हैं, उसमें वे नियमित रूप से मीटिंग रखते हैं। ये क्लब कई तरह के हो सकते हैं, पक्षीविज्ञान, जादू विद्या, आकाशदर्शन, नाटय संगीत, काव्यपाठ, निबंध लेखन आदि विषयों से जुडे क्लब, जहाँ हर सप्ताह विशेषज्ञ आते हैं और बच्चों की विषय संबंधी जिज्ञासा को शांत करते हैं। इस तरह के क्लबों में किसी तरह की कोई परीक्षा नहीं होती और न ही अंक दिए जाते हैं, इसलिए बच्चे मन लगाकर अपनी तमाम जिज्ञासाओं को शांत करते हैं। इससे उनमें शिक्षा के प्रति आदर का भाव जागता है और जानने-समझने की राह आसान हो जाती है।
कोई भी पालक अपने बच्चों को स्कूल से निकालकर जब घर पर ही पढ़ाने का संकल्प लेता है, तो वह एक अलग ही तरह के डर का शिकार हो जाता है। बच्चा बराबर पढ़ेगा या नहीं, स्कूल से निकालकर कोई गलत तो नहीं किया, अन्य बच्चों से मेरा बच्चा पिछड़ तो नहीं जाएगा, उसे कॉलेज में प्रवेश मिलेगा या नहीं, भविष्य में माता-पिता के साथ झगड़ा तो नहीं करेगा, बच्चा कभी पूछेगा तो नहीं कि मुझे स्कूल से क्यों निकाल दिया गया? पालकों की इन च्ािंताओं को ध्यान में रखते हुए जब घर पर ही शिक्षा प्राप्त करने वाले 53 विद्यार्थ्ाियों से पूछा गया, तो उनमें से 51 ने इसे सही बताते हुए कहा कि हमें अब जब भी स्कूल जाने का अवसर मिलेगा, तो हम घर पर रहकर पढ़ना चाहेंगे। दूसरी बात इनमें यह देखने में आई कि स्कूल-कॉलेजों में पढ़े हुए बच्चों में बेरोजगारी देखी गई, जबकि इन बच्चों को हमेशा अलग ही देखा गया। इन बच्चों का मानना था कि जो बच्चे स्कूल में अधिक अंक लाते हैं, उनका यह अर्थ कतई नहीं है कि वह जीवन में अधिक सफल होंगे या अधिक धन कमाएँगे।
अपने बच्चों को घर पर ही पढ़ाने वाले करीब सौ परिवारों से मिलकर एलन थॉमस ने एक किताब लिखी 'एयूकेटिंग चिल्ड्रन एट होम', इस लेखक का कहना है कि जब तक बच्चे में जानकारी का विश्लेषण करने की शक्ति होती है, तब तक वह पढ़ना-लिखना देर से सीखता है, इसकी चिंता करने की आवश्यकता नहीं। आज तीन-चार साल के बच्चे को रेम गाते हुए और एबीसीडी लिखते हुए देखना हमें भले ही अच्छा लगता हो, पर यह गलत है। इस पर गंभीरतापूर्वक सोचा जाना चाहिए। आज जैसे-जैसे स्कूली शिक्षा परेशानी का सबब बन रही है, वैसे-वैसे होम स्कूलिंग अभियान जोर पकड़ने लगा है। अमेरिका के लोगों ने समझ लिया है कि बच्चों को स्कूली की अव्यवस्था की चक्की में पिसने से बचाना है, तो उन्हें घर पर पढ़ाया जाए। राष्ट्रीय पाठयक्रम, कठिन परीक्षाएँ, स्कूल के अधिक घंटे, अधिक होमवर्क, पाठय पुस्तकों का बोझ, शिक्षा के लिए अधिक से अधिक धन, इन सारी बातों को देखते हुए यह स्पष्ट नहीं कहा जा सकता है कि इससे शिक्षा के स्तर में सुधार होगा। आज बच्चों को स्कूल में प्रयोगशाला का प्राणी मानकर शिक्षा दी जा रही है। इसके बदले यदि उसे शिक्षा की प्रक्रिया में शामिल किया जाए, तो निश्चित रूप से इसमें सुधार हो सकता है।
विद्यार्थी के भीतर कई संभावनाएँ मौजूद होती हैं, उसकी क्षमताओं और कौशल को बाहर लाया जाए, ऐसे अवसर तैयार करने होंगे, वह जीवनोपयोगी चीजें सीख सके। आज देश के मेट्रोपोलिटन शहरों में अनेक पालक अपने बच्चों को स्कूल से निकालकर घर पर ही पढ़ा रहे हैं, इस तरह से घर पर रहकर पढ़ने वाले इतने अधिक स्वावलम्बी होते हैं कि वे रोजगार पाने के लिए कतार में खड़े नहीं होते। उन्हें अवसर मिलते जाते हैं और वे अवसर का लाभ लेने में जरा भी देर नहीं करते। तो आप कब निकाल रहे हैं अपने बच्चों को स्कूल के बोझिल वातावरण से......?
डॉ. महेश परिमल
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आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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वर्तमान व्यवस्था से आहत मन को आपने असीम सुख दिया यह अद्वितीय जानकारी देकर.हमलोग इससे बिल्कुल ही अनभिज्ञ थे कि ऐसी कोई व्यवस्था हो सकती है या है,जिसमे बच्चे का सवाभाविक विकाश ठीक उसी प्रकार हो जैसे वन में प्राकृतिक रूप से कोई पौध पनपता और दृढ़ होता है.
जवाब देंहटाएंआपका बहुत बहुत आभार इस महत्वपूर्ण जानकारीपरक आलेख के लिए.