शुक्रवार, 14 नवंबर 2008
आज बाल दिवसः बड़ों की दुनिया में गुम होती बच्चों की दुनिया
सुनील मिश्र
बाल दिवस हमारे यहां चंद मुस्कराते चेहरे वाले बच्चाें के छायाचित्रों का दिवस हो गया है, जो हमें चैनलों और अखबारों में एक दिन दिखाई दे जाते हैं। हमारे देश में बच्चों की एक बड़ी दुनिया है, मगर दूसरे अर्थों में देखा जाए, तो उनका संसार कहीं दिखाई नहीं देता। ज्यादा से ज्यादा चार दिन हुए होंगे जब बोरवेल मेंफंसा एक बच्चा जीते-जी बाहर नहीं आ सका। साल में कई बार बच्चे धरती को भेदकर गहरे उतरती मशीन के कारण होने वाले गङ्ढों में गहराई तक जाकर तड़पते हैं। लगभग पांच वर्ष पहले की सागर की एक घटना का स्मरण हो आता है जिसमें स्कूल के बच्चे अपने अध्यापक के यहां उनकी बेटी की शादी में पांच-पांच रुपए चंदा करके तोहफा देने एक ट्रॉली में जा रहे थे और भयानक दुर्घटना के शिकार होकर जान से हाथ धो बैठे। आरुषि के साथ हुई दुर्घटना से ज्यादा त्रासद और क्या होगा, जिसमें नितांत विफल व्यवस्था आज तक सच्चाई का पता न लगा पाई। ऐसी ही न जाने कितनी ही घटना-दुर्घटनाएं और उनका शिकार होते बच्चों को देख-पढ़-सुनकर एक पूरी सामाजिक मन:स्थिति पर विचार करने का मन होता है, जहां बच्चों को हम सबसे असुरक्षित पाते हैं। बसों और लोकल ट्रेनों में बड़ी छोटी उम्र से मंजिल तय करते बच्चे कितने सुरक्षित हैं, उनकी मुस्कान की कौन रक्षा कर रहा है, उनके आंसू कितना और किसे व्यथित कर रहे हैं, इसका अंदाज लगा पाना आसान नहीं है।
छोटे टेंपो, बसों, मिनी बसों में बच्चे और उनके बस्ते हाट में बिकने जा रही सब्जियों की तरह हैं। बड़ी संख्या में बच्चे अपने हाल पर जीते हैं। वे अपने जोखिम से खुद ही सामना करते हैं। जीत-हार तो क्षमता, शक्ति और परिस्थितियों पर निर्भर है मगर उनके अपने संघर्ष में वे अकेले ही होते हैं, उनका कोई साथी नहीं होता। ऐसे भाग्यशाली बच्चों की संख्या कम ही होगी जिनके अभिभावक रोज खुशबूदार रुमाल से उनका चेहरा चार बार साफ करते हों। ऐसे बच्चों का प्रतिशत कम ही होगा जिनको कार से स्कूल जाना और आना नसीब होता हो। ऐसे बच्चे न्यूनतम ही होंगे जो स्कूल से घर लौटते ही बस्ता फेंककर खेलने निकल जाते हैं और उनके कपड़े घड़ी करने एवं बस्ता सम्हालने वाले उनकी सेवा में हर वक्त हाजिर रहते हैं। बहुत से बच्चे स्कूल में अपनी पढ़ाई करने के बाद अपने परिवार की जरूरतें पूरी करने के लिए चाय के ठेले पर चाय वाले की चाकरी भी करते हैं और दफ्तरों में चाय लगाते हैं। वाहन रिपेयरिंग की दुकानों पर बच्चों की दशा को भला हम सबसे बेहतर कौन जान सकता है?
समाज, बच्चों की संवेदनाओं को किस प्रकार सहृदयता से लेता है, यह एक अलग प्रश्न है। मगर क्या कभी इस प्रश्न पर विचार किया गया है कि अभिभावक बच्चों की संवेदनाओं को किस तरह लेते हैं? इस मामले में आमिर खान जैसे प्रतिबध्द अभिनेता का अभिभावकों को शुक्रगुजार होना चाहिए कि बीते साल इस कलाकार ने 'तारे जमीं पर' जैसी फिल्म बनाकर सभी संजीदा माता-पिताओं के अंतस को जाग्रत करने का काम किया। इस सार्थक फिल्म का ही यह चमत्कार कहा जाएगा कि अभिभावकों ने इस फिल्म को देखकर, आंसू बहाने के बाद अपने बच्चों की ओर संवेदना से देखा। परिस्थितियां हमें अपना गिरेबां दिखाती हैं मगर हम सभी को नजरअंदाज करते हैं, लेकिन लंबे अंतराल में ही सही यदि तारे जमीं पर, ने अभिभावकों को झकझोरने का काम किया तो यह एक बहुत बड़ा काम माना जाएगा।
एक समय जवाहरलाल नेहरू ने बड़े फिल्मकारों का आह्वान किया था कि वे अपनी कमाई में से एक हिस्से का उपयोग करके बाल संवेदना पर कम से कम एक फिल्म नफे-नुकसान की परवाह किए बिना अवश्य बनाएं। उस आव्हान पर ही 'जागृति', 'दो आंखें बारह हाथ', 'बूट पॉलिश' जैसी फिल्में बनकर आई थीं। बाल मनोविज्ञान और संवेदना पर अच्छा सिनेमा अब नितांत असंभव हो गया है। सई परांजपे ने एक सार्थक बाल फिल्म 'चकाचक' बनाई, मगर उसको बच्चों तक पहुंचाने का रास्ता नहीं मिल सका। राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त मराठी फिल्म 'श्वास' कितने लोगों ने देखी और अपने बच्चों को दिखाई होगी, यह बता पाना मुमकिन नहीं है। बाल संवेदना पर एक महत्वपूर्ण फिल्म 'रामचंद्र पाकिस्तानी' बनी है, मगर उसको प्रदर्शन के अवसर नहीं मिल रहे।
बच्चों के लिए अखबारों में सप्ताह या पखवाड़े में सिर्फ एक ही बार गुंजाइश है। कैसे समझें कि छुट्टी का दिन ही केवल बच्चों का दिन नहीं होता। कैसे समझें कि बच्चे रोज दिन में एक बार मौका पड़ने पर अखबार हाथ में लेते हैं। बच्चों के लिए पत्रिकाएं नहीं हैं। 'चकमक', 'बाल भारती' जैसी जो महत्वपूर्ण बाल पत्रिकाएं हैं उन्हें बच्चे भले ही उस तरह से न जानते हों मगर कितने अविभावक बच्चों से उसे परिचित कराया करते होंगे, यह प्रश्न ही है। बच्चों का सृजनात्मक पक्ष इन्हीं सब बातों से प्रभावित होता है। बाल दिवस, बच्चों की क्षणिक छवियों का, खुशियों का सिर्फ एक दिन का रचा गया कोलाज मात्र नहीं है। हमें आज के दिन बच्चों के सीमित और संकुचित होते जगत की चिंता करनी चाहिए।
सुनील मिश्र
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जिंदगी
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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