शुक्रवार, 13 जून 2008

मम्मी-आंटी


भारती परिमल
वैशाली से फोन पर हुई चर्चा के बाद उसके पतझड़ से सूने जीवन में जैसे बहार आ गई थी। जर्जर होती शाखों पर नई कोपलें उग आई थीं और उसकी मुस्कान में आशाओं की कलियाँ खिलने लगी थी। उसे लगा था कि लम्बे अंतराल के बाद वैशाली उसे भूल गई है और उसके बिना जीने की आदत डाल लेनी चाहिए, किंतु शाम को वैशाली का एकाएक फोन आना और फोन पर हुई लंबी बातचीत ने यह साबित कर दिया कि अपनेपन के रिश्ते कभी अंतराल के घेरे में दम नहीं तोड़ते, बल्कि वे तो अपनी मजबूती को संभाले हुए और अधिक सबल होते चले जाते हैं। वैशाली ने अधिकारपूर्वक उससे साथ रहने का अपना निर्णय सुना दिया था। कितनी गंभीरता और प्यार से कहा था वैशाली ने - आपने कैसे सोच लिया कि मैं आपके बगैर रह लूँगी। मेरे जीवन के वो दिन जब मुझे माँ-बाप की जरूरत थी, तो आपने हर कदम पर मेरा साथ दिया और मुझे अपने पैरों पर खड़े होने के काबिल बनाया और आज जब आपको मेरी जरूरत है, तो मैं आपको अकेला छोड़ दूँगी? मैं आपके बगैर जीने की कल्पना भी नहीं कर सकती। आपको मेरे साथ ही रहना है। कल सुबह की ट्रेन से आपको दिल्ली आना है। आप मेरे पास रहेंगी और हमेशा रहेंगी। आपकी बेटी आपके बिना नहीं रह सकती। प्लीा मम्मी-आंटी मेरे पास आ जाइए।
वैशाली की इस प्यार भरी मनुहार ने उसे सोचने पर विवश कर दिया। रिटायर्ड होने के बाद जब एक एक पल काटना मुश्किल हो रहा था। वहाँ अब एक-एक पल का साथ निभाने को वैशाली फिर उसके साथ थी। वैशाली के जाने के बाद वह स्वयं को एकदम अकेली महसूस करने लगी है। ऐसा नहीं था कि वैशाली एकाएक चली गई हो। वैशाली का जाना तो तय था और इसके लिए ईश्वर से प्रार्थना करने में उसने भी किसी प्रकार की कंजूसी नहीं दिखाई थी। गुरुवार का व्रत पिछले तीन सालों से वैशाली की चाहत पूरी हो जाने के लिए ही तो रख रही थी। अब जब ये चाहत पूरी हो चुकी है और वैशाली अपनी मंजिल की ओर बढ़ चुकी है, तो एकांत में यह मन केवल उसे ही याद करता है।
वैशाली के साथ उसका खून का रिश्ता नहीं है। फिर भी वह उसके जीवन में इस तरह घुलमिल गई है कि समय का हर पल उसी के आसपास घूमता रहता है। कभी-कभी जीवन में ऐसी घटनाएँ घट जाती हैं, जिस पर एकाएक विश्वास नहीं होता और विश्वास करने का समय आता है, तब तक पाँवों तले की जमीन खिसक चुकी होती है। हम किसी और जमीन पर खड़े स्वयं के होने का अनुभव ही करते रह जाते हैं। कुछ ऐसी ही स्थिति उसकी थी। वैशाली का आना उसके जीवन की एक आकस्मिक घटना थी और उसका चले जाना स्वयं के अस्तित्व की तलाश के बाद का एक नया सफर था।
जब महिला एवं बाल विकास अधिकारी के रूप में एक पिछड़े गाँव में उसकी नियुक्ति हुई थी, तब एक सप्ताह ही गाँव में रहने के बाद लगा था कि यह नौकरी ही छोड़ दे। कैसे रहेगी वह ऐसे पिछड़े हुए गाँव में जहाँ शिक्षा के नाम पर एकमात्र प्रायमरी स्कूल है और अंधविश्वासों का परचम लहरा रहा है। बिल्ली के रास्ता काटने पर अपशुकन होता है, यह तो किताबों में पढ़ा था, पर यहाँ तो किसी महिला के रास्ते में आ जाने पर ही अपशुकन माना जाता था। इसीलिए गाँव की महिलाएँ घर की चारदिवारी में ही रहती थीं और यदा-कदा किसी काम से निकल भी गई तो डेढ़ हाथ का घूँघट ओढ़े रहती थीं। आवाज निकालना तो दूर की बात थी, वे तो चूड़ियों की खन-खन और हाथ की ऊँगलियों से ही अपनी बात कह पाती थीं। नहीं, नहीं, ऐसे घुटन भरे वातावरण में वह नहीं रह पाएगी।
निर्णय करने के मामले में तो वह हमेशा से अव्वल रही है। उसने एक पल में ही निर्णय ले लिया कि वह नौकरी छोड़ देगी, पर दूसरे ही पल फिर खयाल आया नौकरी छोड़ देगी तो करेगी क्या? क्या फिर से उसी घर में जाएगी जहाँ उसे हिकारत भरी नजरों से देखा जाता है? बाँझ कह कर रात-दिन कोसा जाता है? अपनापन तो दूर हमेशा दहेज कम लाने के कारण ताने मारे जाते हैं? क्या वो वापस उसी कैदखाने में जाएगी? या फिर मायके में जहाँ पिता की कमर तीन लड़कियों की शादी के नाम से झुकी चली जा रही है? उसकी शादी के समय लिया गया कर्ज तो उतरा नहीं है और वह स्वयं एक बोझ बन कर वहाँ पड़ी रहेगी? कितनी मुश्किलों के बाद सास, देवर, ननद और पति के तानों को सुनते हुए उसने ये सफलता की सीढ़ी प्राप्त की है और जब इस पर चढ़कर मंजिल को छूने का समय आया, तो पिछड़ेपन का बहाना करके नौकरी छोड़ने का विचार आ रहा है?
सारी रात के वैचारिक मंथन के बाद उसी गाँव में रहने का निर्णय ले कर वह एक सशक्त नारी के रूप में विकास पथ पर आगे बढ़ चली। पिछड़ेपन के कारण महिला विकास की बात सोचना टेढ़ी खीर है, पर बाल विकास की ओर तो कदम बढ़ाया ही जा सकता है। गाँव के सरपंच और अन्य चार-पाँच बुद्धिजीवियों के बीच बच्चों के विकास की अपनी योजनाओं को रखते हुए उसने ग्रीष्मकालीन कक्षाएँ शुरू कर दी। एक से दस और दस से पचास का ऑंकड़ा पार करते हुए सालों लग गए। इस बीच महिला विकास की चिंगारी सुलगाने में भी उसे अच्छी-खासी मेहनत करनी पड़ी। गाँव के एक-एक घर को विश्वास में लेना, उसे अपनेपन के साथ उसी के महत्व के बारे में बतलाना कोई आसान काम न था।
गाँव की महिलाओं में जागरूकता, स्वाभिमान, आत्मसम्मान और शिक्षा की आवश्यकता आदि वैचारिक भाव लाने के प्रयास में उसने तन-मन एक कर दिए। उसकी दृढ़ इच्छा शक्ति ने उसका साथ दिया और महिला विकास का कार्य भी नई-नई सफलताओं को पाने लगा। सालों की इस मेहनत के बाद पूरा गाँव उसका अपना था। एक-एक घर से अपनेपन के तार जुड़ गए थे। अपनेपन की इस विशाल जलकुम्भी में कुछ खो गया था तो वह था रिश्तों का अपनापन, मायके और ससुराल के बीच का सेतू जो राखी की एक डोर और सिंदूर की एक लकीर से जुड़ा हुआ था, वो सेतू टूट चुका था। फिर भी अपनत्व की इस जलकुम्भी से तरबतर वह खुश थी, बहुत खुश। उसने गाँव के विकास के लिए अपने सारे प्रमोशन ठुकरा दिए थे और इसी गाँव की होकर रह गई थी।
एकाएक उसकी खुशियों पर नजर लग गई। दस वर्ष पूरे होने की खुशी में गाँव वालों के द्वारा एक आयोजन किया गया था। जिसमें बच्चों के द्वारा गीत एवं नृत्य का छोटा-मोटा कार्यक्रम रखा गया था और उसके बाद रात्रिकालीन भोजन का भी प्रबंध था। गाँव का हर व्यक्ति इसमें बढ़-चढ़ कर भाग ले रहा था। बच्चे तो दावत और नृत्य के नाम से बेहद खुश थे। महिलाएँ भी विकास की इस बेला में पुरुषों से बराबरी करते हुए हर काम में अपना सहयोग दे रही थी। चारों ओर खुशियों का वातावरण था। रंगबिरंगे बल्बों की रोशनी जगमगा रही थी। पंडाल के एक तरफ बड़े-बडे क़ड़ाहे चढ़े हुए थे, किसी में जलेबी थी तो किसी में भजिए तले जा रहे थे। कुछ औरते एक गोल घेरे में हँसी-ठिठोली करते हुए पूड़ियाँ बेल रही थीं। पास ही गरमागरम जलेबी और भजिए खाने के लालच में बच्चे हलवाई को घेरे खड़े थे, जो उन्हें चार-पाँच बार पास खड़े रहने के नाम से डाँट भी चुका था। खुशियों के इन क्षणों में एकाएक अनहोनी का विकराल रूप सामने आया। गैस के तीन सिलेन्डरों में से एक सिलेन्डर एकाएक फट पड़ा। फटते ही हाहाकार मच गया। तेल के कड़ाहे लुढ़क पड़े। जिससे आग ने जोर पकड़ लिया। चारों ओर आग ही आग। पल भर पहले का ठिठोली का माहौल चीख और आर्तनाद में बदल गया। फिर तो नजदीक के शहर से एम्बुलेंस और डॉक्टर्स आए, पुलिस आई, फायर ब्रिगेड आई और राहत के जो-जो सामान उपलब्ध करवाए जा सकते थे, सभी की व्यवस्था सरकार द्वारा की गई।
पूरे गाँव में श्मशान सी खामोशी छा गई थी। इस अनहोनी में सभी ने कुछ न कुछ खोया था। किसी की माँग का सिंदूर, किसी के ऑंचल की छाँव, किसी के स्नेह का रेशमी बंधन तो किसी के काँधे का एकमात्र सहारा.. कितने ही रिश्ते इस विकराल आग की भेंट चढ़ गए थे।
रधिया के दो बेटे और पति तीनों ही इस आग में स्वाहा हो गया थे। रधिया खुद भी तीन चौथाई जल चुकी थी। उसके बचने की उम्मीद बिलकुल नहीं थी। अपनी इकलौती निशानी वैशाली का हाथ उसके हाथ में देते हुए रधिया ने अंतिम साँसे ली। वैशाली की जवाबदारी उसके हाथों में सौंपते हुए रधिया के चेहरे पर जो संतोष था, उसी संतोष ने उसे एक माँ की जवाबदारी का अहसास कराया। आज तक गाँव के विकास का सपना पाले उसकी ऑंखों में अब वैशाली को पालने और उसे अपने पैरों पर खड़ा करने का सपना पलने लगा। अपने स्नेह और ममत्व की छाँव में वैशाली को पढ़ाने के लिए उसने गाँव को अलविदा कह शहर की ओर रुख किया।
वैशाली को पाते ही उसके भीतर ममता की नदी बहने लगी। वैशाली असाधारण प्रतिभा की धनी थी। इसीलिए उसने उसे एयर होस्टेस बनाने का विचार किया। वैशाली की मेहनत और उसकी चाहत अब एक थे। एक तरफ पैसों की कमी नहीं थी, तो दूसरी तरफ वैशाली में भी कुछ बनने की लगन थी। दोनों ने मिलकर सपनों को एक नया आकाश दिया और वैशाली ने सफलता के जहाज में अपने कदम रख ही दिए। जिस दिन वैशाली दिल्ली के लिए रवाना हुई, उसे विदा करते हुए उसके चेहरे पर पूर्ण संतोष का भाव था। यूँ लग रहा था जैसे इन वर्षो में उसने पूर्ण मातृत्व सुख प्राप्त कर लिया हो।
वैशाली की जवाबदारी उसने एक माँ की तरह ही निभाई है। उसे गर्व है कि उसने अपने एकाकी जीवन में कुछ ऐसा किया जो अपने आप में अनोखा है। इस अनोखेपन ने उसे एक पहचान दी है- मम्मी-आंटी। उसने वैशाली के पास जाने का निर्णय लिया और सूटकेस में कपड़े जमाने की तैयारी करने लगी। बादलों की ओट से बाहर निकल चाँद ने भी मुस्कराकर उसके इस निर्णय का स्वागत किया। वैशाली की मम्मी-आंटी जल्द से जल्द वैशाली तक पहुँच जाना चाहती थी।
भारती परिमल

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