सोमवार, 22 सितंबर 2008

मुहावरों में उलझा मस्तिष्क



डॉ. महेश परिमल
मेरे सामने दो मुहावरे हैं- एक सड़ी मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है और अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। इन दोनों में विरोधाभास है। कोई जब एक उदाहरण देता है तो दूसरा दहला मारते हुए दूसरा उदाहरण दे देता है और लोग हँस कर रह जाते हैं। आइए, इसका विश्लेषण करते हुए इसकी गंभीरता पर विचार करें।
दोनों में मुख्य अंतर है अच्छाई और बुराई का। मनुष्य की यह प्रवृत्ति है कि उसे बुराई यादा आकर्षित करती है। केवल आकर्षित ही नहीं करती बल्कि प्रभावित भी करती है। दूसरी ओर अच्छाई में चकाचौंध कर देने वाली कोई चीज नहीं होती। वह सदैव निर्लिप्त रहती है। जब तक एक कमरे में दीपक प्रकाशवान है, तो हमें उसकी उपस्थिति का भान नहीं होता, किंतु कमरे में जैसे ही अंधेरा पसरता है, हमें दीपक के महत्व का पता चलता है।
विदेशों से हमने कई नकलें की हैं। फैशन के मामले में, शिक्षा के मामले में, यहाँ तक कि राजनीति के मामले में, लेकिन इसके साथ हम उनके अनुशासन, समय की पाबंदी और निष्ठा जैसे गुणों को नहीं अपनाया। एक व्यक्ति वह भी किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति ने फैशन के बतौर विदेशी परंपरा को अपनाया। उसकी नकल कई लोगों ने की, किंतु उसी व्यक्ति ने विदेश से ही चुपचाप एक अच्छी परंपरा को आत्मसात किया। परिणाम यह कि लोगों ने उसकी तरफ ध्यान ही नहीं दिया। इस तरह से बुरी बातें लोगों को आकर्षित करती रही और अच्छाई एक कोने में रहकर यह सब देखती रही।

सड़ी हुई मछली में संक्रामक कीटाणु होते हैं, जो तेजी से फैलते हैं। उनकी संख्या प्रतिक्षण बढ़ती है। इसलिए सारे तालाब को गंदा करने में वह मछली सक्षम होती है। दूसरी ओर बहुत से चने का का इकट्ठा होना, भाड़ में पहुँचना, यहाँ तक उन सभी चनों का रूप सख्त है, किंतु गर्मी पाते ही उसका रूप बदल जाता है। वे सभी नरम पड़ जाते हैं। उनमें कोमलता आ जाती है, सख्ती गायब हो जाती है। भाड़ फोड़ने की बात एक क्रांति है और क्रांति बगावती विचारों के साथ आती है। अन्याय के खिलाफ आवाज बुलंद करना क्रांति का आगाज है। फिर भाड़ ने चनों पर कोई अन्याय नहीं किया, बल्कि अपनी तपिश से उन्हें कोमल और स्वादिष्ट बनाया। तो फिर कहाँ क्रांति, कैसी क्रांति ?
मछली तालाब को सदैव गंदा नहीं रख सकती। बुराई कुछ देर के लिए तालाब पर हावी हो जाती है, पर कालांतर में उसी तालाब की अच्छाई सक्रिय होती है और बुराई का नाश करते जाती है। कुछ समय बाद तालाब फिर साफ हो जाता है। बुराई के ऐसे ही रंग हमें अपने जीवन में भी देखने को मिलते हैं। जैसे ही हमारे जीवन में बुराई रूपी अंधेरे का आगमन होता है, विवेक रूपी दीपक प्रस्थान कर जाता है। बुराई अपना खेल खेलती है। मानव को दानव तक बना देती है और उसी दानव को महात्मा भी बना देती है। अच्छाई को यदि कोई दानव भी सच्चे हृदय से स्वीकार करे, तो उसे महात्मा बनने में देर नहीं लगेगी।
डॉ. महेश परिमल

2 टिप्‍पणियां:

Post Labels