सोमवार, 8 मार्च 2010

किस समाज में जी रहे हैं हम

डॉ. महेश परिमल
एक कथित साधू पत्नी की पुण्यतिथि पर अपने आश्रम में भंडारे का आयोजन करता है, 20 हजार लोगों को भोजन कराता है। बाद में कपड़े और बरतन बाँटता है, जिसमें भगदड़ होती है, जिससे 64 लोगों की मौत हो जाती है। वह इसे अपनी नहीं, बल्कि भगवान की गलती करार देता है। दूसरे दिन वह फिर कहीं दूसरे स्थान पर लोगों को रुपए बाँटता है। इतनी मौतों का उसे कोई ग़म नहीं, वह शान से अपना काम करता है, भड़काऊ बयान देता है। हम खामोश होकर सब देखते हैं। एक और साधू इसी देश में सेक्स रेकैट चलाता है। उसके पास कद्दावर लोग आते हैं। वह उनकी सेक्स की भूख मिटाने का प्रबंध करता है। दिन में वह साधू का चोला पहनता है, रात में एक अय्याश व्यक्ति बन जाता है। उसकी पहुँच काफी ऊपर तक होती है। वह अपने आपको कृष्ण का अवतार मानता है और उसके यहाँ काम करने वाली युवतियों को वह अपनी गोपियाँ बताता है। एक प्रगतिशील राज्य का मुख्यमंत्री की हाजिरी भी उसके पास होती है। हम इसे भी देखते समझते हैं।
आखिर ये साधु-महात्मा देखते-देखते इतनी बड़ी संपत्ति के मालिक कैसे बन जाते हैं? इनके आश्रम कथित रूप से अय्याशी का अड्डा कैसे बन जाते हैं। आश्रम भी अतिक्रमण की भूमि पर बन जाता है। प्रशासन सोता रहता है। हर कथित साधू या महात्माओं के अपने राजनीतिक चेले होते हैं। इन्हें वे अपनी ऊँगलियों पर नचाते हैं। कई बार तो मंत्रिमंडल में अपनों को पद दिलाने में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। अगर दूर जाने की आवश्यकता नहीं है। चंद्रास्वामी को कौन नहीं जानता, जो सीधे प्रधानमंत्री से मिल सकते थे। उनकी जाँच भी नहीं होती थी। अपने आश्रम चलाने के अलावा सरकार चलाने में वे महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। उन्हें पूरी तरह से राजनीतिक संरक्षण प्राप्त था। उन पर ऊँगली नहीं उठाई जा सकती थी। आखिर राजनीति में इनका दखल क्यों होता है? शायद ही कोई मंत्री, विधायक, सांसद ऐसा हो, जिनका अपना कोई ऐसा गुरु न हो, जो उन्हें राजनीतिक सलाह न देता हो। इनकी आड़ में ये गुरु कई ऐसे काम करते जाते हैं, जो समाज विरोधी होते हैं। हम ऐसे लोगों की लीलाएँ देखने सुनने के लिए विवश हैं।
समाज का एक ऐसा व्यक्ति जो नशीली दवाएँ लेता है। एक स्वर्गीय राजनेता का पुत्र है। जो तलाकशुदा है। फिर से शादी रचने को एक प्रायोजित कार्यक्रम बनाकर टीवी पर आता है। कई युवतियों को देखता पहचानता है। युवतियाँ भी उस पर फिदा होती हैं। उसके नाम पर तीन युवतियाँ अपने हाथों पर मेंहदी रचाती हैं। उसमें से वह एक से कथित तौर पर शादी करता है। बाकी दो युवतियाँ उसे अपना भाई मान लेती हैं। किसी युवती के हाथों पर एक ही बार मेंहदी रचती है। बार-बार तो रचती नहीं है। लेकिन हम ऐसा होता देख रहे हैं, इसे देखने में अपनी शान समझते हैं। शादी के नाम पर एक और अभिनेत्री तमाशे करती है। हम उसका यह तमाशा मजे लेकर देखते हैं। मीडिया ने जो परोसा,उसे सहजता के साथ ग्रहण भी करते हैं। हम क्या चाहते हैं, इसे जानने-समझने की फुरसत न तो मीडिया के पास है और न ही हमारे पास यह बताने का समय है कि हम क्या चाहते हैं? हमारे बच्चे अपनी प्रतिभा दिखाने के लिए इनकी कठपुतली बनते हैं। इनके शोषण का शिकार होते हैं। लेकिन हमें Êारा भी शर्म नहीं आती।
यही नहीं हमारे मनोरंजन के संसाधनों पर आजकल सांस्कृतिक हमला हो रहा है। हम मजे लेकर उसे देख रहे हैं, साथ ही अपनी सक्रियता का परिचय भी दे रहे हैं। लम्बे समय तक देश की महिलाओं और पुरुषों को सास-बहू के प्रपंचों ने लुभाया। जहाँ एक ऐसे समाज को दिखाया गया, जिसमें 25 वर्ष की बहू करोड़ों रुपए की बात करती है, प्रपंच रचती है, इसमें उसका साथ देते हैं, समाज के कथित ठेकेदार। इनके द्वारा एक ऐसे समाज का निर्माण हुआ, जिसमें केवल घात और प्रतिघात है। करुणा-संवेदनाओं से इनका कोई नाता नहीं है। यह सिलसिला अब बंद हो गया है, पर समाज में कुछ स्थापित बुराइयों को छोड़ गया है। अब दूसरी तरफ हम फिर इस मुगालते में हैं कि धारावाहिकों को चलाने में एसएमएस भेजकर अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। एक आलीशान मकान में कुछ महिलाएँ, कुछ युवतियाँ, एक हिजड़ा, एक पहलवान का बेटा, एक विदूषक, एक संगीतकार आदि रहते हैं, हँसी-ठिठोली करते हैं, लड़ते-झगड़ते हैं, एक-दूसरे पर कीचड़ उछालते हैं और अपने इसी व्यवहार के कारण वहाँ से निकल जाते हैं। पूरा देश उन्हें देख रहा है, पर वे अपने आपको नहीं देख रहे हैं। हमारा समय निकल जाता है। वे कैसा व्यवहार कर रहे हैं, यह बताने के लिए हम एसएमएस करते हैं। विज्ञापन एजेंसियाँ खूब कमाती हैं। हम ठगे जाते हैं। फिर भी हमें कोई चिंता नहीं। हम इनकी मानसिक गुलामी सहन करते हैं।
देश की आर्थिक राजधानी पर सशस्त्र हमला होता है। राजधानी 72 घंटे तक आतंकवादियों की गिरफ्त में होती है। कई आतंकवादी मारे जाते हैं। एक जिंदा पकड़ा जाता है। डेढ़ वर्ष तक हम मारे हुए आतंकवादियों की लाश को सँभालकर रखते हैं, उस पर करोड़ो रुपए खर्च करते हैं। जीवित आतंकी पर मुकदमा करते हैं, उसकी सुरक्षा पर भी करोड़ों रुपए खर्च होते हैं, वह बार-बार अपने बयान बदलता है। उसने जो किया, उसका फैसला नहीं हो पाता। हम मजे से उनकी खबर पढ़ते हैं। हमारा खून नहीं खौलता। एक कमरे में कैद एक वृद्ध आदमी कथित तौर पर दादागिरी करता है। उसे मुगालता है कि वह देश की आर्थिक राजधानी को चलाता है। देश के सम्मानीय हस्तियों को लेकर उल्टे-सीधे बयानबाजी करता है। हमारे देश के कृषि मंत्री उसके तलुए चाटते हैं। फिर भी उस पर कोई कार्रवाई नहीं होती।
कहीं ऐसा नहीं लगता है कि हम जिस समाज में जी रहे हैं, वह एक वायवीय समाज है? जहाँ संवेदना का कोई स्थान नहीं। करुणा जहाँ शरमाती है। अपनों के प्रति प्यार नहीं है। साजिश, दगाबाजी, छल-प्रपंच, रिश्वत आदि समाज के स्थायी भाव बनकर रह गए हैं। ऐसे में कोई अच्छा काम होता है, तो समाज उसे नकार देता है। मीडिया में उसे जगह नहीं मिलती। समाज को एक बेहतर संदेश देने वाले कार्यक्रम न जाने कहाँ खो गए। ऐसे व्यक्ति भी आज समाज के लिए बोझ बने हुए हैं। अच्छी बातें सामने नहीं आ रही हैं, एक साजिश के तहत हम सब ठगे जा रहे हैं। फिर भी यह मुगालता कि हम देश के सभ्य नागरिक हैं।
डॉ. महेश परिमल

4 टिप्‍पणियां:

  1. वाकई महेशजी आपने िबलकुल सही िलखा है। हम एक एेसे समाज में जी रहे हैं िजसमें संवेदनाएं बोथरा गई हैं। हमारे पास-पड़ोंस में रोजाना एेसी कई घटनाएं हो रही हैं िजन्हें हम देखते तो हैं और उनपर प्रितिक्रया भी करते हैं लेिकन इसके बाद भूल जाते हैं। यह हमारी िनष्ठुरता का ही पिरचायक है।

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  2. aaj to bas hai paise ka bolbala
    agyanta kaandhkar chatega tabhee kuch hoga .
    lekh accha laga.

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  4. aaj yeh jagat ujaagar hai or hum sab samaj ke in arajak tatvo ko swikar nahi kar sakte, apne soch ko hume apni kamjori nahi banani chahiye balki unehe buland ho kar apna aakrosh jatana chahiye. Bund bund se sagar bharta hai, or vicharo ko piro kar hi hum bekharte samaj ko ek sutra me laa sakete hai.
    Aapke Vicharo ko mera naman..

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